दूसरे की थाली का लड्डू
दूसरे की थाली में रखा हुआ लड्डू
हमेशा हमें बड़ा दिखाई देता है।
यह उक्ति हम सब लोग सुनते और कहते रहते हैं। हमने कभी इस विषय पर विचार ही नहीं किया कि अपनी थाली में रखा हुआ लड्डू हमें छोटा क्यों दिखाई देता है? जबकि सभी लड्डू एक ही आकार के आए होते हैं। यहॉं किसी के साथ पक्षपात वाली कोई बात ही नहीं है। बच्चे तो प्रायः ऐसा कहते हैं। जब माता-पिता बच्चों को कोई वस्तु देते हैं तब उन्हें अपने बहन-भाई की वह चीज अधिक अच्छी लगती है। खाने की कोई वस्तु उन्हें दी जाए तो वे अपने माता-पिता पर आरोप लगाते हैं कि दूसरे भाई या बहन को अधिक दिया है। वह उनका प्रिय है आदि कहकर अपना रोष प्रकट करते हैं।
जहाँ तक मुझे समझ में आता है इसका अर्थ यह है कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो कभी किसी भी स्थिति में सन्तुष्ट नहीं होता। उसे अपना धन-दौलत, ऐशो-आराम, गाड़ी, नौकर-चाकर आदि सब कम लगते हैं। दूसरों की हर वस्तु उसे अपनी वस्तुओं से अधिक दिखाई देती हैं। कभी-कभी तो हद तब हो जाती है जब वह किसी पड़ोसी, मित्र या सम्बन्धी की कोई नई खरीददारी देखता है। उसी समय उसकी होड़ करते हुए बिना समय गॅंवाए, उस वस्तु को तुरन्त ही खरीदने के लिए लालायित हो जाता है।
उस वस्तु को खरीदने के लिए चाहे उसके पास साधन ही न हों। उसे पाने के लिए वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाता है। चोरी-डकैती, लूटमार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, कालाबाजारी, टैक्सचोरी जैसे अपराध करने से वह बाज नहीं आता। जिन सभी अपराधों को वह कभी गलत मानता था या जिन्हें अपराध की श्रेणी में गिनता था, लालचवश उसी कुत्सित डगर पर बिना कुछ सोचे खुशी-खुशी चल पड़ता है।
इस तरह दूसरों की होड़ करते हुए वह और-और पाने की चाह करता रहता है जो कभी समाप्त नहीं होती। एक वस्तु को जब वह किसी के पास देख लेता है तो उसके पीछे दिन-रात भागता है। उसे पाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है और हासिल कर लेता है तो फिर दूसरी को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। इस तरह एक के बाद एक लालच मनुष्य को घेरता रहता है। यह लालच उसे अपने जाल में ऐसा फंसाता है कि मनुष्य जितना उससे बाहर निकलने का प्रयत्न करता है उतना ही उसमें और अधिक उलझता जाता है।
इस उलझन को सुलझाने के लिए कहीं तो सीमारेखा खींचनी पड़ती है। प्रश्न यह उठता है कि वह सीमा कौन निर्धारित करेगा? इस सीमा को हमें स्वयं ही तय करना है। आखिर हमें कभी तो इस भटकन से छुटकारा पाना ही होगा। नहीं तो सारा जीवन अशान्त ही रहना पड़ेगा।
यदि मनुष्य के मन में सन्तुष्टि का भाव आ जाए तो वह भटकन से बच सकता है। सन्तोष ऐसा धन है जो किसी को मिल जाए तो उसे कोई लालच नहीं घेरता। है सन्तोषी मनुष्य दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति बन जाता है। तुलसीदास जी के इस दोहे को देखिए-
गोधन गजधन बाजिधन और रत्नधन खान।
जब आए सन्तोष धन सब धन धूरि समान॥
अर्थात् तुलसीदास कहते हैं कि मनुष्य के पास भले ही गाय रूपी धन हो, गज यानी हाथी रूपी धन हो, वाजि यानी घोड़ा रूपी धन हो, रत्न यानी धन-सम्पत्ति का अकूत भण्डार हो, फिर भी उसकी सन्तुष्टि कभी मिटने वाली नहीं होती। वह कभी भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। ये सभी धन उसे जितना प्राप्त होंगे उसकी इनको और अधिक पाने की कामना बढ़ती जाएगी। परन्तु सन्तोष रूपी धन के सामने दुनिया के सभी ऐश्वर्य मनुष्य के लिए धूल के समान हो जाते हैं। फिर उसे किसी दूसरे की थाली की ओर ललचाई नजरों से देखने तक की आवश्यकता नहीं रह जाती।
मनुष्य मे यह सन्तोष रूपी भाव कब आएगा? यह कहा नहीं जा सकता। आने को तो सौ रुपए कमाकर आ जाए और न आए तो करोड़ रुपए कमाकर भी न आए। मनुष्य जब इस सन्तोष की भावना को आत्मसात कर लेता है तभी सन्तुष्ट हो सकता है। आयु की भी कोई सीमा नहीं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो सारा जीवन किसी न किसी कारण से असन्तुष्ट रहते हैं।
इस असार संसार में मनुष्य को उतना ही मिलता है जितना उसके पूर्व जन्म कृत कर्मों के अनुसार भाग्य में होता है। उससे अधिक और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। ईश्वर बहुत ही न्यायकारी है। हर किसी को उसके हिस्से का अंश बिना कहे व बिना मॉंगे यथासमय वह देता रहता है। उसके घर इस संसार की तरह अन्धेर नहीं है। उस प्रभु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पण भाव रखने से मन में संतोष की भावना आती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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