बुधवार, 11 मार्च 2015

शत्रु काम

हम अपने अंत:करण में यदि झाँककर देखें तो विराजमान शत्रुओं में काम प्रमुख शत्रु है। इससे मित्रता करने वाले को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। एक सीमा तक ही हमें इसका उपभोग करना चाहिए।
        हमारी भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम व्यवस्था का विधान है। आश्रम चार हैं जिनका विभाजन इस प्रकार है-
ब्रह्मचर्य आश्रम- सात से पच्चीस वर्ष तक इस आश्रम का समय है जिसमें ब्रह्मचर्य/संमय का पालन करते हुए विद्या ग्रहण की जाती है।
गृहस्थ आश्रम- पच्चीस से पचास वर्ष का समय इस आश्रम को दिया गया है। यह समय घर-परिवार के अपने दायित्वों का निर्वाह करने का है। सन्तान की उत्पत्ति, पालन-पोषण व विवाह की जिम्मेदारियों से मुक्त होना।
       शेष वानप्रस्थ व संयास आश्रमों में अपने दायित्वों का निर्वाह कर समाज को दिशा देने का कार्य सौंपा गया है।
         हमारी संस्कृति हमें विवाहोपरान्त शरीरिक संबंधों की आज्ञा देती है उससे पूर्व नहीं। यहाँ विकृति का कोई स्थान नहीं है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि इस आयु में मनुष्य काम के वशीभूत होकर दीन-दुनिया भूल जाए। शास्त्र पति-पत्नी को को मात्र संतानोत्पत्ति के लिए इस संबंध की अनुमति देते हैं। शेष समय संयम की अपेक्षा करते हैं।
       काम रूपी इस शत्रु की अधिकता होने पर मनुष्य राक्षस बन जाता है। उसे सही व गलत की पहचान नहीं रहती। वह अपना आपा खो देता है व अनर्थ कर बैठता है। बलात्कार आदि अपराध इसी काम की अधिकता के कारण होते हैं।
        आज यह स्थिति है कि जिन रिश्तों पर आँख मूँदकर विश्वास कर सकते हैं वे इस विकृति के उदाहरण पिता, भाई, मित्र, गुरु/शिक्षक या अन्य संबधियों के रूप में देखे जा सकते हैं व उनके विषय में सोशल मीडिया, समाचार पत्रों व टी वी पर हम सब यदाकदा देख-पढ़ लेते हैं।
       धर्म का पालन करने और अधर्म से विमुख होने का पाठ पढ़ाने वाले वे तथाकथित धर्मगुरु व पाखंडी तन्त्र-मन्त्र वाले भी लोगों को बहला-फुसला कर इस काम के वश में जघन्य अपराध करते हैं। फिर समाज के दोषी बनकर सजा काटते हैं।
      ऐसा कहा जाता है कि जो व्यक्ति अपनी किसी इन्द्रिय या शरीर के किसी अंग का दुरूपयोग करता है तो ईश्वर उसे अगले जन्म में उस इन्द्रिय या शरीर के उस अंग से वंचित कर देता है। तब वह सम्पूर्ण  न होकर विकारयुक्त शरीर वाला मनुष्य बनते है।
         अपने आसपास समाज में हम बहुत से मनुष्यों को देखते हैं जो शरीर के किसी अंग के न होने पर अपाहिज जीवन जीते हैं। वे स्वयं भी परेशान रहते हैं और उनके अपने भी उनके दुख में दुखी रहते हैं।
       काम के वशीभूत होकर अपनी इस इन्द्रिय का दुरुपयोग करते हैं वे अगले जन्म में नपुंसक बनकर जन्म लेते हैं और समाज में हमेशा तिरस्कृत होते हैं। हमेशा ही वे अपने प्रारब्ध को कोसते रहते हैं। ऐसी ही सजा कुछ लोगों ने पिछले दिनों बलाकारी को देने की माँग की थी।
      हमारी भारतीय संस्कृति हमें जो जीवन मूल्य अपनाने का विमर्श देती है वे शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध हों। इन सबकी अनुपालना करके मनुष्य में दैवीगुण आते हैं व वह समाज में अपना अनुकरणीय स्थान बनाते हैं।
        ईश्वर ने मनुष्य को संसार में सर्वश्रेष्ठ जीव बनाकर भेजा है। इसे विवेक शक्ति का उपहार दिया है ताकि वह सोच-समझकर जीवन में आगे बढ़े। मनुष्य यदि अपना जीवन नियमानुसार संयमपूर्वक  व्यतीत करें तो इस शत्रु से किनारा किया जा सकता है।

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