गुरुवार, 19 मार्च 2015

संतोष

दूसरे की थाली में रखा हुआ लड्डू हमेशा हमें बड़ा दिखाई देता है। यह उक्ति हम सब सुनते और कहते रहते हैं। हमने कभी इस पर विचार ही नहीं किया कि अपनी थाली में रखा हुआ लड्डू हमें छोटा क्यों दिखाई देता है?
        जहाँ तक मुझे समझ आता है इसका अर्थ यह है कि मनुष्य ऐसा प्राणी है जो कभी संतुष्ट नहीं होता। उसे अपना धन-दौलत, ऐशो-आराम, गाड़ी, नौकर-चाकर आदि सब कम लगते हैं। दूसरों की हर वस्तु उसे अपनी वस्तुओं से अधिक लगती हैं। कभी-कभी तो हद हो जाती है जब वह किसी पड़ोसी, मित्र या संबंधी की कोई नई खरीददारी देखकर उसकी होड़ में बिना समय गंवाए उसे तुरंत खरीदने के लिए लालायित हो जाता है।
          उसे पाने के लिए वह चोरी-डकैती, लूटमार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, कालाबाजारी, टैक्सचोरी जैसे अपराध करने से बाद नहीं आता। जिन सभी अपराधों को वह बुरा मानता है उसी डगर पर चल पड़ता है।
        इस तरह दूसरों की होड़ करते हुए वह और-और पाने की चाह करता रहता है जो कभी समाप्त नहीं होती। एक वस्तु को जब वह किसी के पास देख लेता है तो उसके पीछे दिन-रात भागता है। उसे पाने के लिए हर संभव यत्न करता है और हासिल कर लेता है तो फिर दूसरी को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। इस तरह एक के बाद एक लालच मनुष्य को घेरता रहता है। यह लालच उसे अपने जाल में ऐसा फंसाता है कि मनुष्य जितना उससे बाहर निकलने का  प्रयत्न करता है उतना ही उसमें और अधिक उलझता जाता है।
        इस उलझन को सुलझाने के लिए कहीं तो सीमारेखा खींचनी पड़ती है। प्रश्न  यह उठता है कि वह सीमा कौन निर्धारित करेगा? इस सीमा को हमें स्वयं ही तय करना है। आखिर हमें कभी तो इस भटकन से छुटकारा पाना ही होगा नहीं तो सारा जीवन अशांत ही रहना पड़ेगा।
         यदि उसके मन में संतुष्टि का भाव आ जाए तो वह भटकन से बच सकता है। संतोष ऐसा धन है जो किसी को मिल जाए तो उसे कोई लालच नहीं घेरता। मनुष्य दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति बन जाता है। यह दोहा देखिए-
गोधन गजधन बाजिधन और रत्नधन खान।
जब आए संतोष धन सब धन धूरि समान॥
संतोष रूपी धन के सामने दुनिया के सभी ऐश्वर्य मनुष्य के लिए धूल के समान हो जाते हैं। फिर उसे किसी दूसरे की थाली की ओर ललचाई नजरों से देखने तक की आवश्यकता नहीं रह जाती।
        मनुष्य मे यह संतोष भाव कब आएगा यह कहा नहीं जा सकता। आने को तो सौ रुपए में आ जाए और न आए तो करोड़ रुपयों में भी न आए। मनुष्य जब इस संतोष की भावना को आत्मसात कर लेगा तभी संतुष्ट हो पाएगा। आयु की भी कोई सीमा नहीं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो सारा जीवन किसी न किसी कारण से असंतुष्ट रहते हैं।
       इस असार संसार में मनुष्य को उतना ही मिलता है जितना भाग्य में होता है। उससे अधिक और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। ईश्वर बहुत ही न्यायकारी है। हर किसी को उसके हिस्से का अंश बिना कहे व बिना मांगे यथासमय वह दे देता है। उसके घर इस संसार की तरह अंधेर नहीं है।
         उस प्रभु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पण भाव रखने से मन में संतोष की भावना आती है।

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