शुक्रवार, 20 मार्च 2015

बोया पेड़ बबूल का

         'बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए।' 
यह उक्ति हमें समझा रही है कि बबूल के पेड़ से हम कदापि आम का स्वादिष्ट व रसीला फल नहीं खा सकते। उसके लिए आम का बीज बोकर ही हमें आम का पेड़ लगाना पड़ेगा। बबूल के पेड़ से काँटे ही मिलेंगे मीठे फल नहीं।
        आम का पेड़ देर से फल देता है। वह मीठे फल व शीतल छाया पेड़ लगाने वाले को देता है बल्कि सभी को देता है जो उसके संपर्क में आते हैं। इसी प्रकार सद् विचारों वाले लोगों के संपर्क में आने वालों को भी उनकी अच्छाई का फल मिलता है। बबूल की तरह कष्टदायी जनों के संपर्क में आने वालों को कांटे ही मिलते हैं।
       इस संसार में मनुष्य जैसा करता है या जैसा बोता है वैसा ही फल उसे मिलता है। उसी प्रकार जीवन में हम अच्छे कर्म करेंगे तभी सुख, शांति व समृद्धि मिलेगी। यदि हम सद् कर्म नहीं करेंगे तो निश्चित ही दुखों व कष्टों का सामना करना ही पड़ेगा। इसीलिए यह उक्ति कही जाती है-
               'जैसी करनी वैसी भरनी'
इसका सीधा-सा अर्थ है कि मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के साथ करेगा वैसा ही उसे बदले में मिलेगा। अथवा जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है।
         हमें वही मिलता है जो जीवन में हम दूसरों के साथ बाँटते हैं। दूसरों के साथ विष साझा करेंगे तो हम अमृत पाएँगे ऐसी कल्पना करना ही व्यर्थ है। हमें अमृत तभी मिलेगा जब हम दूसरों को अमृत पिलाएँगे। हम भगवान शिव नहीं हैं जो विषपान करके भी सबको अमृत देंगे। संसार में हम अपने लिए सभी से मधुर व्यवहार की अपेक्षा करते हैं पर स्वयं इसके विपरीत आचरण करते हैं। तब ऐसा सोचना कि हमारे साथ सब अच्छा होगा सर्वथा अनुचित है। लेने और देने के बाट एक जैसे होने चाहिएँ तभी परस्पर सौहार्द बना रहता है अन्यथा उलाहने ही शेष रह जाते हैं। सबके साथ समभाव रखकर चलने से ही व्यवहार में संतुलन बना रहता है।
       हम अगर चारों ओर खुशियाँ बाँटेंगे तो ईश्वर की कृपा से हमारी झोली में भी खुशियाँ ही आएँगीं। इसके विपरीत यदि हम स्वार्थ, नफरत या ईष्या-द्वेष की खेती करेंगे तो यही फसल काटेंगे। हमें भी दूसरों से स्वार्थ व नफरत का व्यवहार ही मिलेगा।
        उस समय हमारे साथी दूसरों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार बनते हैं दया, ममता, सौहार्द और प्रेम आदि सद् व्यवहार नहीं। तब हम सिर धुनकर पछताते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है कि यह सारा जमाना हमारा दुश्मन हो गया है। कोई भी हमें नहीं चाहता, यह सब सोचते हुए हम धीरे-धीरे अवसाद का शिकार होने लगते हैं।फिर  शुरू होते हैं डाक्टरों के चक्कर, समय और पैसे की बरबादी के साथ-साथ स्वास्थ्य की हानि भी होती है। यह स्थिति स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है।
        ऐसे समय हम पानी पी-पीकर सभी को कोसते हैं। सबका खून सफेद होने का रोना रोते हैं परन्तु अपने गिरेबान में झाँकने का प्रयास ही नहीं करते कि हम दूसरों के साथ अपना व्यवहार कैसे रखते  हैं?
          हमारी परिकल्पना किस तरह के समाज, परिवार अथवा देश का निर्माण करने की है? यह हम पर निर्भर करता है। जैसा भी हम चाहते हैं उसके लिए यत्न भी तो हमीं को ही करना पड़ेगा। यदि हम चारों ओर सुख, शांति, समृद्धि व सौहार्द का साम्राज्य बनाना चाहते हैं तो इन्हीं भावों को सबके साथ बाँटना होगा। इस दिशा में हमारा आगे कदम बढ़ाना तभी सार्थक हो सकेगा।

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