गुरुवार, 31 जुलाई 2025

अतिथियज्ञ

अतिथियज्ञ

अतिथियज्ञ अथवा भूतयज्ञ हमारे पंच महायज्ञों में महत्त्वपूर्ण है। हमारी संस्कृति में 'अतिथिदेवो भव' की परिकल्पना है। इसका अर्थ है अतिथि यानी घर पर आए हुए मेहमान को भगवान के समान मानो। ऐसा समझाकर हमें अतिथि का सम्मान करना सीखाने वाली हमारी भारतीय सांकृतिक परम्परा ही हो सकती है, अन्य कोई और नहीं।
          हमारे ग्रन्थों के अनुसार अतिथि साधु, सन्तों या विद्वानों को कहते थे। ये वे लोग होते थे जो दुनियादारी से दूर रहकार समाज का दिशा-निर्देश करते थे। ऐसे ज्ञानी जन कभी भी किसी भी गाँव या प्रदेश में चले जाते थे। जहाँ शाम या रात हो गयी वहीं डेरा डाल लेते थे। जन-साधारण को ज्ञानोपदेश देकर एक-दो दिन रुककर आगे पड़ाव के लिए निकल जाते थे। ऐसे विद्वान समाज की अमानत होते थे। इसलिए इनका आदर-सत्कार करना प्रत्येक सद् गृहस्थ का कर्तव्य होता था।
                ये विद्वत जन मोह-माया से परे किसी स्थान पर अधिक समय नहीं ठहरते थे। इन लोगों के आने का कोई निश्चित समय नहीं होता था इसलिए अ + तिथि यानी बिना तिथि आने वाले कहलाते थे। बिना कोई नखरा किए जो मिल जाता था, खा लिया करते थे। फिर अगले पड़ाव के लिए प्रस्थान किया करते थे।
            वास्तव में ये अतिथि समाज की धरोहर होते थे जिनके भरण-पोषण करने का दायित्व समाज पर होता था। इन्हें बोझ नहीं माना जाता था बल्कि समाज उन्हें सिर आँखों पर बिठाता था। ये अतिथि समाज का मार्ग दर्शन करके उनकी आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते थे।
            आजकल अन्यों की तरह अतिथि के मायने भी बदल गए हैं। अतिथि तो अब भी हमारे घरों में आते हैं पर बिना बताए नहीं आते। आज इस भौतिक युग में चारों ओर मारामारी हो रही है, आपाधापी मची हुई है। किसी को किसी से मिलने का समय ही नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि कोई किसी से मिलना ही नहीं चाहता। सभी अपने को तीसमारखाँ समझते हैं। अगर मजबूरी में मिलना भी पड़े तो भारी लगता है। आज सभी समय न होने की मजबूरी का रोना रोते रहते हैं।
              वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है केवल हममें इच्छा शक्ति की कमी है। अपनी मर्जी से हम मोबाइल में, टी वी देखने में घण्टों बरबाद कर देते हैं। फिर भी मेहमानों का आना जाना तो लगा ही रहता है। मेहमान भी अब समझदार हो गए हैं तथा दूसरे की मजबूरी समझते हैं। अत: बिना पूर्व सूचना के नहीं आते। जो लोग हमें पसन्द होते हैं, उनका स्वागत हम गर्मजोशी से करते हैं और जो लोग नापसन्द होते हैं, उनके आने पर हम अनमने से हो जाते हैं। उनका सत्कार तो हम करते हैं पर भार समझ कर करते हैं।
           आज के युग में किसी के घर में कुछ दिन रहने की बात बड़ी विचित्र-सी प्रतीत  होती है। परन्तु कुछेक स्थितियों में रहने के लिए भी आना होता है। जब किसी के घर पर रहने की आवश्यकता हो तो अतिथि धर्म का निर्वहण करना चाहिए। यही कहना  है कि मेहमान को दूसरे के घर में मेहमान न बनकर घर के सदस्य की भाँति व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करने पर वह बोझ नहीं बनता बल्कि सबका प्रिय बन जाता है। जब वह पुनः कभी उस घर में जाता है तो खुले दिल से उसका स्वागत किया जाता है।
           इसके विपरीत जो मनुष्य अपनी अकड़ में रहकर दूसरे के घर की व्यवस्था के अनुरूप ढलना नहीं चाहता, वह अतिथि अपने मेजबान की आँखों में खटकता है। उससे कोई भी प्रसन्न नहीं होता और सभी यही मनाते हैं कि वह शीघ्र ही चलता बने। मेजबान यही मनाते हैं कि दुबारा वह उनके घर पर न ही आए तो अच्छा रहेगा।
           मित्रों अथवा सम्बन्धियों के घर पर जाते समय स्वयं को सन्तुलित रखना चाहिए। बच्चों को अनुशासन में रहना चाहिए तभी सम्मान मिलता है। बच्चों की उद्दण्डता के कारण भी कई बार अतिथि व आतिथेय में मनमुटाव हो जाता है। इस प्रकार की अप्रिय स्थिति से यथासम्भव बचना चाहिए। समय व परिस्थितियों के चलते अतिथि को भगवान की तरह मानने की परम्परा वाले हमारे देश में यद्यपि कई स्वाभाविक बदलाव आए हैं पर आज भी अतिथि का स्वागत-सत्कार अपनी सामर्थ्य से बढ़कर किया जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
एक और जहां मेजवान का नैतिक दायित्व है कि वह अतिथि का यथोचित मान सम्मान करे वही अतिथि के लिए भी कहा गया है कि -
" देखत ही हरख नहीं, नैनन नहीं स्नेह।
तां घर कभी ना जाइये,चाहे कंचन बरसे मेह।।"

