सोमवार, 23 मार्च 2015

प्रेम

प्रत्येक जीव से प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। महत्मा बुद्ध का कथन है- 'समस्त प्राणियों से प्रेम करना ही सच्ची मनुष्यता है।' छोटी-छोटी बातों को अपने अहम के कारण तूल नहीं देनी चाहिए और न ही एक-दूसरे से नाराज होकर संबंधों को दाँव पर नहीं लगाना चाहिए। भावावेश में संबंध-विच्छेद करने पर उनमें जुड़ाव कठिन हो जाता है। यदि उन्हें पुनः जोड़ने का प्रयास किया जाए तो मन में कसक रह जाती है। इसी विचार का रहीम जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में विवेचन किया है-
         रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
         टूटे से फिर न जुरे, जुरे  गाँठ  परि  जाय॥
टूटकर जुड़े संबंधों में पूर्ववत् मधुरता नहीं रह जाती बल्कि अविश्वास का काँटा मन में गड़ा रहता है। अतः जहाँ तक हो सके यत्न यही करना चाहिए कि संबंधों में खटास न आए। अपने अहम को दरकिनार करके रूठे हुओं को मना लेना चाहिए इससे जीवन में पश्चाताप नहीं करना पड़ता।
        पारिवारिक व सामाजिक जीवन में प्रेम पुल का कार्य करता है। जहाँ यह पुल टूटा वहीं पारिवारिक विघटन की संभावना बढ़ जाती है। ये रिश्ते जितना हमारा संबल बनते हैं उतने ही नाजुक भी होते हैं। बड़ी सूझबूझ से इनको निभाना होता है। जरा सी लापरवाही होने पर इनमें दरार आने लगती है। रिश्तों के विषय में कहा जाता है कि वे कच्चे धागों से बंधे होते हैं। कितने सुन्दर शब्दों में इसी भाव को निम्नलिखित दोहे में रहीम जी ने समझाया है-
         रुठे  सुजन  मनाइए जो रुठें  सौ  बार।
         रहिमन फिर फिर पोइए टूटे मुक्ताहार॥
       आज रिश्तों में पारदर्शिता न होकर स्वार्थ हावी हो रहा है।भौतिक युग में धन प्रधान होता जा रहा है। नजदीकी रिश्तों को भी स्वार्थ के तराजू में तौला जाता है। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है तब तक संबंध बने रहते हैं।
      ऐसे संबंध लंबे समय तक नहीं चलते। स्वार्थ की पूर्ति होते ही आपसी सौहार्द समाप्त हो जाता है।
      सभी रिश्ते अपने-आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। परिवार, संबंधी, मित्र और पड़ोसी सभी को हम प्रेम से अपना बना सकते हैं। और तो और शेर जैसे खूँखार जीव को भी अपने वश में कर सकते हैं। समाज के उपेक्षित वर्ग में भी यदि हम प्यार बाँट सकें तो वे भी हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे। कबीर दास जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में प्रेम की व्याख्या करते हुए कहा है-
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय।
ढाई  आखर  प्रेम  के  पढ़ै  सो  पंडित  होय॥
सबके साथ समानता का व्यवहार करने से सभी नाजुक रिश्ते बने रहते हैं। किसी को भी त्यागना उचित नहीं। आश्चर्य होता है कि यह देखकर कि लोग दूसरों से दोस्ती गाँठते हैं, उनके साथ संबंध बनाते हैं पर अपने भाई-बहनों से बात करके राजी नहीं होते। उनका चेहरा तक नहीं देखना चाहते।
       ईश्वर भी हमसे प्रेम की अपेक्षा रखता है। जो संसार को पैदा करता है व उसे सभी नेमतें देता है उसे हमसे कुछ भी नहीं चाहिए। पर वह यह भी नहीं चाहता कि उसकी बनाई सृष्टि में हम नफरत फैलाएँ। प्रेम के कारण ही भगवान राम ने शबरी के झूठे बेर खाए। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी भोग छोड़कर विदुर के घर शाक खाया। धन्ने जाट को प्रभु ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए। अनन्य प्रेम होने पर मनुष्य ईश्वर का प्रिय बनता है तथा रोग-शोक से मुक्त हो जाता है। फिर जन्म-मरण के बंधनों से  मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।

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