सोमवार, 2 मार्च 2015

स्वर्ग नरक की परिकल्पना

स्वर्ग और नरक की परिकल्पना प्रायः सभी धर्मो में मिलती है। इसके विषय में बहुत कुछ कहा व सुना जाता है। स्वर्ग व नरक के विषय में यदि विचार किया जाए तो मन इसके विपरीत सोचता है। माना यही जाता है कि बुरे कर्म करने वालों को नरक मिलता है जहाँ बदबू होती है, कड़ाहों में उबलता रहता है जिसमें दुष्कर्म करने वालों को डाला जाता है आदि। कहने का तात्पर्य है कि वहाँ उसे तरह-तरह की प्रताड़ना मिलती है। इसके विपरीत स्वर्ग में  वहाँ भोग विलास के लिए अपसराएँ हैं,  हरियाली है आदि। यानि कि सभी प्रकार के ऐशो आराम मिलते हैं।
        कहते हैं कि ईश्वर का परमधाम एक स्थान विशेष है जिसे प्राप्त करके मनुष्य जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। चित्रगुप्त सभी प्राणियों के लेखेजोखे का हिसाब रखने के लिए खाता रखते हैं। मृत्यु के पश्चात जब मृतक ऊपर जाता है तो उसे जीवन में किए गए कर्मों को पढ़कर सुनाया जाता है। तदनुसार उसे स्वर्ग या नरक उपहार या सजा के रूप में दिया जाता है। मृत्यु के देवता यमराज जीव के शरीर में विद्यमान आत्मा को ले जाने के लिए अपने दूतों यानि यमदूतों को भेजते हैं।
      यह विचारणीय है कि हमारे शरीर में रहने वाली आत्मा, अजर, अमर व नित्य है और इस पर किसी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-
          न जायते म्रियते वा कदाचन
                नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
          अजो नित्यं शाश्वतोsयं पुराणो
                न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
इस श्लोक का अर्थ है कि आत्मा का न जन्म होता है और न मृत्यु होती है। ऐसा न कभी हुआ है और न कभी होगा। आत्मा अजर, नित्य, शाश्वत व प्राचीन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मरती।
यह श्लोक देखिए-
              नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
              न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:॥
      यह श्लोक समझा रहा है कि आत्मा को न शस्त्र काट सकते है, न इसे आग्नि जला सकती है। इसे जल गीला नहीं कर सकता और हवा सुखा नहीं सकती।
      अब प्रश्न यह उठता है कि सभी सुख -दुख, लाभ-हानि, जीवन-मरण आदि स्थितियाँ  अथवा भोग इस शरीर के हैं आत्मा के नहीं तो स्वर्ग अथवा नरक में दण्ड किसे मिलता है और किसे सुख-सुविधाएँ मिलती हैं।
       इस भौतिक शरीर को तो अपने अपने धर्म के अनुसार जला या दफना दिया जाता है। इसका सीधा सा अर्थ है कि शरीर इस पृथ्वी पर ही समाप्त हो गया। फिर इसे सजा या पुरस्कार नहीं मिल सकता। आत्मा को तो हमारे ग्रंथ इन भोगों से परे  मानते हैं इनकी वह अधिकारी नहीं।
        हमारे मनन का विषय है कि आत्मा और शरीर जब दोनों ही स्वर्ग व नरक के अधिकारी नहीं तो कौन है?
       हमारी तर्क बुद्धि कहती है कि स्वर्ग व नरक किसी निश्चित स्थान पर नहीं हैं अपितु इसी धरा पर हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं तो जब हम सुख-सुविधाओं से सम्पन्न अपने बन्धु-बांधवों के साथ हर प्रकार से सुखी जीवन जी रहे होते हैं तो स्वर्ग में रहते हैं या स्वर्ग के समान सुख भोग रहे होते हैं।
        इसके विपरीत जब हम दुखों-परेशानियों में घिरे सबसे अलग-थलग रहकर कष्टों का सामना करते हैं, उस समय हम नरक तुल्य जीवन जीते हैं।
       हम कह सकते हैं कि स्वर्ग व नरक दोनों इसी धरती पर हैं जिन्हें हम अपने इस जीवनकाल में  कर्मानुसार भोगते हैं।

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