बुधवार, 30 जुलाई 2025

पितृयज्ञ

पितृयज्ञ

पितृयज्ञ पंचमहायज्ञों में महत्त्वपूर्ण यज्ञ है जो हमें इस संसार में हमारे जन्मदाता हमारे माता-पिता के प्रति हमारे दायित्वों का स्मरण कराता है। हमें इस संसार में लाकर माता-पिता हम पर महान उपकार  करते हैं। उनके इस ॠण को मनुष्य चुका नहीं सकता चाहे वह सारी आयु उनकी सेवा करता रहे। माँ पालन-पोषण करती है, स्वयं गीले में रहकर हमारे सुख का ध्यान रखती है। वह हमें अक्षर ज्ञान भी कराती है। वह हमारी प्रथम गुरु है, महान है और पूज्या है। पिता हमारा पोषक है इसलिए वह आकाश से भी ऊँचा है और महान है।
             हमारी भारतीय संस्कृति में बच्चे के पैदा होते ही यह संस्कार कूट-कूट कर भरे जाते हैं कि उन्हें बड़े होकर अपने वृद्ध हो रहे माता-पिता की सेवा करनी है। प्रायः बच्चे अपने माता-पिता की परवाह करते हैं। उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखते हैं। उनके स्वास्थ्य का ध्यान रखते हैं। बिना कहे उनकी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं। उनके माता-पिता के चेहरे पर मुस्कान बनी रहे, इसके लिए सन्नद्ध रहते हैं।
             कुछ मुट्ठी भर ऐसे बच्चे हैं जो बच्चे अपने कर्त्तव्य से विमुख हो रहे हैं। समाज उन्हें हिकारत की नजर से देखता है। दो वक्त की रोटी को अगर माता-पिता तरसें तो बच्चों के करोड़पति या अरबपति होने को धिक्कार है। ऐसी दुर्दशा जिनकी होती है वे अपने भाग्य को कोसते हैं कि ईश्वर ने उन्हें ऐसी सन्तान क्यों दी? वे सन्तानहीन ही रहते तो अच्छा था। बच्चे कितना भी कमाने लगें अथवा ओहदे में कितने भी बड़े हो जाएँ, अपने ऐसे माता-पिता की अवहेलना करने का उन्हें हक समाज नहीं देता। किसी भी सभ्य समाज में यह अपेक्षित नहीं है कि बच्चे ऐश करें और उनके माता-पिता दरबदर होकर ठोकरें खाएँ या पैसे-पैसे के मोहताज हो दवा तक को तरसें। 
              मन्दिरों में जाकर पत्थर के भगवान के आगे माथा रगड़ें परन्तु घर में बैठे उन जीवित माता-पिता की जिन्हें हमारे ग्रन्थ देवता मानते हैं की अवहेलना करना कदापि मान्य नहीं। बच्चे अपने माता-पिता से सारी उम्मीदें रखते हैं। उनके पास जो भी धन-सम्पत्ति या कारोबार है, सब समेटना चाहते हैं। माता-पिता को उनके कर्तव्य याद दिलाना चाहते हैं परन्तु अपने दायित्वों से विमुख होना चाहते हैं। आजकल विदेशियों की नकल पर माता-पिता को ओल्ड होम में भेजने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है जो हमारी भारतीय सांस्कृतिक की विचारधारा के बिल्कुल विपरीत है।
               दोनों पति-पत्नी यदि कमाते हैं तो भी माता-पिता के लिए उनके पास पैसे नहीं बचते जबकि अपने खर्च में उनकी कोई कमी नहीं होती। उनके अपने सभी कार्य निश्चित ढर्रे पर चलते रहते हैं। व्यापारी भी माँ-पापा का जमा-जमाया कारोबार सम्हाल कर उन्हें बुरा कहने लगते हैं। 
             अपने बच्चों को ऐसे आदर्श सिखाएँ कि वे अपने माता-पिता का अनादर करने की हिम्मत न कर सकें। वे समाज के डर से नहीं अपने मन से माता-पिता की सेवा करें और उनके प्रति अपने दायित्वों को पूरा करें। उनके मरने के पश्चात लाखों रुपए अपनी शान बघारने व नाक ऊँची करने के लिए खर्च करें। माता-पिता के लिए सुखों का बलिदान कर उनके लिए जीने और सुख-साधनों को जुटाने वाली सन्तानें आज भी हैं।
             कुछ विद्वान पितृयज्ञ का अर्थ मृत पितरों का श्राद्ध व तर्पण करना मानते हैं जो मेरे विचार में उचित नहीं। पुनर्जन्म सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु के पश्चात जीव का अपने कर्मानुसार निश्चित अवधि के बाद जन्म हो जाता है। तो फिर जिसका जन्म हो गया उसका श्राद्ध व तर्पण कैसा? इसका अर्थ मुझे यही उचित प्रतीत होता है कि श्रद्धापूर्वक यथाशक्ति अपने माता-पिता को तृप्त करना।
            विद्वान कोई भी अर्थ करें पर सत्य यही है कि माता-पिता हमारे जीवित देवता हैं जिनकी नियम से पूजा-अर्चना करना आवश्यक है। इसके लिए कभी भी, किसी भी प्रकार की कोताही नहीं करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 29 जुलाई 2025

