मंगलवार, 3 मार्च 2015

बड़े होने का सार

मनुष्य जब बच्चा होता है तो उसे बड़े होने की जल्दी होती है। वह सोचता है कि कब वह बड़ा होगा और अपनी मनमर्जी के अनुसार चलेगा। उसे यह लगता है कि घर में जो बड़े हैं वे हमेशा उस पर हुक्म चलाते हैं। न चाहते हुए भी उसे सबका कहना मानना पड़ता है। वह सोचता है उसकी तो जैसे कोई इच्छा ही नहीं है। किसी से ऊँची आवाज में बात नहीं कर सकता। अगर आस-पड़ोस या स्कूल से शिकायत आ जाए तो बस खैर नहीं।
       वह हमेशा सोचता है कि मुझ बेचारे को मारने, पीटने व डांटने  का हक सबको है। वह बेचारा तो किसी का विरोध भी नहीं कर सकता और यदि करे तो उसे कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है। छोटी-सी गलती हो जाने पर उसे सबसे डांट खानी पड़ती है।
        हर कोई उसे बात-बात पर टोकता है। कभी पढ़ाई के नाम और कभी खेलने के बहाने से बेचारा सबकी नसीहतें सुनता है। घर हो या स्कूल सब तरफ उसे बड़ों की मर्जी से चलना पड़ता है। उठने-बैठने, खेलने-कूदने, पढ़ने-लिखने यानी कि हर कदम पर वह बलि का बकरा बनता है।
         बच्चा हमेशा सोचता है कि बड़े लोग बहुत सुखी होते हैं। उन्हें नींद खराब करके स्कूल नहीं जाना पड़ता। न उन्हें होमवर्क की चिन्ता होती है और न परीक्षा व उसके परिणाम का डर होता है। जहाँ उनका दिल चाहता है चले जाते हैं। किसी से इजाजत लेने की भी आवश्यकता नहीं होती। वह सपने देखता है कि स्कूल पास करके कालेज जा रहा है। फिर कालेज के बाद नौकरी कर रहा है। वह धीरे-धीरे अपने खुशहाल जीवन के सपनों में खोने लगता है।
        थोड़ा और बड़ा होकर अपनी गृहस्थी बसाने को उत्साहित होता है। घर-गृहस्थी और नौकरी की चक्कर-घिन्नी में फंसा जब वह कोल्हू का बैल बनने लगता है तब उसे आपने बचपन की खट्टी-मीठी यादें सताने लगती हैं। तब गुहार लगता है कि कोई मुझे मेरा बचपन लौटा दे।
         कहने का तात्पर्य है कि जब वह बड़ा हो जाता है तब उसे अपना बचपन याद आता है। फिर वह सोचता है काश उसका बचपन लौट आए।
       उस समय वह बच्चा बनना चाहता है। पर बचपन का समय तो कहीं पीछे छूट जाता है। वह सोचता है कि माता-पिता की छत्रछाया में बहुत आनन्द था। कोई चिन्ता, कोई फिक्र नहीं थी। बस खाना-पीना और मस्ती करना यही काम थे। किसी ने कहा-सुना तो चीख-चिल्ला लिए और पुचकार दिया तो अपने को खुदा समझ लिया।
       अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए जिद करना और उनके पूरा होने पर उत्सव मनाने जैसा आनन्द ही तो जीवन होता था। जीवन के थपेड़ों से माता-पिता बचाते थे। स्वयं कष्ट सहकर भी हमारी सारी जरूरतें पूरी करते थे। उस समय हम राजा थे। अपनी बालहठ 'येन केन प्रकारेण' अर्थात किसी भी तरह मनवा लेते थे।
         जीवन इसी तरह चलता रहता है। एक पड़ाव को पार करके उसमें लौटना किसी भी प्रकार संभव नहीं होता। अपने अगले पड़ाव को हम आशा भरी नजरों से देखते हैं। एक को खोने का गम व दूसरे को पाने का आनन्द भी स्थायी नहीं रह पाता। जीवन की जिस भी अवस्था में जी रहे हैं उसमें ईश्वर का धन्यवाद करते हुए आगे बढ़ते रहें तो फिर आनन्द-ही-आनन्द होता है। यही मानव जीवन का सार है जिसे समझकर उदासीनता से मुक्त हुआ जा सकता है।

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