बच्चे कच्ची मिट्टी के समान
बच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। उन्हें जैसा भी रूप हम देना चाहते हैं, उन्हें उसी साँचे में ढालना पड़ता है। इसे हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जैसा माता-पिता अपने बच्चों को बनाना चाहते हैं वैसे ही वे बन जाते हैं। बच्चा जब इस संसार में अपनी आँख खोलता है तभी से ही उसकी शिक्षा अथवा ट्रेनिंग आरम्भ हो जाती है। उसके दूध पीने, सूसू-पाटी आदि की ट्रेनिंग शुरु होती है। ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगता है तब बैठना-उठना, खान-पान, चलना आदि सिखाया जाता है। फिर और बड़ा होने पर स्कूली शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार एक बच्चा आयुपर्यन्त कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है।
बच्चे को जैसा परिवेश अपने घर-परिवार में मिलता है वैसे ही वह बनता है। यानी जैसे संस्कार उसे घर-परिवार में मिलते हैं, वह उसी सॉंचे में ढल जाता है। इसलिए माता-पिता को सबसे पहले स्वयं पर ध्यान देना आवश्यक है। ऐसा न हो कि बच्चा वह सब कुछ सीख ले जो हम उसे नहीं सीखाना चाहते। यदि बच्चे को बचपन में उचित दिशानिर्देश मिल जाए तो वह निश्चित ही सभ्य समाज का एक अटूट हिस्सा बनता है, उसकी नफरत का नहीं।
बच्चे की सबसे पहली पाठशाला उसका घर होता है। अपने घर में जैसा देखता है, जैसा सुनता है, उसे ही ब्रह्म वाक्य मान लेता है। घर में उसे झूठ का व्यवहार दिखाई देता है तो उसे झूठ बोलने में बिल्कुल भी बुरा नहीं लगता। इसी तरह जब घर में सबको एक-दूसरे से छिपाव-दुराव करते देखता है तो अपनी गलतियाँ छुपाने लगता है। फिर धीरे-धीरे बहाने बनाने में निपुण बन जाता है। घर में पीठ पीछे एक-दूसरे की बुराई सुनकर अपना उल्लू सीधा करना सीख जाता है।
कई बार माता-पिता अत्यधिक लाड़-प्यार में बच्चों को बचपन में बिगाड़ देते हैं। ऐसे बच्चे बड़े होकर स्वच्छन्द हो जाते हैं और कुमार्गगामी हो जाते हैं। बच्चे जब माता-पिता के हाथ से निकल जाते हैं तब उन्हें दोष देने से बात नहीं बनती। ये बच्चे अपने घर-परिवार के लिए सिरदर्द बन जाते हैं और समाज के लिए अभिशाप। तब माता-पिता उन्हें दुत्कारते हैं व अपने भाग्य को कोसते हैं। जब तक पानी सिर से निकल जाता है तब कुछ भी कर पाना असम्भव-सा हो जाता है।
ऐसे बच्चे जो बच्चे किसी भी कारण से बचपन में ही बिगड़ जाते हैं, वे अपने माता-पिता की पहुँच से बहुत दूर निकल जाते हैं। तब उन्हें वापिस लौटाना नामुमकिन तो नहीं पर कठिन अवश्य हो जाता है।
सोशल मीडिया, समाचार पत्र व टीवी चैनल ऐसे बच्चों के कुकर्मों को उजागर करते रहते हैं जिनके माता-पिता उच्च पदों पर आसीन हैं अथवा बड़े-बड़े व्यापारी हैं या सम्भ्रान्त कुल के होते हैं। ये वही बच्चे होते हैं जिन्हें अतिमोह के कारण अनावश्यक लाड़-प्यार में माता-पिता बचपन में ही बिगाड़ देते हैं। उनकी जायज व नाजायज माँगों को न कहने के बजाय बिना परिणाम सोचे पूरा करते हैं। यही बच्चे बड़े होकर देश व समाज विरोधी गतिविधियों में कब लिप्त हो जाते हैं, उन मासूम बच्चों को स्वयं ही पता नहीं चलता और वे समाज के अपराधी बन जाते हैं।
वास्तव में हम बड़े लोगों को अपने गिरेबान में झाँकने की आवश्यकता है। छोटा बच्चा अपने आसपास के माहौल को बड़ी बारीकी से देखता है। उससे बहुत कुछ सीखता और समझता है। इस आयु में जो उसके विचार बन जाते हैं, वे उसके मन की कोरी स्लेट से आजीवन मिट नहीं पाते। इसलिए प्रत्येक माता-पिता को अपने आचरण में सावधानी बरतनी चाहिए। बच्चे के सामने ऐसी चर्चा करने से माता-पिता को बचना चाहिए जिसका दुष्प्रभाव उस पर गहरे से पड़े।
यह बात हम सबको अवश्य याद रखनी चाहिए कि इस संसार में बच्चा जब जन्म लेता है तब वह मासूम होता है। इस दुनिया के छल प्रपंचो से अनजान होता है। तभी बच्चों के मन को सच्चा कहते हैं। उन्हें छल-कपट के संस्कार हमीं लोग देते हैं। उन भोले-भाले मासूम बच्चों पर यदि हम अपनी ही महत्त्वाकॉंक्षाओं का अनावश्यक दबाव नहीं डालेंगे, तभी उनका चहुँमुखी विकास सम्भव हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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