देवयज्ञ

देवयज्ञ

देवयज्ञ पंच महायज्ञों में दूसरे स्थान पर आता है। देव शब्द का उच्चारण करते ही हमें उन देवताओं का स्मरण होने लगता है जिनकी हम उपासना करते हैं। इन देवों की पूजा-अर्चना हम सब नियमपूर्वक करते हैं। सवेरे उठकर, नैमित्तिक कार्यों से निवृत्त होकर हमें देवयज्ञ करना चाहिए।
             दिव्य गुणों से युक्त व्यक्तियों को हम देव कहते हैं। इसका यही अर्थ है सज्जनों की संगति करना। जो दयालु, परोपकारी, सहृदय व विनीत लोग होते हैं, वे सज्जन ही कहलाते हैं। ये मनसा, वाचा और कर्मणा एक होते हैं। ऐसे लोगों की संगति करनी चाहिए। इनके संसर्ग से हमारा चहुंमुखी विकास होता है। चारों दिशाओं में हमारा यश फैलता है। हम सफलता के सोपानों पर चढ़ते जाते हैं। चाहे स्वार्थवश कहें अथवा स्वभाववश दिव्य जनों का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
            देवयज्ञ का अर्थ हम कर सकते हैं कि सभी देवों को उनका यथायोग्य भाग (हिस्सा या अंश) प्रदान किया जाए। प्रकृति के कहे जाने वाले ये सभी देव हम पर उपकार करते हैं। इनसे हम प्रतिदिन कुछ-न-कुछ ग्रहण करते रहते हैं। यदि ये हमारी तरह स्वार्थी हो जाएँ तो यह ब्रह्माण्ड ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। हम सभी जीवों का जीवन पलभर में ही समाप्त हो जाएगा।
             इसी बात को हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि मनुष्य को प्रकृति के जिस रूप से भय लगता है अथवा जिससे उसका स्वार्थ सिद्ध होता है, वह उसकी ही पूजा करता है। इसी कारण ही शायद देवपूजा का विधान किया गया होगा।
             इस बात को हम इस प्रकार समझते हैं।सूर्य हमें प्रकाश व ताप देता है। इन्द्र यानी बादल के बरसने से हमें खाने के लिए अनाज व पीने के लिए जल मिलता है। वायु हमारी जीवनदायिनी शक्ति है। उसके बिना एक पल भी जी नहीं सकते। वृक्ष हमें फल व छाया देते हैं। इसी प्रकार प्रकृति के सभी अवयव हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी हैं। इसीलिए हम इन सभी को देव कहते हैं।
              भौतिक जीवन में भी यदि कोई हम पर उपकार करता है या हमारी सहायता करता है तो हम उसे धन्यवाद देते है। यदि उसका हम पर अधिक उपकार हो तो हम धन्यवाद के साथ-साथ उसे उपहार भी देते हैं। इसी प्रकार हमें इन देवों के प्रति भी निश्चित ही अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए। उसे ज्ञापित करने का माध्यम हमें हमारे शास्त्रों ने देवयज्ञ के रूप में बताया है।
             हमारा अपना एक परिवेश है जिसमें हम बदबू व गन्दगी फैलाते हैं। इस दुर्गन्ध को सुवासित करने का माध्यम यज्ञों में प्रयोग की जाने वाली सामग्री है। इन सबको उनका भाग यज्ञ-हवन करके दे सकते हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत से यज्ञों का विधान है। हम सोशल मीडिया पर देखते हैं और समाचार पत्रों में पढ़ते हैं कि आजकल हवन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। लोग कभी मैच में टीम इंडिया के जीतने, कभी किसी के स्वास्थ्य लाभ के लिए और भी किसी-न-किसी बहाने यज्ञ हवन करते रहते हैं।
              यज्ञ में जिस सामग्री का उपयोग किया जाता है, उसकी सुगन्ध व यज्ञ का धुआँ बहुत दूर तक पर्यावरण में फैलते हैं। यह वैज्ञानिक सत्य है कि इससे वातावरण शुद्ध होता है व कई प्रकार के रोगाणु नष्ट होते हैं। इसी प्रकार धूप व अगरबत्ती जलाकर घर और बाहर का शुद्धिकरण किया जा सकता है।
             यह देवयज्ञ केवल हमारे अपने लिए व अपने घर लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के लिए आवश्यक है। अतः पर्यावरण को शुद्ध करने और अपने जीवन को सुखी व समृद्ध बनाने के लिए हम सबको प्रात: उठकर देवयज्ञ करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 28 जुलाई 2025

