शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

भेड़चाल चलन

भेड़चाल चलना 

हम सभी जीवन भर भेड़चाल चलते रहते हैं। भेंड़चाल का तात्पर्य हैं कि एक भेड़ जिधर चलती है, उसके पीछे शेष भेड़े चल पड़ती हैं बिना यह जाने कि वह कहाँ जा रही है। वही हाल हम सभी मनुष्यों का भी है। कारण बहुत स्पष्ट है, वह यह है कि अपने आस-पास के माहौल से हम बहुत शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं। इसलिए यदा-कदा परेशानियों का सामना करते रहते हैं। हम अपनी परिस्थितियों का आकलन करना ही नहीं चाहते। बस दूसरों की ओर देखते रहते हैं।
            आज हमारे पड़ौसी ने महंगी वाली नयी गाड़ी खरीदी है पर हमारे वाली कार उसकी गाड़ी के सामने पुरानी लगेगी। यह तो कोई बात नहीं हुई। मतलब तो सुविधा लेने का है। अपनी गाड़ी पुरानी हो गई है तो कोई बात नहीं। उससे काम तो चल रहा है। उसकी सामर्थ्य थी उसने गाड़ी खरीद ली। इसमें तो कोई बड़ी बात नहीं। सभी लोग आपने साधनों के अनुसार उपयोगी वस्तुएँ खरीदते हैं। खुश होते हैं और उसका उपभोग करते हैं। पर हमारा क्या हम तो परेशान हो गए। हम उसके सुख में खुश नहीं हो सकते। 
              पडौसी की नई गाड़ी देखकर अब बस शुरु हो गया हमारे घर में कलह-क्लेश। घर के सभी सदस्य उठते-बैठते ठण्डी आहें भरेंगे और अपने भाग्य को कोसते हुए व्यंग्य बाण छोड़ेंगे। फिर शुरु होगा जोड़-तोड़ का सिलसिला। चाहे हमें उसकी जरुरत हो या न हो, हमारे पास उसे खरीदने के साधन है अथवा नहीं। पर हम तो ऐसे हैं जो खरीद कर ही दम लेंगे। न हम अपनी होने वाली कटौतियों के बारे में सोचेंगे और न ही अपनी असुविधाओं के बारे में। बस दिनरात एक ही रट व आहें जो जीवन दूभर कर देती हैं। जरूरत होगी तो कर्ज लेकर ही हम अपने पड़ौसी को दिखा देंगे कि तू क्या चीज है हम भी कम नहीं।
               हमारी यह एक नाक बेचारी है जो हर दूसरे दिन कट जाती है। अब हमारे घर भी पड़ौसी जितनी या उससे महंगी गाड़ी आ गई। अब तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं और हमारी छोटी-सी चढ़ने वाली नाक कटी नहीं, बच गई बल्कि अब ऊँची हो गई। अपने इलाके में वाहवाही हो गई। अब बताइए ऐसी वाहवाही से क्या होगा? इसी प्रकार हम सदैव अपनी कमियों का रोना रोते रहते हैं। हर दिन हमारा कोई बन्धु-बान्धव अथवा पडौसी कुछ नया लेकर आ जाएगा। हम कब तक इस अन्धी दौड़ में दौड़ते रहेंगे? अपने मन को कब तक परेशान करते रहेंगे?
             इस होड़ का कोई अन्त नहीं है। हम दूसरों की खुशी में खुश नहीं होते और न ही उनके सुख को खुले दिल से स्वीकार करते हैं बल्कि ईर्ष्या में जलते रहते हैं। उनका कुछ नहीं बिगड़ता पर हाँ, अपना खून अवश्य जलता है। होना तो यह चाहिए कि खुले दिल से प्रसन्न होकर उन्हें बधाई दी जाए। दूसरे की समृद्धि से ईर्ष्या करने के स्थान पर अपने हृदय को विशाल बनाना चाहिए। इस प्रकार करने से मन अवसादग्रस्त नहीं होता। हम अनावश्यक तनाव में नहीं आते।
               मैंने यह एक छोटा-सा उदाहरण प्रस्तुत किया है संकीर्ण मानसिकता का और हमारे द्वारा की जा रही भेड़चाल का। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहाँ इन भौतिक वस्तुओं की पाने की ललक में न जाने कितने मासूमों के खून से होली खेली गई। इन भौतिक तृष्णाओं का कोई अन्त नहीं है। एक के बाद एक ये तृष्णाएँ हमारा सुख-चैन छीनकर हमें मानसिक रूप से बीमार बना देती हैं। हम भी बस सांसारिक प्रलोभनों में फॅंसकर दिन-रात मृगतृष्णा के पीछे भागते हुए थककर चूर हो जाते हैं। अनावश्यक ही दुनिया में हंसी का पात्र बन जाते हैं।
              हम उन वस्तुओं की होड़ करते हैं जो दुख का कारण हैं। परन्तु सकारात्मक होड़ नहीं करते जो सुख-शान्ति का कारण हैं। हम यह होड़ नहीं करते कि हमारा पड़ोसी, मित्र या सम्बन्धी परोपकार के कार्य करता है, दान देता है, भगवत भजन में व्यस्त रहता है, उसके बच्चे आज्ञाकारी हैं, वह सादा जीवन उच्च विचार का पोषक है, उसके घर में सुख-शान्ति है। जो इन सब उपलब्धियों से मालामाल हैं हम उन्हें मूर्ख समझकर उनका मजाक उड़ाते हैं। जबकि कुछ समय बीतने पर यही लोग दूसरों की ईर्ष्या का कारण बनते हैं। यदि समय रहते इन सबकी होड़ में जुट जाएँ तो स्वयं को धन्य कर सकते हैं। अपने जीवन को भेड़चाल के कारण इधर-उधर भटकने से बचा सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

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