रविवार, 6 जुलाई 2025

आन्तरिक शत्रुओं पर विजय

आन्तरिक शत्रुओं पर विजय 

मनुष्य अपने सांसारिक शत्रुओं पर साम, दाम, दण्ड और भेद किसी भी तरह का उपाय करके विजय प्राप्त कर लेता है। वह बस यही चाहता है कि कोई भी व्यक्ति, किसी भी क्षेत्र में उसके सामने सिर न उठाए। यदि कोई ऐसा करने का प्रयत्न करता है तो वह अपना आपा खो देता है। वह उसे कुचल डालने के लिए मचल उठता है। वह यह भी नहीं देखता कि उसके समक्ष सिर उठाने वाला उसका कोई अपना है अथवा कोई अन्य। उसके लिए मानो वह उसका कट्टर शत्रु बन जाता है।
              इसी प्रकार किसी सत्ता ने भी कभी किसी को प्रतिकार नहीं करने दिया। सतयुग से लेकर आज कलयुग तक कमोबेश यही स्थिति रही है। इतिहास गवाह है कि जो भी स्वर सत्ता को चुनौती देने के लिए विरोध में उठा उसे वहीं दबा दिया गया। कोई भी शक्तिशाली राज्य दूसरे कमजोर राज्यों को अपने अधिकार में कर लेने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसकी स्वायत्तता उसके लिए मानो कोई मायने नहीं रखती।
              यह तो थी बाहरी शत्रुओं की चर्चा। अब हम अपने स्वयं के शत्रुओं के विषय में विचार करते हैं। हमारे अपने अन्तस में विराजमान काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार - इन पाँचों शत्रुओं से हमारी गहरी छनती है। उनको पुष्ट करने में हम इतने मस्त रहते हैं कि सारी दुनिया को आग लगाने को तैयार रहते हैं। मनुष्य को ठगने वाले इन पाँचों शत्रुओं को मनीषी चोर की संज्ञा देते हैं। इनके लिए कहा जाता है कि ये पॉंचों शत्रु दिन-रात हमें ठगते रहते हैं। मजे की बात यह है कि हम इस सबसे बेखबर रहते हैं।
             जितना अधिक सत्कार करके हम इन पाँचों का अपना मित्र बनाते हैं, उनके साथ मौज-मस्ती करते हैं या इनमें डूब जाना चाहते हैं, उतना ही ये हमें पतन के मार्ग की ओर धकेलते हैं। मैं और मेरा अहं हम दोनों ही बस तुष्ट होते रहें बाकी किसी से कोई मतलब हम नहीं रखना चाहते। हालांकि इस सोच वाली स्थिति बड़ी विकट है। यथासम्भव इससे बचने का हमें हमेशा ही प्रयत्न करते रहना चाहिए।
              जीवन में इनकी बहुत आवश्यकता होती है। परन्तु इनको उतना ही बढ़ावा देना चाहिए जितनी इनकी आवश्यकता हो। अनावश्यक प्रश्रय मिलने पर ये सिर पर सवार हो जाते हैं। इनसे तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इनसे नहीं बच सकते तो हम मनुष्यों की क्या कहें?
             काम की गृहस्थ जीवन में महती आवश्यकता होती है पर मात्र सन्तानोत्पत्ति के लिए। इसकी अधिकता होने पर मनुष्य राक्षस तुल्य बन जाता है। बलात्कार आदि अपराध इसी काम की अधिकता के कारण होते हैं। संसार के सर्वश्रेष्ठ जीव हम मनुष्य यदि नियमानुसार संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करें तो इन बुराइयों से बचा जा सकता है।
        क्रोध की आवश्यकता भी जीवन में होती है। यदि मनुष्य बिल्कुल भी क्रोध नहीं करेगा तो उसे उसी प्रकार कोई पूछेगा ही नहीं जैसे विषरहित साँप से कोई नहीं डरता। इसकी अधिकता हमेशा नुकसान देती है। घर-परिवार, भाई-बन्धु कोई भी क्रोधी का सम्मान नहीं करता। उसे उसका वह स्थान नहीं मिलता जिसके वह योग्य होता है। 
             लोभ का संवरण प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए नहीं तो चोरी की हद तक उसे यह दुर्गुण ले जाता है। जिसका पश्चाताप मृत्युपर्यन्त करना पड़ता है। इसीलिए कहते हैं- लालच बुरी बला है।
               मोह में पड़कर इन्सान सच और झूठ की पहचान नहीं कर पाता। मोह सृष्टि को चलाने के लिए एक सीमा तक आवश्यक है। अतिमोह धृतराष्ट्र की तरह कुल और साम्राज्य के विनाश का कारण बन जाता है। 
              मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए परन्तु उसे अहंकार से नाता कभी नहीं रखना चाहिए। अहंकार हमेशा सिर नीचा कराता है। कोई भी व्यक्ति अहंकारी की सराहना नहीं करता। वह सदा ही आलोचना का पात्र बनता है।
            ‌इन पाँच शत्रुओं को वश में करने से सदा मनुष्य सर्वविध उन्नति करता है तथा आत्मिक बल व शान्ति प्राप्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

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