ब्रह्मयज्ञ

ब्रह्मयज्ञ

ब्रह्मयज्ञ का स्थान हमारे पंच महायज्ञों में सबसे पहले आता है। जिस प्रकार नए दिन का उदय ब्रह्ममुहूर्त से होता है उसी प्रकार मनुष्य के दिन का आरम्भ ईश्वर की पूजा-अर्चना से करने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।
              प्रतिदिन प्रातःकाल जागने के पश्चात अपने नित्य-नैमित्तिक कार्यों से निपटकर ईश्वर की आराधना करनी चाहिए। ईश्वर ने हमें इस संसार में जन्म दिया है। जीवन जीने के लिए सभी साधन उपलब्ध करवाए हैं। इसलिए उसका धन्यवाद करने की महती आवश्यकता है। अतः दिन भर के सांसारिक कार्यों में उलझने से पहले उस प्रभु का उसका ध्यान और अर्चना करनी चाहिए। इससे मन में उत्साह व स्फूर्ति बने रहते हैं। मनुष्य को आत्मिक बल मिलता है।
              ईश्वर को स्मरण करना उसे धन्यवाद देना हमारा दायित्व है। अपने बच्चों को जिन्हें हमने जन्म दिया है, उनसे हम यह उम्मीद करते हैं कि वे हमारे प्रति समर्पित रहें। वे कहीं भी रहें हमारा ध्यान रखें। इसी तरह इस संसार का जनक वह परमात्मा भी हमसे अपेक्षा करता है कि नित्य प्रातः जागने के बाद हम उसका नियमित ध्यान करें।
            ईश्वर की आराधना किस विधि से की जाए, यह हर मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है। विश्व में अनेक धर्म हैं और उन सबके अनुयायी भी बहुत हैं। वे सभी हमें उस ईश्वर तक जाने का मार्ग बताते हैं। यह व्यक्ति विशेष की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किस धर्म के सिद्धान्तों को मानता है। वह निराकार की उपासना करता है अथवा साकार की। वह सगुण ब्रह्म की नवधा भक्ति करता है या निराकार ब्रह्म के निमित्त संध्या-वन्दन, जप-तप करता है। इन सब विधियों को न करके वह केवल नाम जाप करता है।
             किसी भी पद्धति से उस मालिक की उपासना करिए, वह प्रसन्न हो जाता है। बहुधा लोग कहते हैं पूजा-प्रार्थना में मन नहीं लगता। मन लगे या न लगे केवल श्रद्धापूर्वक अपने नियम का पालन करना हमारा कर्त्तव्य है। उसे निभाते रहिए शेष सब उस मालिक पर छोड़ दीजिए। धीरे-धीरे आराधना में हमारा मन रमने लगेगा। ईश्वर अपने प्रति मनुष्य की बस सच्ची श्रद्धा व विश्वास चाहता है और कुछ नहीं। उसे बस केवल हमारी सच्ची लगन लगनी चाहिए।
             वह अपनी उपासना का प्रदर्शन कदापि पसन्द नहीं करता। यदि सच्चे मन से उसे पुकारा जाए तो वह हमारी सभी मनोकामनाओं को हमारे कर्मानुसार यथासमय अवश्य पूरा करता है। वहीं हमारे कष्टों, दुखों और परेशानियों को दूर करके हमें सुख-समृद्धि देता है। वह हम लोगों की तरह स्वार्थी नही है। वह मुक्त हाथों से भर-भरकर नेमते हमें बाँटता रहता है और कभी जताता नहीं। हमें मात्र अपनी पात्रता सिद्ध करनी होती है और अन्य कुछ भी नहीं।
              वैसे तो सोते-जागते, उठते-बैठते, अपने कर्त्तव्यों का पालन करते समय यदि उस मालिक को स्मरण करते रहें तो मन में सात्विक वृत्तियों का उदय होता है। कुमार्ग पर भटकने से मनुष्य का बचाव हो जाता है। मैं अपनी बहनों महिलाओं से कहना चाहती हूँ कि यदि हो सके तो भोजन बनाते समय प्रभु के नाम का स्मरण करती रहें। आप स्वयं अनुभव करेंगी कि उस भोजन का स्वाद कई गुणा बढ़ गया है।
              हमें अपने सद् ग्रन्थों(धार्मिक ग्रन्थों) का अध्ययन भी करना चाहिए। उनका मनन करके अपने जीवन की दिशा निर्धारित करनी चाहिए। इससे जीवन को चलाने के लिए सही मार्गदर्शन मिलता है।
        ईश्वर का प्रातः नियमपूर्वक स्मरण ब्रह्मयज्ञ कहलाता है। इस यज्ञ को हम सभी करते हैं पर शायद इस विशेष नाम से नहीं। हम चौबीसों घण्टे आपाधापी का जीवन जीते हैं। वह समय हमारा नहीं होता बल्कि वह घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों तथा रोजी-रोटी कमाने के चक्करों का होता है। हमारा अपना समय वही होता है जब हम अपने कुछ पल उस मालिक को याद करने में व्यतीत करते हैं। उस समय का सुकून हमारे पूरे दिन का शक्ति स्त्रोत बनता है। तभी हम अपने सभी कार्य उत्साहपूर्वक सम्पन्न कर पाते हैं।
             इसलिए यदि हम अपने इस नश्वर मानव जीवन को सफल बनाकर अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की ओर कदम बढ़ाना  चाहते हैं तो श्रद्धापूर्वक सच्चे मन से उसकी शरण में जाना होगा तभी ब्रह्मयज्ञ करना सार्थक होगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 27 जुलाई 2025

