पंच महायज्ञ
हमारे शास्त्र हमें प्रतिदिन पंच महायज्ञ करने का निर्देश देते हैं। ये पंच महायज्ञ हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ या भूतयज्ञ और बलिवैश्व देव यज्ञ। प्रत्येक गृहस्थ के लिए इन पाँचों महायज्ञों का अनुपालन करना आवश्यक माना जाता है। हम इस ब्रह्माण्ड से बहुत कुछ लेते हैं। इस समाज का भी हम पर ऋण होता है। इस ऋण से उऋण होने के लिए शास्त्रों ने इन पंच महायज्ञों को नित्य करने का विधान किया है।
इन यज्ञों के नाम पढ़कर कदाचित आप सोच रहे हैं कि शास्त्र क्या करने के लिए कह रहे हैं। निश्चिन्त रहिए इन सभी यज्ञों को हम नित्य करते हैं परन्तु शायद अनजाने में और बिना नियम के। इनके विषय में आप जानिए।
1 ब्रह्मयज्ञ - सबसे पहला यज्ञ कहा गया है। इसका अर्थ है प्रातः उठकर नित्य-नैमित्तिक कार्यों से निपटकर ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। उसके बाद इस दुनिया के झमेले निपटाने चाहिएँ। जिसने हमें इस संसार में जन्म दिया है, उसकी स्तुति करते हुए उसका धन्यवाद करना चाहिए। वैसे इस भौतिक संसार में रहते हुए यदि कोई हमारी सहायता करता है या हमें लाभ पहुँचाता है तो हम शिष्टाचारवश उस मनुष्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए धन्यवाद देते हैं।
परमपिता परमात्मा ने इस धरती पर जन्म देकर हम पर महान उपकार किया है। अपना कहने के लिए घर-परिवार दिया है। इतने सारे बन्धु-बान्धव हमें दिए हैं। संसार में रहते हुए हमें सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध करवाए हैं। अपनी नेमतों से सदा हमारी झोली भरता रहता है। ऐसे उस प्रभु का आभार हमें अपने मन से प्रकट करना ही चाहिए। यह हमारा नैतिक दायित्व बनता है। शायद इसकी अपेक्षा वह प्रभु भी हमसे करता होगा।
2 देवयज्ञ - ऋषियों ने दूसरा यज्ञ देवयज्ञ बताया है। इसका अर्थ है सज्जनों की संगति करना। दूसरा अर्थ है सभी देवों को उनका भाग दिया जाए। सभी देवों से तात्पर्य है प्रकृति के कहे जाने वाले वे सभी देव जिनसे हम प्रतिदिन ग्रहण करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में सूर्य जो हमें प्रकाश व ताप देता है, इन्द्र यानी बादल जिनके बरसने से हमें खाने के लिए अनाज व पीने के लिए जल मिलता है। वृक्ष हमें फल व छाया देते हैं। ये कुछ नाम गिनाए हैं इसी प्रकार अन्य सभी देव हैं।
हमारा अपना परिवेश भी है जिसमें हम बदबू व गन्दगी फैलाते हैं। इन सबको उनका भाग यज्ञ-हवन करके दे सकते हैं। यज्ञ की सामग्री, धूप और अगरबत्ती जलाकर इस यज्ञ को सम्पन्न किया जाता है।
3 पितृयज्ञ - तीसरा महायज्ञ पितृयज्ञ कहा गया है। यह हमें अपने माता-पिता की सेवा करने के लिए कहता है। इसका बस इतना ही अर्थ है कि उनकी सारी आवश्यकताओं को उनके बिना कहे पूरा करना। उन्हें यथोचित मान-सम्मान देना जो उनको मिलना चाहिए। माता-पिता हमें इस संसार में लाकर हम पर महान उपकार करते हैं। उनके इस ऋण को हम आजन्म उनकी सेवा करके भी उससे उऋण नहीं हो सकते। यह हम सभी को हमेशा याद रखनी चाहिए।
4 अतिथियज्ञ - चौथा यज्ञ अतिथियज्ञ कहलाता है। हमारे घर में आने वाले बिना सूचना के साधु-सन्तों और अपने मित्रों-सम्बन्धियों आदि का यथोचित आदर-सत्कार करना अतिथियज्ञ कहलाता है। इस यज्ञ को करने का एक विशेष प्रयोजन है। वह यह है कि मनुष्य सामाजिक प्राणि है और अकेला नहीं रह सकता। इसलिए वह समाज से बहुत कुछ लेता रहता है। अत: मनुष्य का कर्त्तव्य बनता है कि वह समाज के हित के कार्य करे। अतिथि का सत्कार करना उसी का ही एक रूप है।
5 बलिवैश्वदेव यज्ञ - इस पांचवें यज्ञ के अनुसार प्रतिदिन जो भी भोजन घर में बनाया जाए, उसमें नमकीन, खट्टे और खार अन्न को छोड़कर घी और मीठे से युक्त अन्न को चूल्हे से अग्नि लेकर आहुति देते हैं। आजकल के समय में घरों में चूल्हे नहीं हैं तो वह अन्न चींटियों को भी डाल सकते हैं।
इस प्रकार नियमपूर्वक इन पंच महायज्ञों को करने से हम गृहस्थ अपने दायित्वों की पूर्ति कर सकते हैं। इससे हमें आत्मिक सुख और सन्तोष मिलता है। हम अपनी भारतीय संस्कृति को बचाकर रख सकते हैं। यह हमारे लिए बहुत सौभाग्य की बात होगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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