प्रेम का व्यवहार
प्रत्येक जीव से प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। महत्मा बुद्ध का कथन है-
'समस्त प्राणियों से प्रेम करना ही
सच्ची मनुष्यता है।'
छोटी-छोटी बातों को अपने अहं के कारण तूल नहीं देना चाहिए और न ही एक-दूसरे से नाराज होकर सम्बन्धों को दाँव पर लगाना चाहिए। यदि भावावेश में सम्बन्ध-विच्छेद किया जाए तो उनमें जुड़ाव होना कठिन हो जाता है। यदि उन्हें पुनः जोड़ने का प्रयास किया जाए तो मन में एक कसक रह जाती है। इसी विचार का रहीम जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में विवेचन किया है-
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर न जुरे, जुरे गाँठ परि जाय॥
अर्थात् रहीम जी के इस प्रसिद्ध दोहे का अर्थ है कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाजुक होता है, उसे झटके से नहीं तोड़ना चाहिए। एक बार अगर प्रेम का धागा टूट जाता है तो फिर वह आसानी से जुड़ता नहीं है। और यदि जुड़ भी जाए तो उसमें गॉंठ पड़ जाती है। यानी रिश्ता पहले जैसा नहीं रहता।
टूटकर जुड़े सम्बन्धों में पूर्ववत् मधुरता नहीं रह जाती बल्कि अविश्वास का एक काँटा मन में गड़ा रहता है। अतः जहाँ तक हो सके यत्न यही करना चाहिए कि सम्बन्धों में खटास न आने पाए। अपने अहं को दरकिनार करके रूठे हुओं को मना लेना चाहिए। इससे जीवन में कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ता।
पारिवारिक व सामाजिक जीवन में प्रेम एक पुल का कार्य करता है। जहाँ यह पुल टूटा वहीं पारिवारिक विघटन की सम्भावना बढ़ जाती है। ये रिश्ते जितना हमारा सम्बल बनते हैं, उतने ही नाजुक भी होते हैं। बड़ी सूझबूझ से इनको निभाना होता है। जरा सी लापरवाही होने पर इनमें दरार आने लगती है। रिश्तों के विषय में कहा जाता है कि वे कच्चे धागों से बंधे होते हैं। कितने सुन्दर शब्दों में इसी भाव को निम्नलिखित दोहे में रहीम जी ने समझाया है-
रूठे सुजन मनाइए जो रूठें सौ बार।
रहिमन फिर फिर पोइए टूटे मुक्ताहार॥
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि यदि कोई प्रियजन सौ बार भी रूठे, तो उसे मना लेना चाहिए। जैसे मोतियों की माला जब टूट जाती है तो मोतियों को फेंक देने की बजाय उसे फिर से धागे में पिरोया जाता है।
आज रिश्तों में पारदर्शिता न होकर स्वार्थ हावी हो रहा है। भौतिक युग में धन प्रधान होता जा रहा है। नजदीकी रिश्तों को भी स्वार्थ के तराजू में तौला जाने लगा है। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है तब तक सम्बन्ध बने रहते हैं। ऐसे सम्बन्ध लम्बे समय तक नहीं चलते। स्वार्थ की पूर्ति होते ही तथाकथित आपसी सौहार्द समाप्त हो जाता है। फिर एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं हैं।
सभी रिश्ते अपने-आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। परिवार, सम्बन्धी, मित्र और पड़ोसी सभी को हम प्रेम से अपना बना सकते हैं। और तो और शेर जैसे खूँखार जीव को भी अपने वश में कर सकते हैं। समाज के उपेक्षित वर्ग में भी यदि हम प्यार बाँट सकें तो वे भी हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे। कबीर दास जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में प्रेम की व्याख्या करते हुए कहा है-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम के पढ़ै सो पण्डित होय॥
अर्थात् कबीरदास का प्रसिद्ध दोहा है जिसका अर्थ है कि संसार में लोग मोटी-मोटी किताबें पढ़ते-पढ़ते मर जाते हैं, पर ज्ञानी नहीं बन पाते। सच्चा ज्ञानी वही है, जिसने प्रेम के ढाई अक्षर का अर्थ समझ लिए हैं।
सबके साथ समानता का व्यवहार करने से सभी नाजुक रिश्ते बने रहते हैं। किसी को भी त्यागना उचित नहीं। आश्चर्य होता है कि यह देखकर कि लोग दूसरों से दोस्ती गाँठते हैं, उनके साथ तो सम्बन्ध बनाते हैं पर अपने भाई-बहनों से बात करके राजी नहीं होते। उनका चेहरा तक नहीं देखना चाहते। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उनसे वे नफरत करते हैं।
ईश्वर भी हमसे प्रेम की अपेक्षा रखता है। जो संसार को पैदा करता है व उसे सभी नेमतें देता है उसे हमसे कुछ भी नहीं चाहिए। पर वह यह भी नहीं चाहता कि उसकी बनाई सृष्टि में हम नफरत फैलाएँ। प्रेम के कारण ही भगवान राम ने शबरी के झूठे बेर खाए। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी छप्पन भोग छोड़कर विदुर के घर शाक खाया। धन्ना जाट को प्रभु ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए। अनन्य प्रेम होने पर मनुष्य ईश्वर का प्रिय बनता है तथा रोग-शोक से मुक्त हो जाता है। फिर जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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