पंच महायज्ञ

पंच महायज्ञ

हमारे शास्त्र हमें प्रतिदिन पंच महायज्ञ करने का निर्देश देते हैं। ये पंच महायज्ञ हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ या भूतयज्ञ और बलिवैश्व देव यज्ञ। प्रत्येक गृहस्थ के लिए इन पाँचों महायज्ञों का अनुपालन करना आवश्यक माना जाता है। हम इस ब्रह्माण्ड से बहुत कुछ लेते हैं। इस समाज का भी हम पर ऋण होता है। इस ऋण से उऋण होने के लिए शास्त्रों ने इन पंच महायज्ञों को नित्य करने का विधान किया है। 
             इन यज्ञों के नाम पढ़कर कदाचित आप सोच रहे हैं कि शास्त्र क्या करने के लिए कह रहे हैं। निश्चिन्त रहिए इन सभी यज्ञों को हम नित्य करते हैं परन्तु शायद अनजाने में और बिना नियम के। इनके विषय में आप जानिए।
1 ब्रह्मयज्ञ -  सबसे पहला यज्ञ कहा गया है। इसका अर्थ है प्रातः उठकर नित्य-नैमित्तिक कार्यों से निपटकर ईश्वर की उपासना करनी चाहिए। उसके बाद इस दुनिया के झमेले निपटाने चाहिएँ। जिसने हमें इस संसार में जन्म दिया है, उसकी स्तुति करते हुए उसका धन्यवाद करना चाहिए। वैसे इस भौतिक संसार में रहते हुए यदि कोई हमारी सहायता करता है या हमें लाभ पहुँचाता है तो हम शिष्टाचारवश उस मनुष्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए धन्यवाद देते हैं। 
             परमपिता परमात्मा ने इस धरती पर जन्म देकर हम पर महान उपकार किया है। अपना कहने के लिए घर-परिवार दिया है। इतने सारे बन्धु-बान्धव हमें दिए हैं। संसार में रहते हुए हमें सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध करवाए हैं। अपनी नेमतों से सदा हमारी झोली भरता रहता है। ऐसे उस प्रभु का आभार हमें अपने मन से प्रकट करना ही चाहिए। यह हमारा नैतिक दायित्व बनता है। शायद इसकी अपेक्षा वह प्रभु भी हमसे करता होगा।
 2 देवयज्ञ -  ऋषियों ने दूसरा यज्ञ देवयज्ञ बताया है। इसका अर्थ है सज्जनों की संगति करना। दूसरा अर्थ है सभी देवों को उनका भाग दिया जाए। सभी देवों से तात्पर्य है प्रकृति के कहे जाने वाले वे सभी देव जिनसे हम प्रतिदिन ग्रहण करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में सूर्य जो हमें प्रकाश व ताप देता है, इन्द्र यानी बादल जिनके बरसने से हमें खाने के लिए अनाज व पीने के लिए जल मिलता है। वृक्ष हमें फल व छाया देते हैं। ये कुछ नाम गिनाए हैं इसी प्रकार अन्य सभी देव हैं।
             हमारा अपना परिवेश भी है जिसमें हम बदबू व गन्दगी फैलाते हैं। इन सबको उनका भाग यज्ञ-हवन करके दे सकते हैं। यज्ञ की सामग्री, धूप और अगरबत्ती जलाकर इस यज्ञ को सम्पन्न किया जाता है।
3 पितृयज्ञ - तीसरा महायज्ञ पितृयज्ञ कहा गया है। यह हमें अपने माता-पिता की सेवा करने के लिए कहता है। इसका बस इतना ही अर्थ है कि उनकी सारी आवश्यकताओं को उनके बिना कहे पूरा करना। उन्हें यथोचित मान-सम्मान देना जो उनको मिलना चाहिए। माता-पिता हमें इस संसार में लाकर हम पर महान उपकार करते हैं। उनके इस ऋण को हम आजन्म उनकी सेवा करके भी उससे उऋण नहीं हो सकते। यह हम सभी को हमेशा याद रखनी चाहिए।
4 अतिथियज्ञ - चौथा यज्ञ अतिथियज्ञ कहलाता है। हमारे घर में आने वाले बिना सूचना के साधु-सन्तों और अपने मित्रों-सम्बन्धियों आदि का यथोचित आदर-सत्कार करना अतिथियज्ञ कहलाता है। इस यज्ञ को करने का एक विशेष प्रयोजन है। वह यह है कि मनुष्य सामाजिक प्राणि है और अकेला नहीं रह सकता। इसलिए वह समाज से बहुत कुछ लेता रहता है। अत: मनुष्य का कर्त्तव्य बनता है कि वह समाज के हित के कार्य करे। अतिथि का सत्कार करना उसी का ही एक रूप है।
5 बलिवैश्वदेव यज्ञ - इस पांचवें यज्ञ के अनुसार प्रतिदिन जो भी भोजन घर में बनाया जाए, उसमें नमकीन, खट्टे और खार अन्न को छोड़कर घी और मीठे से युक्त अन्न को चूल्हे से अग्नि लेकर आहुति देते हैं। आजकल के समय में घरों में चूल्हे नहीं हैं तो वह अन्न चींटियों को भी डाल सकते हैं।
            इस प्रकार नियमपूर्वक इन पंच महायज्ञों को करने से हम गृहस्थ अपने दायित्वों की पूर्ति कर सकते हैं। इससे हमें आत्मिक सुख और सन्तोष मिलता है। हम अपनी भारतीय संस्कृति को बचाकर रख सकते हैं। यह हमारे लिए बहुत सौभाग्य की बात होगी।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 26 जुलाई 2025

