मंगलवार, 10 मार्च 2015

हमारे शत्रु

मनुष्य अपने सांसारिक शत्रुओं पर साम, दाम, दंड और भेद किसी भी तरह विजय प्राप्त कर लेता है। वह बस यही चाहता है कि कोई उसके सामने सिर न उठाए। जो ऐसा करने का यत्न करता है उसे कुचल डालने के लिए मचल उठता है।
        इसी प्रकार सत्ता ने भी कभी किसी को प्रतिकार नहीं करने दिया। सतयुग से लेकर आजतक कमोबेश यही स्थिति रही है। इतिहास गवाह है कि जो स्वर विरोध में उठा उसे वहीं दबा दिया गया। कोई भी शक्तिशाली राज्य दूसरे कमजोर राज्यों को अपने अधिकार में लेने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
         यह तो थी बाहरी शत्रुओं की चर्चा। अब हम अपने स्वयं के शत्रुओं के विषय में विचार करते हैं। हमारे अपने अंतस में विराजमान  काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार इन पाँचों शत्रुओं से हमारी गहरी छनती है। उनको पुष्ट करने में हम इतने मस्त रहते हैं कि सारी दुनिया को आग लगाने को तैयार रहते हैं। मनुष्य को ठगने वाले इन पाँचों शत्रुओं को  चोर कहते हैं। इनके लिए कहा जाता है कि ये दिन-रात हमें ठगते रहते हैं। मजे की बात है कि हम इस सबसे बेखबर रहते हैं।
        जितना अधिक सत्कार करके हम इन पाँचों का अपना मित्र बनाते हैं, उनके साथ मौज-मस्ती करते हैं या इनमें डूब जाना चाहते हैं उतना ही ये हमें पतन के मार्ग की ओर धकेलते हैं।
         मैं और मेरा अहम हम दोनों ही बस तुष्ट होते रहें बाकी किसी से कोई मतलब हम नहीं रखना चाहते। हालांकि इस सोच वाली स्थिति बड़ी विकट है। यथासंभव इससे बचने का हमें हमेशा ही यत्न करना चाहिए।
         जीवन में इनकी बहुत आवश्यकता होती है। इनको उतना ही बढ़ावा देना चाहिए जितनी जरूरत हो। अनावश्यक प्रश्रय मिलने पर ये सिर पर सवार हो जाते हैं। उस समय ऋषि-मुनि भी इनसे नहीं बच सकते तो हम मनुष्यों की क्या कहें?
       काम की गृहस्थ जीवन में आवश्यकता होती है पर मात्र संतानोत्पत्ति के लिए। इसकी अधिकता होने पर मनुष्य राक्षस बन जाता है। बलात्कार आदि अपराध इसी काम की अधिकता के कारण होते हैं। संसार के सर्वश्रेष्ठ जीव हम मनुष्य यदि नियमानुसार संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करें तो इन बुराइयों से बचा जा सकता है।
        क्रोध की आवश्यकता जीवन में होती है। यदि मनुष्य बिल्कुल भी क्रोध नहीं करेगा तो उसे उसी प्रकार कोई पूछेगा ही नहीं जैसे विषरहित साँप से कोई नहीं डरता। इसकी अधिकता हमेशा नुकसान देती है। घर-परिवार, भाई-बन्धु कोई भी क्रोधी का सम्मान नहीं करता। उसे उसका वह स्थान नहीं मिलता जिसके वह योग्य होता है।
        लोभ का संवरण मनुष्य को करना चाहिए नहीं तो चोरी की हद तक उसे यह दुर्गुण ले जाता है। जिसका पश्चाताप मृत्युपर्यन्त करना पड़ता है। इसीलिए कहते हैं- लालच बुरी बला है।
        मोह में पड़कर इंसान सच और झूठ की पहचान नहीं कर पाता। मोह सृष्टि को चलाने के लिए एक सीमा तक आवश्यक है। अतिमोह धृतराष्ट्र की तरह विनाश का कारण होता है।
         मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए पर उसे अहंकार से नाता कभी नहीं रखना चाहिए। अहंकार हमेशा सिर नीचा कराता है। कोई भी अहंकारी की सराहना नहीं करता। वह सदा ही आलोचना का पात्र बनता है।
       इन पाँच शत्रुओं को वश में करने से सदा मनुष्य सर्वविध उन्नति करता है तथा आत्मिक बल व शांति प्राप्त करता है।

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