सोमवार, 9 मार्च 2015

किससे माँगें

आयुपर्यन्त हर मनुष्य को बहुत कुछ माँगने की आवश्यकता रहती है। प्रतिदिन उसे कुछ-न-कुछ नया चाहिए ही होता है। ऐसा नहीं है कि धनवानों को माँगने की कभी इस संसार में आवश्यकता नहीं होती, वे भी हर समय माँगते रहते हैं। साधनहीन तो हर समय अपनी जरूरतों के कारण परेशान रहता है।
       कभी आपना घर चाहिए, नित-नयी गाड़ी, इंकम टैक्स-सेल्स टैक्स से बचना, अच्छा स्वास्थ्य, सुन्दर सुशील पति/पत्नी, आज्ञाकारी संतान, अच्छी नौकरी या फिर तरक्की, विदेश में सेटल होना या विदेश यात्रा आदि कुछ भी हो सकता है। इनके अतिरिक्त हमें परीक्षा-कंपीटिशन में पास होना, यश, बल, बुद्धि आदि सब भी चाहिए होते हैं। कभी-कभी तो हद हो जाती है जब किसी पड़ोसी, मित्र या संबंधी की नई खरीददारी देखकर उसकी होड़ में बिना समय गंवाए उसे खरीदने के लिए लालायित हो जाते हैं।
       अपने पास साधन हों या न हों पर बस वह वस्तु हमें चाहिए। हमारे घर की शोभा वह जब तक न बने तब तक हम बेचैन रहते हैं। अपने साधनों को कोसते हैं। फिर जोड़- तोड़ करते हैं।
        ऐसी जरूरत आने पर हम सोचते हैं कि माँगे तो किससे? कौन हमारी सहायता कर सकता है? यह ऐसा प्रश्न है जिससे हम सबका वास्ता पड़ता है। जन्म से मृत्यु पर्यन्त हम कुछ पाने की होड़ में कामना करते हैं।
       हम लोग जब कभी आर्थिक कठिनाई से झूझते हैं या उपरोक्त किसी भी वस्तु की कामना से बेहाल होते हैं तो स्वभावत: ही हमारे मन को उस समय यह प्रश्न उद्वेलित करता है।
           मेरा मानना है कि माँगना हो तो उस प्रभु से माँगो जिसके खजाने भरे हुए हैं। वह किसी को देकर पछताता नहीं है। वह दाता बहुत ही दयालु है। बिन माँगे ही हमें झोली भर-भर कर प्रसन्नतापूर्वक देता रहता है। हम ही ऐसे नाशुकरे हैं कि उसी की कद्र नहीं करते।
        जब हमें कोई ठौर नहीं मिलता तब हम उस मालिक को याद करते हैं। सबसे मजे की बात तो यह है कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए हम उसी को रिश्वत देने की बात भी करते हैं। जो बिन माँगे, बिना हम पर कोई अहसान किए हमें छप्पर फाड़कर दिन-रात देता रहता है।
       दुनिया के सामने रोने के बजाय उस प्रभु के समक्ष बैठकर रोना ज्यादा अच्छा है। सच्चे मन से की गई हमारी याचना को झवह अवश्य पूर्ण करता है।
        दुनियावी लोगों से हम सहायता अवश्य लेते हैं पर उनका अहसान हम पर होता है। वे राई जितना उपकार करेंगे तो पहाड़ जितना गुणगान करेंगे। थोड़ी-सी सहायता क्या करते हैं खुद को भगवान से भी बड़ा समझने लगते हैं। वे भूल जाते हैं वे भी समाज का एक अंग हैं जो उससे बहुत कुछ लेते हैं। इसलिए दूसरों की निस्वार्थ सहायता करना उनका दायित्व बनता है। ईश्वर ने यदि उन्हें सामर्थ्य दी है तो उन्हें मालिक को हमेशा यह सिद्ध करके दिखाना चाहिए कि वे उसकी दी हुई नेमतों का सदुपयोग कर रहे हैं। इसीलिए हमारे बड़े-बजुर्गों ने कहा है-
             नेकी कर दरिया में डाल और
           एक हाथ से दो तो दूसरे को पता न चले।
       यही आदर्श स्थिति है। इससे कर्तापन का भाव मन में नहीं आता। न ही मनुष्य में अहंकार जागता है। जो मनुष्य ईश्वर को अपने भीतर-बाहर मानकर उसे धन्यवाद देते हैं कि उसने उन्हें इस योग्य बनाया कि वे किसी की सहायता कर सकें तो वे वास्तव में ईश्वरीय गुणों से युक्त हो जाते हैं।

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