दीनबन्धु बनें

दीनबन्धु बनें 

दीनबन्धु एक ऐसा शब्द है जिसका अर्थ है गरीबों का दोस्त अथवा दुखी जनों का मित्र। दीनबन्धु शब्द का प्रयोग प्रायः भगवान के एक नाम के रूप में किया जाता है। ईश्वर गरीबों और जरूरतमन्दों के लिए दयालु और सहायक है। दीनबन्धु हमें बहुत प्रिय है पर हम लोग दीनबन्धु नहीं बनना चाहते। हम चाहते हैं कि कोई और दीनबन्धु बन जाए तो बहुत हमारे लिए बहुत अच्छा होगा। हम यह सोचते हैं कि दीनबन्धु तो हम ईश्वर को कहते हैं, हमें उसके जैसा बिल्कुल नहीं बनना। हम जैसे भी हैं वैसे ही बहुत अच्छे हैं। 
            हमारी इस सोच को ग़लत सिद्ध करती है अंग्रेजी भाषा की यह उक्ति करती है - 
        charity begins at home.
अर्थात् चैरिटी की शुरुआत अपने घर से ही होनी चाहिए।
           चैरिटी का अर्थ है दान देना, परोपकार या भलाई के लिए काम करना। सभी लोग यही सोचते हैं कि चैरेटी तो की जाए पर उसकी शुरुआत पड़ौसी के घर से होनी चाहिए, मेरे घर से नहीं। हम लोगों की सोच बड़ी विचित्र है। हर व्यक्ति सोचता है कि मैं अपनी कमाई को व्यर्थ ही दूसरों पर क्यों लुटाऊँ? समाज की भलाई करने का ठेका क्या मैंने ही लिया हुआ है? दूसरे शब्दों में कहें तो यह कि अन्य लोग परोपकार के कार्य करें तो बहुत अच्छी बात है पर खून-पसीने से कमाई हुई अपने पल्ले की दमड़ी भी खर्च नहीं होनी चाहिए।
              दुखियों-पीड़ितों से हम तथाकथित तौर पर बहुत अधिक सहानुभूति रखते हैं। उनके लिए सभाएँ-गोष्ठियाँ करते हैं। बड़े-बड़े पेपर भी उनके लिए निकालते हैं। भाषण देते हैं और रैलियाँ भी निकालते हैं। कितने ही शोध ग्रन्थ हमने उनके कष्टों व निदान के लिए लिख दिए हैं। आए दिन संसद में भी उनके उत्थान के लिए चर्चाएँ होती रहती हैं। अर्थशास्त्री उनके आँकड़े जुटाने हेतु माथापच्ची करते रहते हैं। हमारा मन भी उन बेचारों के लिए सचमुच पिघलता रहता है।
             जब किसी की सहायता करते का समय आता है तब हम बगलें झाँकने लगते हैं। पढ़ने और सुनने में कितना अच्छा लगता है कि परोपकार के कार्य हमें करने चाहिए। अपनी कमाई का दस प्रतिशत अंश हमें दानादि में व्यय करने चाहिए। हम इतने समझदार हैं कि इस सत्य को किनारे कर देते हैं जो कहता है कि मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज से बहुत कुछ लेता रहता है। इसलिए उसका नैतिक दायित्व बनता है कि वह समाज के हितार्थ अपनी सामर्थ्य के अनुसार जो भी योगदान दे सकता है, उसे प्रसन्नतापूर्वक अपना सहयोग करना चाहिए।
            यदि सभी लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार थोड़ा-थोड़ा सहयोग करें तो समाज के बहुत से असहाय लोगों का भला हो सकता है। उनकी व उनके परिवार की देखभाल हो सकती है। हमारे देश में अनेकों लोग धन-सम्पत्ति से समृद्ध हैं। यदि वे चाहें तो किसी बस्ती या गाँव को गोद लें सकते हैं। वहाँ हर प्रकार की सुविधाऍं जुटा सकते हैं। वहॉं बच्चों के लिए शिक्षा, पुस्तकें, स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाऍं, भोजन और स्वच्छ जल जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं।
           चैरिटी में धन, समय, आवश्यक वस्तुओं आदि का दान शामिल हो सकता है। कुछ धर्मार्थ संस्थाऍं बेघर लोगों को भोजन और आश्रय प्रदान करती हैं। शिक्षा के लिए कुछ लोग धन जुटाते हैं और जरूरतमन्द बच्चों को छात्रवृत्ति प्रदान करते हैं। कुछ स्वयंसेवी अस्पतालों में मरीजों की देखभाल निःशुल्क करते हैं। कुछ व्यक्ति स्थानीय खाद्य बैंक में दान करते हैं। बहुत से संस्थान भोजन का वितरण करते हैं। बहुत से लोग इन संगठनों को यथाशक्ति दान देते हैं। आमतौर पर गैर-लाभकारी संगठन लाभ कमाने के बजाय अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए काम करते हैं।
            इस प्रकार कुछ समाजसेवी संस्थाऍं इस कार्य को बहुत कुशलता से निभा रही हैं। सरकार भी इसके लिए कटिबद्ध है। परन्तु फिर भी अभी इन दीन-हीन अवस्था के लोगों के लिए और भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। ईश्वर ने यदि हमें समर्थ बनाया है तो हम लोगों को अपने सच्चे मन से दीनबन्धु बनकर सहयोग करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

