काम रूपी शत्रु
हम अपने अन्त:करण में यदि झाँककर देखें तो विराजमान शत्रुओं में काम प्रमुख शत्रु है। इससे मित्रता करने वाले को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। एक सीमा तक ही हमें इसका उपभोग करना चाहिए।
हमारी भारतीय संस्कृति हमें विवाहोपरान्त शरीरिक सम्बन्ध बनाने की आज्ञा देती है, उससे पूर्व नहीं। यानी विवाह के उपरान्त ही युवा जोड़े को शारीरिक सम्बन्ध की अनुमति मिलती है। इससे भी बढ़कर यह है कि उच्छृंखलता को बिल्कुल सहन नहीं किया जाता। इस विषय में यहाँ पर विकृति का कोई स्थान नहीं है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इस आयु में आकर मनुष्य काम के वशीभूत होकर दीन-दुनिया को भूल जाए। हमारे शास्त्र पति-पत्नी को मात्र सन्तानोत्पत्ति के लिए ही इस सम्बन्ध की अनुमति देते हैं। शेष समय वे मनुष्यों से संयम बरतने की अपेक्षा करते हैं।
यहॉं मैं प्रकृति जगत के विषय में चर्चा करना चाहती हूॅं। सारे जीव-जन्तुओं के लिए ईश्वरीय विधान के अनुसार प्रजनन का समय निर्धारित है। अपने उस ऋतुकाल में ही वे अपनी सन्तान को जन्म देते हैं। परिश्रम से अपने घोंसले बनाकर उनका लालन-पालन करते हैं। परन्तु मनुष्य के लिए ऐसा कोई नियम लागू नहीं है। उसके लिए समय की कोई बाध्यता नहीं है। इसका कारण है कि मनुष्य प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ जीव है। उससे बुद्धिमत्ता के आचरण की अपेक्षा की जाती है। परन्तु यही मनुष्य रूपी जीव स्वयं को सारी सीमाओं से परे मानकर अतिचारी हो जाता है।
काम रूपी इस शत्रु की अधिकता होने पर मनुष्य राक्षस बन जाता है। उसे सही व गलत की पहचान नहीं रहती। वह अपना आपा खो देता है व अनर्थ कर बैठता है। बलात्कार आदि अपराध इसी काम की अधिकता के कारण होते हैं। तत्पश्चात ऐसा मनोरोगी समाज और न्याय व्यवस्था का दोषी बन जाता है। उसे आजीवन जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ता है। क्षणिक आवेश में आकर किए गए इस अपराध की कोई माफी नहीं होती। ऐसा व्यक्ति स्वयं पर तो दाग लगा बैठता है, साथ-साथ अपने प्रियजनों को भी सिर उठाकर चलने से लाचार कर देता है।
आज यह स्थिति है कि जिन रिश्तों पर आँख मूँदकर विश्वास कर सकते हैं, वे इस विकृति के उदाहरण बनते जा रहे हैं। दुर्भाग्यवश जिन रिश्तों पर ऑंख मूॅंदकर विश्वास किया जाना चाहिए वे ही भक्षक बनते जा रहे हैं। पिता, भाई, मित्र, गुरु/शिक्षक या अन्य सगे-सम्बन्धियों के रूप में इन विकृत मानसिकता वाले लोगों को देखा जा सकता हैं। ऐसे लोगों के विषय में सोशल मीडिया, समाचार पत्रों व टी वी चैनलों पर हम सब यदाकदा देख-पढ़ लेते हैं।
धर्म का पालन करने का उपदेश देने वाले और अधर्म से विमुख होने का पाठ पढ़ाने वाले, वे तथाकथित धर्मगुरु व पाखण्डी तन्त्र-मन्त्र वाले भी लोगों को बहला-फुसला कर इस काम के वश में जघन्य अपराध करते हैं। ये लोगों अपनी धार्मिकता की आड़ में इन अपराधों को प्रश्रय देते हैं। फिर समाज के दोषी बनकर जेल की सलाखों के पीछे जाकर, गुमनाम जीवन जीते हुए वर्षों सजा काटते हैं। इन लोगों को इस प्रकार के घृणित कार्य करते हुए आत्मिक ग्लानि भी शायद नहीं होती। ऐसे निरंकुश लोगों का सार्वजनिक रूप से बहिष्कार होना चाहिए।
हमारे शास्त्र हमें कठोर कर्म सिद्धान्त के विषय में जागरूक करने का कार्य करते हैं। वे ऐसा कहते हैं कि इस जन्म में जो व्यक्ति अपनी किसी भी इन्द्रिय या शरीर के किसी अंग का दुरूपयोग करता है तो ईश्वर उसे अगले जन्म में उस इन्द्रिय या शरीर के उस अंग से वंचित कर देता है। इतना सब समझाने पर भी यदि मनुष्य जागृत न हो सके तो ईश्वर भी उसके लिए कुछ नहीं कर सकता। मनुष्य को अपने पूर्वजन्म कृत कर्म का फल भोगने कोई भी नहीं बचा सकता। तब वह सम्पूर्ण न होकर विकारयुक्त शरीर वाला मनुष्य बनता है। हम अपने आसपास कितने ही उदाहरण देख सकते हैं।
अपने आसपास समाज में हम बहुत से मनुष्यों को देखते हैं जो शरीर के किसी अंग के न होने पर अपाहिज का जीवन जीते हैं। वे स्वयं भी परेशान रहते हैं और उनके अपने भी उनके दुख में दुखी रहते हैं। इसे भाग्य की विडम्बना ही कही सकते हैं। पता नहीं मनुष्य न जाने किस जन्म में अशुभ कर्म करता है और कब उसे उसका फल मिलता है। कर्मफल का यह विधान बहुत निराला है। इसे हमारी अज्ञ बुद्धि नहीं समझ पाती।
शास्त्र के अनुसार काम के वशीभूत होकर जो लोग अपनी इस इन्द्रिय का दुरुपयोग करते हैं, वे अगले जन्म में नपुंसक बनकर जन्म लेते हैं। ये लोग समाज में हमेशा तिरस्कृत होते हैं। सदा ही वे अपने प्रारब्ध को कोसते रहते हैं। ऐसी ही सजा कुछ लोगों ने पिछले दिनों बलाकारी को देने की माँग भी की थी।
हमारी भारतीय संस्कृति हमें जो जीवन मूल्य अपनाने का विमर्श देती है, वे शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध हों। इन जीवन मूल्यों की अनुपालना करके मनुष्य में दैवीगुण आते हैं। वह मनुष्य समाज में अपना अनुकरणीय स्थान बनाने में सफल हो जाता है।
ईश्वर ने मनुष्य को संसार में सर्वश्रेष्ठ जीव बनाकर भेजा है। इसे विवेक शक्ति का उपहार दिया है ताकि वह सोच-समझकर जीवन में आगे बढ़े। मनुष्य यदि अपना जीवन नियमानुसार संयमपूर्वक व्यतीत करें तो इस काम रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त करके इससे किनारा कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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