लोभ सभी बुराइयों का कारण
लोभ हमारा ऐसा शत्रु है जो मृत्यु पर्यन्त हमें नाच नचाता रहता है। अपने इस शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए मनुष्य एड़ी-चोटी का जोर लगाता है परन्तु सफलता उसके हाथ नहीं लगती। परिणाम ढाक के वही तीन पात ही रहता है।
कहते हैं कि इस दुनिया में भाग्य से अधिक और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। इस अति लालच से संबंधित एक कहानी है पंचतंत्र में। वह समझाती है कि लालच करने वाले के सिर पर काल का चक्र घूमता है जो जन्म जन्मांतर तक सिर पर मंडराता रहता है। मनुष्य लहुलूहान हुआ, भूखा-प्यासा रहकर दिन-रात उसे ढोता रहता है पर फिर भी मुक्ति का मार्ग उसे दिखाई नहीं देता। यही परेशानियों और मुसीबतों का नाम है जिसके कारण हम अधिक-अधिक पाने की होड़ में दिन-रात का चैन खो देते हैं। खाने-पीने की सुध बिसरा कर हम कोल्हू के बैल की तरह हरपल पिसते रहते हैं, थककर चूर हो जाते हैं।
संस्कृत भाषा के ग्रन्थ 'हितोपदेशम्' में लोभ के विषय में कहा गया है-
लोभो मूलमनर्थानाम्।
अर्थात् लोभ सभी अनर्थों का कारण है या जड़ है।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह लोभ कभी समाप्त न होने वाली लाइलाज बिमारी है। एक वस्तु हम देखते हैं तो उसे पाने का लालच मन में समा जाता है। उसे पाने के लिए यत्न करते हैं और हासिल कर लेते हैं तो फिर दूसरी वस्तु को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। इस तरह एक के बाद लालच हमें घेरते रहते हैं। अपने जाल में ऐसा फंसा लेते हैं कि उससे बाहर निकलने की जितना यत्न करते हैं उतना ही उसमें और और उलझते जाते हैं। तब अपने बचाव का मार्ग हमें सुझता ही नहीं है।
इस लालच के कारण ही अब समाज में चोरी-डकैती, लूटमार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, कालाबाजारी, टैक्सचोरी जैसे अपराध बढ़ते जा रहे हैं। इन अपराधों को सभी लोग बुरा कहते हैं। परन्तु इसे छोड़ना नहीं चाहते। इन अपराधों के कारण लोग न्याय व्यवस्था के दोषी बन जाते हैं। फिर जेल की सलाखों के पीछे भी पहुॅंच जाते हैं। इस युग में आज सम्बन्धों की गरमाहट दिनोंदिन कम होती जा रही है जो स्वस्थ समाज की सेहत के लिए बहुत हानिकारक है।
हम सबने उस राजा की कहानी कभी अपने बचपन में पढ़ी थी जो बहुत-सा सोना इकट्ठा करना चाहता था। एक बार किसी साधु ने उसे वरदान दिया था कि जिस भी वस्तु को वह छुएगा, वह उसी क्षण सोने की हो जाएगी। अब वह राजा बहुत खुश हो गया अपना इच्छित वरदान पाकर। पर यह तो खुशी वाली बात नहीं थी। इस वरदान के कारण अपने महल की जिस भी वस्तु का स्पर्श करता, हर वस्तु सोने की हो जाती। राजा बहुत आनन्दित था कि वह अब से सोने के सिंहासन पर बैठेगा।
उसके महल के बाग के पेड़-पौधे भी सोने के हो गए। वह खाना नहीं खा सकता था क्योंकि हाथ लगाते ही वह सोने का हो जाता। जब राजा की बेटी उसके पास आई तो राजा ने उसे प्यार से गोद में उठा लिया। यह क्या, उसकी अपनी बेटी भी सोने की मूर्ति में बदल गई।। अब वह रोया-चिल्लाया कि मुझे सोना नहीं चाहिए। महात्मा जी अपना वरदान वापिस ले लीजिए।
यह कथा केवल उस राजा की नहीं, हम सबकी भी है। हम अपने पूर्वजन्म कर्मानुसार ईश्वर प्रदत्त नेमतों से सन्तुष्ट नहीं होते। प्रतिदिन नये से नया पाने के लिए भटकते रहते है। उस भटकन में खोकर हम उस मालिक को तो क्या स्वयं को भी भूल जाते हैं। लालच की इस अन्धी रेस मे दौड़ते हुए अपने प्रियजनों से मनुष्य कब विमुख हो जाता है, उसे पता ही नही चलता। जब वह चेतता है तो स्वयं को अकेला पाता है। उस समय जब उसे अपनों के सहारे की आवश्यकता होती है वह उन्हें खो चुका होता है। फिर वह पछताता है और अपने आपको धिक्कारता है। समय बीतने पर उस पश्चाताप का कोई लाभ नहीं होता।
अब हमें यह विचार करना है कि इस लोभ या लालच रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त करके हम आत्मिक शान्ति और कष्टों से मुक्ति चाहते हैं या इसके पीछे भागते हुए मृत्युपर्यन्त भटकना चाहते हैं। जो भी मार्ग उचित प्रतीत हो, उस पर ईमानदारी से चलकर अपना जीवन सुखपूर्वक बीताने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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