जैसे कर्म वैसे फल
बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए।
यह उक्ति हमें समझा रही है कि यदि हम बबूल का पेड़ बोते हैं तो उससे हम कदापि आम का स्वादिष्ट व रसीला फल प्राप्त करके नहीं खा सकते। उसके लिए आम का बीज बोकर ही हमें आम का पेड़ लगाना पड़ेगा। बबूल के पेड़ से तो बस काँटे ही मिलेंगे मीठे फल नहीं। आम का पेड़ देर से फल देता है। वह मीठे फल व शीतल छाया केवल पेड़ लगाने वाले को ही नहीं देता बल्कि सभी को देता है जो उसके सम्पर्क में आते हैं।
इसी प्रकार सद् विचारों वाले लोगों के सम्पर्क में आने वालों को भी उनकी अच्छाई का फल मिलता है। बबूल की तरह कष्टदायी जनों के सम्पर्क में आने वालों को कॉंटे ही मिलते हैं। कर्मों की मण्डी इस संसार में मनुष्य जैसा कर्म करता है या जैसा बीज बोता है वैसा ही फल उसे मिलता है। उसी प्रकार जीवन में हम अच्छे कर्म करेंगे तभी सुख, शान्ति व समृद्धि मिलेगी। यदि हम सद् कर्म नहीं करेंगे तो निश्चित ही दुखों व कष्टों का सामना करना ही पड़ेगा।
इसीलिए मनीषी यह कहते हैं-
जैसी करनी वैसी भरनी
इसका सीधा-सा अर्थ है कि मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के साथ करेगा वैसा ही व्यवहार उसे बदले में मिलेगा। अथवा जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है।
हमें वही मिलता है जो जीवन में हम दूसरों के साथ बाँटते हैं। दूसरों के साथ विष साझा करेंगे तो हम अमृत पाएँगे ऐसी कल्पना करना ही व्यर्थ है। हमें अमृत तभी मिलेगा जब हम दूसरों को अमृत पिलाएँगे। हम भगवान शिव नहीं हैं जो विषपान करके भी सबको अमृत देंगे। संसार में हम अपने लिए सभी से मधुर व्यवहार की अपेक्षा करते हैं पर स्वयं इसके विपरीत आचरण करते हैं। तब ऐसा सोचना कि हमारे साथ सब अच्छा होगा सर्वथा अनुचित है। लेने और देने दोनों के बाट एक जैसे होने चाहिएँ तभी परस्पर सौहार्द बना रह सकता है। अन्यथा उलाहने ही शेष रह जाते हैं। सबके साथ समभाव रखकर चलने से ही व्यवहार में सन्तुलन बना रहता है।
हम अगर चारों ओर खुशियाँ बाँटेंगे तो ईश्वर की कृपा से हमारी झोली में भी खुशियाँ ही आएँगीं। इसके विपरीत यदि हम स्वार्थ, नफरत या ईष्या-द्वेष की खेती करेंगे तो फिर उसी की फसल काटेंगे। निश्चित ही हमें भी दूसरों से स्वार्थ व नफरत का व्यवहार ही मिलेगा। उस समय हमारे साथी दूसरों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार बनते हैं दया, ममता, सौहार्द और प्रेम आदि सद् व्यवहार हमारा साथ नहीं देते।
ऐसी स्थिति आने पर हम सिर धुनकर पछताते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है कि यह सारा जमाना हमारा दुश्मन हो गया है। कोई भी हमें प्यार नहीं करता, हमें नहीं चाहता। यह सब सोचते हुए हम धीरे-धीरे अवसाद का शिकार होने लगते हैं।फिर शुरू हो जाते हैं डाक्टरों के चक्कर। समय और पैसे की बरबादी के साथ-साथ स्वास्थ्य की हानि भी होती है। यह स्थिति हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होती है।
ऐसे समय में हम पानी पी-पीकर सभी बन्धु-बान्धवों को कोसते हैं। सबका खून सफेद होने का रोना रोते हैं परन्तु अपने गिरेबान में झाँकने का प्रयास ही नहीं करते। हम दूसरों के साथ अपना व्यवहार कैसे रखते हैं? इस बारे में कभी सोचना ही नही चाहते।
हमारी परिकल्पना किस तरह के समाज, परिवार अथवा देश का निर्माण करने की है? यह हम पर निर्भर करता है। जैसा भी हम चाहते हैं उसके लिए प्रयत्न भी तो हमीं को ही करना पड़ेगा। यदि हम चारों ओर सुख, शान्ति, समृद्धि व सौहार्द का साम्राज्य बनाना चाहते हैं तो इन्हीं भावों को सबके साथ बाँटना होगा। इस दिशा में हमारा आगे कदम बढ़ाना तभी सार्थक हो सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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