चेतावनी देता ईश्वर
हम बेसुध होकर सोते रहते हैं और ईश्वर हमें जगाने के लिए बारबार चेतावनी देता रहता है। सुख-दुख के रूप में वह हमें अहसास कराता है कि इस संसार में मेरी भी सत्ता है। उसे कभी चुनौती देने की गलती मत करना। परन्तु हम सब तो ऐसे अवज्ञाकारी बच्चे हैं जो पुनः पुनः उसकी महानता से मुख मोड़ लेते हैं। हम सोचते हैं उसकी ओर से ध्यान हटा लेने से अथवा विमुख हो जाने से जैसे उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
सुख, शान्ति व ऐश्वर्य मिलने पर हम उसे पूरी तरह नकार देते है। हम बड़े अभिमान से कहते हैं कि मैंने मेहनत की और अपने लिए सुख के सभी साधन जुटा लिए। उस समय मनुष्य अपने झूठे अहं के चलते यह भूल जाता है कि संसार में जो कुछ भी है, वह सब कुछ उस मालिक के अधीन है। उसकी इच्छा के बिना वह एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। मनुष्य यदि चाहे भी तो एक कदम आगे नहीं बढ़ा सकता। न ही मनुष्य अपनी इच्छा से एक श्वास ले सकता है।
इसके विपरीत दुख की स्थिति में वह मालिक को गिला-शिकवा करने से नहीं चूकता। उसे अपने दुखों का दाता मानकर उसे कोसता है और गाली तक दे देता है। मनुष्य अपने ही समान परमात्मा को समझता है। उस परम न्यायकारी परमेश्वर वह पर पक्षपात करने का आरोप तक लगा बैठता है। कबीरदास जी के इस दोहे को आत्मसात करना आवश्यक है-
दुख में सिमरन सब करें सुख में करे न कोय।
जो सुख में सिमरन करे तो दुख काहे को होय॥
अर्थात् दुख में सभी भगवान को याद करते हैं, सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान को याद किया जाए, तो दुख नहीं होगा।
इसका मतलब है कि लोग अक्सर केवल दुख की घड़ी में ही भगवान को याद करते हैं। जब सुख का समय आता है तब उसे भूल जाते हैं। यदि सुख में भी भगवान को याद किया जाए तो दुख का अनुभव शायद कम होगा या नहीं होगा। भगवत स्मरण से दुख या कष्ट कटते नहीं हैं, उन्हें तो भोगना ही पड़ता है। परन्तु मनुष्य को उन्हें सहन करने के लिए आत्मिक बल प्राप्त होता है।
अब यह विचारणीय है कि वह ईश्वर हमें आगाह कैसे करता है? किस प्रकार चेतावनी देता है? किसी भी अच्छे या गलत कार्य को करने पर वह हमें अन्तस की आवाज के रूप में चेतावनी देता है। दूसरे शब्दों में हम उसे अन्तरात्मा की आवाज भी कह सकते हैं। वह हमें हमारे इच्छित कार्य को उत्साहपूर्वक करने अथवा न करने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार हमारा मार्गदर्शन कराता है। हम ऐसे नासमझ हैं कि उस चेतावनी को अनसुना कर कष्ट भोगते हैं।
उसने इस संसार में हमें इसलिए भेजा है कि हम उसको याद करते हुए, डरते हुए सत्कर्म करें। जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करें। हम सारा जीवन स्वयं को बहलाते रहते हैं। उसकी पूजा-अर्चना न करने के हास्यास्पद बहाने खोजते हैं। कभी कम वय का, कभी किसी कार्य विशेष के पूरा होने की प्रतीक्षा को हथियार बनाने की नाकाम कोशिश करते हैं। सबसे अच्छा दिल हम यह कहकर बहलाते हैं कि अभी समय नहीं है ईश्वर का भजन करने का। जब बुढ़ापा आएगा तब उसका नाम जप लेंगे।
इस प्रकार की बातें करते हुए मनुष्य भूल जाता है कि बुढ़ापे में भी नाम तभी ले सकेंगे जब हम जवानी या बचपन में उसे स्मरण करेंगे। यदि बुढ़ापे को हम सीमा बनाएँगे तो उसका स्मरण कभी सम्भव नहीं हो पाएगा। वृद्धावस्था में शरीर अशक्त होने लगता है और इन्सान अपनी बिमारियों में ही उलझा रहता है। उस समय वह ईश्वर का नाम जपने की स्थिति में नहीं रहता।
ईश्वर समय-समय पर चेतावनी देता रहता है और कहता है, जागो बहुत हो गया है अब मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह हमारे कर्मानुसार कष्टों की भट्टी में हमें झौंकता है। फिर भी हम उसको क्षणिक ही याद करते हैँ और फिर भूल जाते हैं।
ईश्वर बार-बार हमें चेतावनी देता है। सबसे पहली चेतावनी होती है बालों में सफेदी आना। उसका अर्थ होता होता है कि अब होश में आ जाओ। पर हम बालों को रंगकर उस मालिक को बहकाते हैं। तत्पश्चात आँखें कमजोर होना भी एक प्रकार से चेतावनी होती है। तब हम ऑंखों पर चश्मा लगाकर उसे झूठा सिद्ध करने का असफल प्रयास करना चाहते हैं। दाँतों का गिरना भी उसका चेताने का ही एक रूप होता है। हम बहुत समझदार हैं जो दाँतो का डेंचर (नकली दाँत) लगाकर उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिमाकत करते है। अन्तिम चेतावनी श्रवण शक्ति कमजोर होना होती है। परन्तु हम यहाँ भी कानों में मशीन लगाकर बस झुठलाने का यत्न भर ही करते हैं।
इस प्रकार स्वयं को छलावे में रखकर सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ कर देते हैं पर मन से उसका स्मरण नहीं करते। हम बहुत ही सधे हुए कलाकार हैं जो उसकी भक्ति करने के प्रदर्शन करने का कोई मौका नहीं गॅंवाते।
अन्त में मैं यही कहना चाहती हूँ कि ईश्वर की उपासना व्यक्तिगत आस्था का विषय है। परन्तु फिर भी सच्ची श्रद्धा से और भावना से उसे स्मरण करना चाहिए। क्योंकि वह दिखावे का नहीं बल्कि हमारे भाव का भूखा है। उसको सच्चे हृदय से याद करने से ही हमें सच्चा सुख व मानसिक शान्ति मिलती है। ईश्वर का निरन्तर निष्काम ध्यान जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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