माँ की गोद
माँ की गोद ऐसा स्थान है जहाँ पर बैठकर हर बच्चा स्वयं को सबसे अधिक सुरक्षित समझता है। उसे वहॉं ऐसा महसूस होता है कि मानो वह दुनिया का राजदुलारा बन गया है। मॉं की उस गोद में बच्चे को हर प्रकार का सुकून मिलता है। वह कितने भी शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट में क्यों न हो, उसे बस माँ की गोद मिल गई तो मानो उसे स्वर्ग मिल गया। उसे यह अच्छी तरह ज्ञात होता है कि मॉं पलक झपकते ही उसकी परेशानी को जानकर उसे दूर कर देगी। फिर उससे बढ़कर उसे और कुछ भी नहीं चाहिए होता।
बच्चा जब अपने विद्यालय से दोपहर में थका हारा घर में घुसता है तो वह माँ की तलाश करता है। वह न दिखे तो रोने-चिल्लाने लगता है।उस समय उसे ऐसा लगता है कि मानो उसका सब कुछ खो गया है। इसी प्रकार जब वह आस-पड़ोस, मुहल्ले या विद्यालय में कहीं भी लड़ाई करके या पिटकर आता है तो माँ की गोद में सिर रखकर सुबककर अपनी बेचारगी पर रोना चाहता है। वह जानता है कि उसकी पीड़ा को उसके बिना बताए ही माँ खुद समझ जाएगी। वह कभी उसका मजाक नहीं उड़ाएगी बल्कि उसे सांत्वना देगी और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरेगी।
बच्चा अपनी माँ को भली-भाँति जानता है। उसे पता है कि घर-परिवार में जब बड़े बच्चे उसे प्रताड़ित करेंगे तब माँ उनका लिहाज नहीं करेगी। वह उन्हें डॉंट-फटकार लगाएगी और उसका पक्ष लेगी। उसके पीड़ित हृदय पर मलहम लगाएगी। इसी प्रकार जब पिता से या घर के किसी अन्य बड़े व्यक्ति से डॉंट या मार खाकर माँ की गोद में आता है तो वहॉं वह सुख व चैन पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मॉं अपने बच्चे के लिए बरगद का वृक्ष होती है। उसकी छाया में बैठकर वह दीन दुनिया को विस्मृत कर देता है।
बच्चे की पूरी दुनिया उसकी माँ होती है। उसका संसार अपनी माँ की गोद से आरम्भ होकर वहीं समाप्त होता है। उसके बड़े होने पर उसकी प्राथमिकताएँ जब बदलने लगती हैं तब भी माँ के बिना वह अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकता। उसका रूठना-मानना और जिद्द करना उसकी माँ के दम पर ही होता है। जो बच्चे अपनी जरूरतों के बारे में डर के कारण अपने पापा से नहीं कह सकते, वे माँ के माध्यम से ही उन्हें पूरी करवाते हैं। उनके और पापा के बीच मॉं एक सेतु का दायित्व निभाती है।
आज भौतिक युग की आपाधापी के कारण आजीविका हेतु कुछ बच्चे माता-पिता के साथ रहते हैं परन्तु कुछ अन्य बच्चों को रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी में घर से दूर देश अथवा परदेश में रहना पड़ता है। वे सभी रिश्तों को छोड़ सकते हैं पर माँ की ममता और उसके निस्वार्थ प्रेम को कदापि भूल नहीं सकते। मृत्युपर्यन्त मनुष्य अपनी माँ को याद करता रहता है। माँ के इस संसार से विदा हो जाने पर भी वह प्रतिदिन कितनी ही बार याद करता है। अपनी माँ को 'हाय माँ' कहकर स्मरण करता है।
यह सांसारिक माँ पर हम इतना प्यार व दुलार लुटाती है और बिनमाँगे अपने बच्चों की सारी आवश्यकताएँ पूरी करती है। हम उस माँ को कैसे भूल जाते हैं जिसने हमें इस संसार में पैदा करके भेजा है। हमें उस मालिक विषय में सोचने की फुर्सत भी नहीं मिलती। उस प्रभु की गोद में विश्राम करने का विचार हमारे मन में क्योंकर नहीं आता। हमारी वह जगत् जननी माँ सदा ही इस प्रतीक्षा में रहती है कि कब उसके बच्चे बाँहे पसारे हुए उसके पास आएँगे और उसकी गोद में सुख व चैन पाएँगे। हम इतने अहसान फरामोश बच्चे हैं जो उसकी सुध ही बिसरा बैठते हैं।
इस संसार में आँखें खोलने के बाद हम धीरे-धीरे इसी दुनिया के होकर रह जाते हैं। उस जगत जननी माँ से दूरी बना लेते हैं। अपने भौतिक रिश्ते-नातों में मस्त हो जाते हैं। स्वार्थों के कारण उसे अपने से दूर कर देते हैं। जब हम उस माँ का दिल दुखाते हैं तो फिर हम सुखी नहीं हो सकते। कष्ट तो हमारे पास आने ही होते हैं। इस जीवन में स्वयं को दुखों-कष्टों से बचाने के लिए और अपने लिए सुख-शान्ति की तलाश करने हेतु तो उस प्रभु की, उस जगत् जननी माँ की महान गोद की शरण लेनी चाहिए। वह खुले दिल से हमारी प्रतीक्षा में बाट जोहती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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