भेड़चाल चलन

भेड़चाल चलना 

हम सभी जीवन भर भेड़चाल चलते रहते हैं। भेंड़चाल का तात्पर्य हैं कि एक भेड़ जिधर चलती है, उसके पीछे शेष भेड़े चल पड़ती हैं बिना यह जाने कि वह कहाँ जा रही है। वही हाल हम सभी मनुष्यों का भी है। कारण बहुत स्पष्ट है, वह यह है कि अपने आस-पास के माहौल से हम बहुत शीघ्र प्रभावित हो जाते हैं। इसलिए यदा-कदा परेशानियों का सामना करते रहते हैं। हम अपनी परिस्थितियों का आकलन करना ही नहीं चाहते। बस दूसरों की ओर देखते रहते हैं।
            आज हमारे पड़ौसी ने महंगी वाली नयी गाड़ी खरीदी है पर हमारे वाली कार उसकी गाड़ी के सामने पुरानी लगेगी। यह तो कोई बात नहीं हुई। मतलब तो सुविधा लेने का है। अपनी गाड़ी पुरानी हो गई है तो कोई बात नहीं। उससे काम तो चल रहा है। उसकी सामर्थ्य थी उसने गाड़ी खरीद ली। इसमें तो कोई बड़ी बात नहीं। सभी लोग आपने साधनों के अनुसार उपयोगी वस्तुएँ खरीदते हैं। खुश होते हैं और उसका उपभोग करते हैं। पर हमारा क्या हम तो परेशान हो गए। हम उसके सुख में खुश नहीं हो सकते। 
              पडौसी की नई गाड़ी देखकर अब बस शुरु हो गया हमारे घर में कलह-क्लेश। घर के सभी सदस्य उठते-बैठते ठण्डी आहें भरेंगे और अपने भाग्य को कोसते हुए व्यंग्य बाण छोड़ेंगे। फिर शुरु होगा जोड़-तोड़ का सिलसिला। चाहे हमें उसकी जरुरत हो या न हो, हमारे पास उसे खरीदने के साधन है अथवा नहीं। पर हम तो ऐसे हैं जो खरीद कर ही दम लेंगे। न हम अपनी होने वाली कटौतियों के बारे में सोचेंगे और न ही अपनी असुविधाओं के बारे में। बस दिनरात एक ही रट व आहें जो जीवन दूभर कर देती हैं। जरूरत होगी तो कर्ज लेकर ही हम अपने पड़ौसी को दिखा देंगे कि तू क्या चीज है हम भी कम नहीं।
               हमारी यह एक नाक बेचारी है जो हर दूसरे दिन कट जाती है। अब हमारे घर भी पड़ौसी जितनी या उससे महंगी गाड़ी आ गई। अब तो हमारी खुशी का ठिकाना नहीं और हमारी छोटी-सी चढ़ने वाली नाक कटी नहीं, बच गई बल्कि अब ऊँची हो गई। अपने इलाके में वाहवाही हो गई। अब बताइए ऐसी वाहवाही से क्या होगा? इसी प्रकार हम सदैव अपनी कमियों का रोना रोते रहते हैं। हर दिन हमारा कोई बन्धु-बान्धव अथवा पडौसी कुछ नया लेकर आ जाएगा। हम कब तक इस अन्धी दौड़ में दौड़ते रहेंगे? अपने मन को कब तक परेशान करते रहेंगे?
             इस होड़ का कोई अन्त नहीं है। हम दूसरों की खुशी में खुश नहीं होते और न ही उनके सुख को खुले दिल से स्वीकार करते हैं बल्कि ईर्ष्या में जलते रहते हैं। उनका कुछ नहीं बिगड़ता पर हाँ, अपना खून अवश्य जलता है। होना तो यह चाहिए कि खुले दिल से प्रसन्न होकर उन्हें बधाई दी जाए। दूसरे की समृद्धि से ईर्ष्या करने के स्थान पर अपने हृदय को विशाल बनाना चाहिए। इस प्रकार करने से मन अवसादग्रस्त नहीं होता। हम अनावश्यक तनाव में नहीं आते।
               मैंने यह एक छोटा-सा उदाहरण प्रस्तुत किया है संकीर्ण मानसिकता का और हमारे द्वारा की जा रही भेड़चाल का। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहाँ इन भौतिक वस्तुओं की पाने की ललक में न जाने कितने मासूमों के खून से होली खेली गई। इन भौतिक तृष्णाओं का कोई अन्त नहीं है। एक के बाद एक ये तृष्णाएँ हमारा सुख-चैन छीनकर हमें मानसिक रूप से बीमार बना देती हैं। हम भी बस सांसारिक प्रलोभनों में फॅंसकर दिन-रात मृगतृष्णा के पीछे भागते हुए थककर चूर हो जाते हैं। अनावश्यक ही दुनिया में हंसी का पात्र बन जाते हैं।
              हम उन वस्तुओं की होड़ करते हैं जो दुख का कारण हैं। परन्तु सकारात्मक होड़ नहीं करते जो सुख-शान्ति का कारण हैं। हम यह होड़ नहीं करते कि हमारा पड़ोसी, मित्र या सम्बन्धी परोपकार के कार्य करता है, दान देता है, भगवत भजन में व्यस्त रहता है, उसके बच्चे आज्ञाकारी हैं, वह सादा जीवन उच्च विचार का पोषक है, उसके घर में सुख-शान्ति है। जो इन सब उपलब्धियों से मालामाल हैं हम उन्हें मूर्ख समझकर उनका मजाक उड़ाते हैं। जबकि कुछ समय बीतने पर यही लोग दूसरों की ईर्ष्या का कारण बनते हैं। यदि समय रहते इन सबकी होड़ में जुट जाएँ तो स्वयं को धन्य कर सकते हैं। अपने जीवन को भेड़चाल के कारण इधर-उधर भटकने से बचा सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 24 जुलाई 2025

