अतिथियज्ञ
अतिथियज्ञ अथवा भूतयज्ञ हमारे पंच महायज्ञों में महत्त्वपूर्ण है। हमारी संस्कृति में 'अतिथिदेवो भव' की परिकल्पना है। इसका अर्थ है अतिथि यानी घर पर आए हुए मेहमान को भगवान के समान मानो। ऐसा समझाकर हमें अतिथि का सम्मान करना सीखाने वाली हमारी भारतीय सांकृतिक परम्परा ही हो सकती है, अन्य कोई और नहीं।
हमारे ग्रन्थों के अनुसार अतिथि साधु, सन्तों या विद्वानों को कहते थे। ये वे लोग होते थे जो दुनियादारी से दूर रहकार समाज का दिशा-निर्देश करते थे। ऐसे ज्ञानी जन कभी भी किसी भी गाँव या प्रदेश में चले जाते थे। जहाँ शाम या रात हो गयी वहीं डेरा डाल लेते थे। जन-साधारण को ज्ञानोपदेश देकर एक-दो दिन रुककर आगे पड़ाव के लिए निकल जाते थे। ऐसे विद्वान समाज की अमानत होते थे। इसलिए इनका आदर-सत्कार करना प्रत्येक सद् गृहस्थ का कर्तव्य होता था।
ये विद्वत जन मोह-माया से परे किसी स्थान पर अधिक समय नहीं ठहरते थे। इन लोगों के आने का कोई निश्चित समय नहीं होता था इसलिए अ + तिथि यानी बिना तिथि आने वाले कहलाते थे। बिना कोई नखरा किए जो मिल जाता था, खा लिया करते थे। फिर अगले पड़ाव के लिए प्रस्थान किया करते थे।
वास्तव में ये अतिथि समाज की धरोहर होते थे जिनके भरण-पोषण करने का दायित्व समाज पर होता था। इन्हें बोझ नहीं माना जाता था बल्कि समाज उन्हें सिर आँखों पर बिठाता था। ये अतिथि समाज का मार्ग दर्शन करके उनकी आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते थे।
आजकल अन्यों की तरह अतिथि के मायने भी बदल गए हैं। अतिथि तो अब भी हमारे घरों में आते हैं पर बिना बताए नहीं आते। आज इस भौतिक युग में चारों ओर मारामारी हो रही है, आपाधापी मची हुई है। किसी को किसी से मिलने का समय ही नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि कोई किसी से मिलना ही नहीं चाहता। सभी अपने को तीसमारखाँ समझते हैं। अगर मजबूरी में मिलना भी पड़े तो भारी लगता है। आज सभी समय न होने की मजबूरी का रोना रोते रहते हैं।
वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है केवल हममें इच्छा शक्ति की कमी है। अपनी मर्जी से हम मोबाइल में, टी वी देखने में घण्टों बरबाद कर देते हैं। फिर भी मेहमानों का आना जाना तो लगा ही रहता है। मेहमान भी अब समझदार हो गए हैं तथा दूसरे की मजबूरी समझते हैं। अत: बिना पूर्व सूचना के नहीं आते। जो लोग हमें पसन्द होते हैं, उनका स्वागत हम गर्मजोशी से करते हैं और जो लोग नापसन्द होते हैं, उनके आने पर हम अनमने से हो जाते हैं। उनका सत्कार तो हम करते हैं पर भार समझ कर करते हैं।
आज के युग में किसी के घर में कुछ दिन रहने की बात बड़ी विचित्र-सी प्रतीत होती है। परन्तु कुछेक स्थितियों में रहने के लिए भी आना होता है। जब किसी के घर पर रहने की आवश्यकता हो तो अतिथि धर्म का निर्वहण करना चाहिए। यही कहना है कि मेहमान को दूसरे के घर में मेहमान न बनकर घर के सदस्य की भाँति व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बोझ नहीं बनता बल्कि सबका प्रिय बन जाता है। जब वह पुनः कभी उस घर में जाता है तो खुले दिल से उसका स्वागत किया जाता है।
इसके विपरीत जो मनुष्य अपनी अकड़ में रहकर दूसरे के घर की व्यवस्था के अनुरूप ढलना नहीं चाहता, वह अतिथि अपने मेजबान की आँखों में खटकता है। उससे कोई भी प्रसन्न नहीं होता और सभी यही मनाते हैं कि वह शीघ्र ही चलता बने। मेजबान यही मनाते हैं कि दुबारा वह उनके घर पर न ही आए तो अच्छा रहेगा।
मित्रों अथवा सम्बन्धियों के घर पर जाते समय स्वयं को सन्तुलित रखना चाहिए। बच्चों को अनुशासन में रहना चाहिए तभी सम्मान मिलता है। बच्चों की उद्दण्डता के कारण भी कई बार अतिथि व आतिथेय में मनमुटाव हो जाता है। इस प्रकार की अप्रिय स्थिति से यथासम्भव बचना चाहिए। समय व परिस्थितियों के चलते अतिथि को भगवान की तरह मानने की परम्परा वाले हमारे देश में यद्यपि कई स्वाभाविक बदलाव आए हैं पर आज भी अतिथि का स्वागत-सत्कार अपनी सामर्थ्य से बढ़कर किया जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
एक और जहां मेजवान का नैतिक दायित्व है कि वह अतिथि का यथोचित मान सम्मान करे वही अतिथि के लिए भी कहा गया है कि -
" देखत ही हरख नहीं, नैनन नहीं स्नेह।
तां घर कभी ना जाइये,चाहे कंचन बरसे मेह।।"