बुधवार, 16 जुलाई 2025

'द' शब्द का उपदेश

'द' शब्द का उपदेश 

उपनिषद में एक कथा आती है कि एक बार देवता, असुर और मनुष्य सभी मिलकर प्रजापति के पास गए। उन्होंने उनसे उपदेश देने के लिए कहा। प्रजापति ने उन सबको केवल 'द' शब्द का उपदेश दिया। तीनों ने उस शब्द का अर्थ अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लगाया।
              देवताओं ने 'द' शब्द से संयम अर्थ लिया। असुरों ने इस 'द' शब्द से अर्थ समझा दया। मनुष्यों ने 'द' शब्द का अर्थ निकाला दान। एक ही शब्द के तीन अलग-अलग अर्थ यह बताते हैं कि मनुष्य अपनी-अपनी योग्यता व बौद्धिक क्षमता के अनुसार ही किसी शब्द का अर्थ ग्रहण करते हैं।
             यह एक प्रतीकात्मक कथा है। दैवी, आसुरी और मानवी ये सभी शक्तियाँ हमारे अपने अन्तस में विद्यमान रहती हैं। इन शक्तियों में से कभी किसी का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी किसी का। जिस समय जो गुण मनुष्य पर हावी होता है, तदनुसार मनुष्य वर्ताव करने लगता है।
            दैवीय गुण जब मनुष्य में प्रधान होते हैं तब वह देवता तुल्य हो जाता है। उस समय उसे अपने कदम फूँक-फूँक कर रखने पड़ते हैं। वह संयमित जीवन व्यतीत करने लगता है। यदि वह अपने संयम से परे हो जाए तो उसका पतन निश्चित होता है। ऐसे दैवीय गुणों वाला व्यक्ति समाज का दिग्दर्शक होता है। अपनी आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ समाज के निर्माण का कार्य भी वह करता है। 
          ये लोग परोपकारी होते हैं। अपना सर्वस्व दूसरों के लिए न्योछावर कर देने से परे नहीं हटते। दुखियों व पीड़ितों के लिए ये लोग छायादार वृक्ष के समान होते हैं। उनके पास जाकर लोगों को हर प्रकार से मानसिक शान्ति मिलती है।
            अब प्रश्न उठता है कि देवतुल्य व्यक्ति को प्रजापति के द्वारा संयम का उपदेश क्यों दिया गया? इसका सीधा-सा अर्थ है कि संसार में आकर्षण इतने अधिक हैं कि उसे अपने चरित्र की रक्षा करनी पड़ती है। नहीं तो वह भी समय की धारा में बहता हुआ तथाकथित सद्पुरुषों की भाँति दूसरों के धन का हरण करने वाला, धोखेबाज, भ्रष्टाचारी, कालाबाजारी करने वाला, हेराफेरी करने वाला बन सकता है। ऐसा करने पर ये फिर समाज में कलंक की तरह हो जाएँगे। उनका देवत्व तो नहीं बच सकेगा। इसलिए अपने जीवन को संयमित बनाना ही उनके लिए आवश्यक हो जाता है। तभी उनके लिए द(दमन) उपदेश की सार्थकता होती है।
              असुर यानी आसुरी विचार हमारे मन में विद्यमान रहते हैं। वे सदा शार्टकट का सहारा लेना चाहते हैं। हड़बड़ाहट में उल्टे- सीधे कार्य करते हैं। प्रायः समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहना पसन्द करते हैं। स्वेच्छाचारी उनको न अपनों का डर होता है न समाज का। वे दूसरों को कष्ट देकर आत्मतुष्टि प्राप्त करते हैं। दूसरों की आँख की किरकिरी ये लोग घर-परिवार, देश व समाज के शत्रु होते हैं। न इनकी दोस्ती अच्छी होती है और न ही इनकी दुश्मनी। जहाँ तक हो सके इनसे किनारा करना ही श्रेयस्कर होता है। इनके लिए द(दया) का उपदेश बिल्कुल जरूरी है।
              तीसरे नम्बर पर हैं मनुष्य यानी कि मानुषी प्रवृत्ति। मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं- दया, ममता, सौहार्द आदि। मानवोचित गुण होने से ही समाज में भाईचारा बना रहता है। सामाजिक, धार्मिक, घर-परिवार व देश व समाज के सभी कार्य सुचारू रूप से चलते रहें इसके लिए हर कदम पर धन की आवश्यकता होती है। तभी मनुष्यों को द(दान) करने का उपदेश दिया।
            यह सांकेतिक कथा अपने में इतनी गहराई समेटे हुए है। हम तो इसे कथा की तरह पढ़-सुनकर आनन्द लेते हैं। परन्तु यह हमारे गहन भावों को झकझोर देती है। हमें मनन करने के लिए विवश करती है कि हम देवतुल्य बनकर अमर होना चाहते हैं अथवा असुर बनकर मुँह छिपाते रहना चाहते है या फिर मनुष्य बनकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

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