हम सोते रहते हैं और ईश्वर हमें जगाने के लिए बारबार चेतावनी देता रहता है। सुख-दुख के रूप में वह हमें अहसास कराता है कि इस संसार में मेरी भी सत्ता है उसे चुनौती मत देना। परन्तु हम सब तो ऐसे अवज्ञाकारी बच्चे हैं जो पुनः पुनः उसकी महानता से मुख मोड़ लेते हैं। हम सोचते हैं उसकी ओर से ध्यान हटा लेने या विमुख हो जाने से जैसे उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा।
सुख, शांति व ऐश्वर्य मिलने पर हम उसे पूरी तरह नकारते हुए कहते हैं- मैंने मेहनत की और सुख के सभी साधन जुटा लिए। उस समय मनुष्य अपने अहम में यह भूल जाता है कि सब उस मालिक के अधीन है। उसकी इच्छा के बिना वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकता और न ही एक श्वास ले सकता है।
इसके विपरीत दुख की स्थिति में वह मालिक को गिला-शिकवा करने से नहीं चूकता। उसे अपने दुखों का दाता मानकर उसे कोसता है और गाली तक दे देता है। उस न्यायकारी पर पक्षपात करने का आरोप तक लगा बैठता है। इसलिए इस दोहे को आत्मसात करना आवश्यक है-
दुख में सिमरन सब करें सुख में करे न कोय।
जो सुख में सिमरन करे तो दुख काहे को होय॥
अब विचारणीय है कि वह ईश्वर हमें आगाह कैसे करता है? किसी भी अच्छे या गलत कार्य करने पर वह हमें अंतस् की आवाज के रूप में चेतावनी देता है। वह हमें उस कार्य को उत्साहपूर्वक करने या न करने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार हमारा मार्गदर्शन कराता है। हम ऐसे नासमझ हैं कि उस चेतावनी को अनसुना कर कष्ट भोगते हैं।
उसने इस संसार में हमें इसलिए भेजा है कि हम उसको याद करते हुए, डरते हुए सत्कर्म करें। जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करें। हम सारा जीवन स्वयं को बहलाते रहते हैं। उसकी पूजा-अर्चना न करने के हास्यास्पद बहाने खोजते हैं।
कभी कम वय का, कभी किसी कार्य विशेष के पूरा होने की प्रतीक्षा को हथियार बनाने की नाकाम कोशिश करते हैं। सबसे अच्छा दिल हम यह कहकर बहलाते हैं कि अभी समय नहीं है ईश्वर का भजन करने का। बुढ़ापे में नाम जप लेंगे।
इस प्रकार की बातें करते हुए मनुष्य भूल जाता है कि बुढ़ापे में भी नाम तभी ले सकेंगे जब हम जवानी या बचपन में उसे स्मरण करेंगे। यदि बुढ़ापे को हम सीमा बनाएँगे तो उसका स्मरण संभव नहीं हो पाएगा। वृद्धावस्था में शरीर अशक्त होने लगता है और इंसान अपनी बिमारियों में ही उलझा रहता है।
ईश्वर समय-समय पर चेतावनी देता रहता है और कहता है, जागो बहुत हो गया है अब मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह हमारे कर्मानुसार कष्टों की भट्टी में हमें झौंकता है। फिर भी हम उसको क्षणिक ही याद करते हैँ और फिर भूल जाते हैं।
बालों में सफेदी आना उस तरफ से चेतावनी होती है कि अब होश में आ जाओ पर हम बालों को रंगकर उस मालिक को बहकाते हैं। तत्पश्चात आँखें कमजोर होना भी एक प्रकार से चेतावनी होती है पर हम चश्मा लगाकर उसे झूठा सिद्ध करने का असफल प्रयास करना चाहते हैं। दाँतों का गिरना भी उसका चेताने का रूप होता है। हम बहुत समझदार हैं जो दाँतो का डेंचर (नकली दाँत) लगाकर उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिमाकत करते है। अंतिम चेतावनी श्रवण शक्ति कमजोर होना होती है परंतु हम यहाँ भी कानों में मशीन लगाकर झुठलाने का यत्न भर ही करते हैं।
इस प्रकार स्वयं को छलावे में रखकर सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ कर देते हैं पर उसको मन से स्मरण नहीं करते। हम बहुत ही सधे हुए कलाकार हैं जो उसकी भक्ति का करने का प्रदर्शन करने का कोई मौका नहीं गंवाते।
अंत में यही कहना चाहती हूँ कि ईश्वर की उपासना व्यक्तिगत आस्था का विषय है। परन्तु फिर भी सच्ची श्रद्धा से और भावना से उसे स्मरण करना चाहिए क्योंकि वह दिखावे का नहीं हमारे भाव का भूखा है। उसको सच्चे हृदय से याद करने से ही सच्चा सुख व शांति मिलती है। ईश्वर का निरंतर निष्काम ध्यान जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त करता है।
बुधवार, 25 मार्च 2015
ईश्वर की चेतावनी
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