शुक्रवार, 13 मार्च 2015

शत्रु लोभ

लोभ हमारा ऐसा शत्रु है जो मृत्यु पर्यन्त  नाच नचाता रहता है। अपने इस शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए मनुष्य एड़ी-चोटी का जोर लगाता है परंतु सफल नहीं हो पाता। परिणाम ढाक के वही तीन पात ही रहता है।
        कहते हैं कि इस दुनिया में भाग्य से अधिक और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। इस अति लालच से संबंधित एक कहानी है पंचतंत्र में। वह समझाती है कि लालच करने वाले के सिर पर काल का चक्र घूमता है जो जन्म जन्मांतर तक सिर पर मंडराता रहता है। मनुष्य लहुलूहान हुआ, भूखा-प्यासा रहकर दिन-रात उसे ढोता रहता है पर फिर भी मुक्ति का मार्ग उसे दिखाई नहीं देता। यही परेशानियों और मुसीबतों का नाम है जिसके कारण हम अधिक-अधिक पाने की होड़ में दिन-रात का चैन खो देते हैं। खाने-पीने की सुध बिसरा कर हम कोल्हू के बैल की तरह हरपल पिसते रहते हैं, थककर चूर हो जाते हैं।
         एक उक्ति है- लोभो मूलमनर्थानाम्। अर्थात लोभ सभी अनर्थों का कारण है या जड़ है। यह कभी समाप्त न होने वाली लाइलाज बिमारी है। एक वस्तु हम देखते हैं तो उसे पाने का लालच मन में समा जाता है। उसे पाने के लिए यत्न करते हैं और हासिल कर लेते हैं तो फिर दूसरी को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। इस
तरह एक के बाद लालच हमें घेरते रहते हैं। अपने जाल में ऐसा फंसा लेते हैं कि उससे  बाहर निकलने की जितना यत्न करते हैं उतना ही उसमें और और उलझते जाते हैं। तब अपने बचाव का मार्ग हमें सुझता ही नहीं है।
       इस लालच के कारण चोरी-डकैती, लूटमार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, कालाबाजारी, टैक्सचोरी जैसे अपराध बढ़ते जा रहे हैं। इन अपराधों को सभी बुरा कहते हैं। आज इस युग में संबधों की गरमाहट दिनोंदिन कम होती जा रही है जो समाज के लिए हानिकारक है।
        हम सबने उस राजा की कहानी अपने बचपन में पढ़ी थी जो बहुत-सा सोना  इकट्ठा करना चाहता था। किसी साधु ने उसे वरदान दिया कि जिस भी वस्तु को वह छुएगा उसी क्षण सोने की हो जाएगी। वह बहुत खुश हो गया अपना इच्छित वरदान पाकर। पर यह तो खुशी नहीं थी जिसके कारण उसके महल की हर वस्तु सोने की हो गयी यहाँ तक कि उसकी अपनी बेटी भी। अब वह रोया-चिल्लाया कि मुझे सोना नहीं चाहिए अपना वरदान वापिस ले लो।
        यह कथा उस राजा की नहीं हम सबकी भी है जो अपने कर्मानुसार ईश्वर प्रदत्त नेमतों से संतुष्ट न होकर प्रतिदिन कुछ नये से नया पाने के लिए भटकते रहते है। उस भटकन में खोकर हम उस मालिक को तो क्या स्वयं को भी भूल जाते हैं।
        लालच की रेस मे दौड़ते हुए अपने प्रियजनों से मनुष्य कब विमुख हो जाता है उसे पता ही नही चलता। जब वह चेतता है तो स्वयं को अकेला पाता है। उस समय जब उसे अपनों के सहारे की आवश्यकता होती है वह उन्हें खो चुका होता है। फिर वह पछताता है और अपने आपको धिक्कारता है।
       अब यह विचार करना है कि इस लोभ या लालच रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त करके हम आत्मिक शांति और कष्टों से मुक्ति चाहते हैं या इसके पीछे भागते हुए मृत्युपर्यन्त भटकना चाहते हैं।

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