हम जीव इस संसार में जन्म लेते हैं और सारा जीवन सोचते रहते हैं कि मैं कौन हूँ? मैं इस संसार में क्यों आया हूँ? उसके बाद मुझे कहाँ जाना है? आदि ये सभी प्रश्न हमें बेचैन करते रहते हैं। आयुपर्यन्त हम इन पहेलियों को सुलझाने के लिए सिरा तलाश करते रहते हैं पर न जाने वह कैसा सूत्र है जो हमारे हाथ ही नहीं लगता।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जब गुरु विरजानन्द जी के द्वार पर पहुँचे तो गुरु ने पूछा- 'कौन है?' स्वामी जी ने उत्तर दिया- 'यही जानने आया हूँ।' महात्मा बुद्ध भी इन्हीं प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए राजपाट छोड़कर चले गए।
इन पर विचार करना आवश्यक है तभी तो हम अपने विषय में जान सकेंगे। वेद वाक्य है- 'अहं ब्रह्मास्मि।'
अर्थात मैं ब्रह्म हूँ। इस वाक्य को गहराई से सोचे तो समझ आ जाएगा कि मैं उस अजर, अमर, अविनाशी परमात्मा का ही अंश हूँ।इसीलिए अपना रूप परिवर्तन करके अपने कृत कर्मों को भोगने के लिए बारंबार इस असार संसार में जन्म लेता हूँ। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उस परम आत्मा का एक अंश हूँ। उपनिषद् का मन्त्र है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया।
समानवृक्षं परिषस्व जाते।
अर्थात एक ही वृक्ष पर दो पक्षी (परमात्मा व आत्मा) बैठे हुए हैं। एक (परमात्मा) केवल द्रष्टा है और दूसरा (आत्मा) भोग करने वाला है।
इसी विचार को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं- 'ईश्वर अंस जीव अविनासी।'
ईश्वर का अंश यह जीव (आत्मा) अविनाशी है। मैं आत्मा अग्नि हूँ, ज्ञान, प्रकाश, गति एवं अग्रणी हूँ। मेरे अंतस् में संकल्प की अग्नि निरंतर प्रज्ज्वलित रहती है।अत: मेरा जीवन पथ सदा प्रकाशमान रहता है- 'अग्निरस्मि जन्मना जातवेद:।'
यह हमेशा स्मरण रखना चाहिए कि मैं ईश्वर का ही रूप हूँ और वह मेरे रोम-रोम में समाया हुआ है।
मेरे सिर पर उसका वरद हस्त है। इसलिए संसार में आकर स्वयं को उसके निर्देश के अनुरूप बनाना है।
मैं मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना हूँ। मुझे अपनी इस श्रेष्ठता का मान रखते हुए अपने को योग्य सिद्ध करना है।
मुझमें ईश्वर ने सभी पंच महाभूतों के गुणों का समावेश किया है। पृथ्वी जैसा धैर्य मुझे दिया है। जल के समान शीतलता प्रदान की है। वायु के समान मुझे गतिशील बनाया है। अग्नि की भाँति तेजस्वी बनाया है। आकाश के तुल्य व्यापकता दी है।
प्रभु ने मुझे विवेक शक्ति, भुजबल, साहस, आत्मविश्वास व स्वाभिमान का वरदान दिया है। कहने को मैं एक व्यक्ति हूँ पर सभ्यता व संस्कृति का प्रतिमान हूँ। दया, ममता, करुणा, प्रेम, वात्सल्य, शान्ति, क्षमा आदि का पालन करना मेरा धर्म है। मुझे अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए इस मानव जीवन को व्यर्थ नहीं गवाना है।
'सर्वभूतहिते रत:' अर्थात प्राणिमात्रउच की भलाई करना मेरा दायित्व है। मेरा घर-परिवार ही नहीं सारी पृथ्वी मेरा कुटुम्ब है जिसकी परिकल्पना हमारे ऋषियों ने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहकर की है।
ईश्वर ने जन्म इसलिए दिया है कि अपनी शक्तियों को जागृत कर आत्म साक्षात्कार करके उसमें लीन हो जाऊँ जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करूँ।
अंत में यह कहना उपयुक्त होगा- 'सोहम् अस्मि।' दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मैं वही हूँ जो परमात्मा है। जैसा वह है वैसा मैं हूँ। मैं किसी रूप में उससे भिन्न नहीं हूँ। बस मुझे उसके गुणों का अपने में विस्तार करना है और उसके साथ एकरूप होना है।
शुक्रवार, 6 मार्च 2015
जीवन का सार
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