घर मनुष्य की पहचान

घर मनुष्य की पहचान

मनुष्य जिस घर में रहता है, उसी से उसकी पहचान होती है। उसके घर में की गई सजावट को देखकर ही उस व्यक्ति विशेष के बारे में दूसरे लोग अपनी राय बनाते हैं। उस घर की कलात्मक साज-सज्जा को देखकर यह ज्ञात कर सकते हैं कि वहाँ रहने वाले लोग किस रुचि के हैं। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि उस घर में रहने वाले लोग प्राचीन वस्तुओं के प्रेमी हैं या कलाकार हैं अथवा वहाँ अपनी समृद्धि के अनुसार मूल्यवान वस्तुओं से सजावट की गई है। 
               कुछ लोग समृद्ध होते हैं परन्तु अपने घर में फरनीचर आदि वस्तुओं की सार सम्हाल नहीं करते बल्कि उन्हें यहॉं वहॉं कबाड़ की तरह रख देते हैं। घर यदि सुन्दर बना हुआ है तो भी वहाँ जाने पर मन को अच्छा नहीं लगता। वे घर जहाँ चारों ओर गन्दगी का साम्राज्य होता है। घर का सामान इधर-उधर बिखरा रहता है। वहाँ घुसते ही ऐसा लगता है कि कहाँ आ गए? ऐसे घर में नकारात्मक ऊर्जा विद्यमान रहती है। वहाँ के परिवेश में दम घुटने लगता है और नाक-भौंह सिकुड़ने लगती हैं। मन में उदासीनता बसने लगती है और शीघ्र ही वहॉं से चलने की इच्छा होने लगती है।
             इसके विपरीत कुछ लोगों के घर शीशे की तरह चमकते रहते हैं। हर वस्तु वहॉं पर व्यवस्थित रहती है। ऐसे घर की गृहस्वामिनी की प्रशंसा करने का मन करता है। वहाँ जाने पर मन प्रसन्न होता है। इसलिए वहॉं पर कुछ अधिक समय बैठने का मन करता है। ऐसे घरों में सकारात्मक ऊर्जा का वास होता है। 
            केवल ईंट पत्थरों से बना मकान घर नहीं कहलाता। कंक्रीट का बना वह बेजान घर तब तक ईंट-पत्थर का घर कहलाता है जब तक वहाँ आपसी सौहार्द व मेलजोल न हो। मकान घर तभी बनता है जब परिवार के सभी लोग एक मुट्ठी की तरह आपस में मिलजुल कर रहें। छिटपुट बातें हो भी जाएँ तो उन्हें नजरअंदाज करके प्यार से रहें। माता-पिता की सभी आवश्यकताओं को बच्चे हमेशा पूरा करते हों। कभी दुख-तकलीफ होने पर, उनका ध्यान रखते हों। बहु सास-ससुर को यथोचित सम्मान देने वाली हो और वह समयानुसार कहने से पहले ही उनकी सारी सुविधाओं को जुटाए। 
              घर में बड़े-बजुर्ग अपने अहं को छोड़कर मनमानी न करके सदा अपने बच्चों से सामंजस्य बनाकर चलने वाले हों। उनकी हर समय आलोचना करने के बजाय उनके सिर पर आशीर्वाद भरा हाथ रखने वाले हों। बच्चों की समस्याओं को बड़े-बूढ़े समझकर उनका मजाक बनाने के स्थान पर उनका साथ दें। तभी तो उस घर में सुख-समृद्धि का वास होता है। इन घरों में रहने वाले सदस्य एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करते हैं व उनकी बात का मान रखते हैं। ऐसे घरों के लोगों के विषय में गुरु नानक देव जी की यह उक्ति सटीक है-
'एक ने कही दूजे ने मानी नानक कहे दोनों ज्ञानी।'
इस प्रकार का माहौल यदि घर में हो तो वह घर धरती पर स्वर्ग के समान होता है। हो सकता है घर में भौतिक समृद्धि शायद कम हो पर सुख-शान्ति बनी रहती है।
               इसके विपरीत यदि उस घर में जितने सदस्य हैं, वे सब यदि एक-दूसरे की जड़ें काटने में लगे रहते हों। एक का मुँह पूर्व में हो और दूसरे का पश्चिम में हो। हर रोज, हर समय उस घर में किसी का चीखना-चिल्लाना चलता रहता हो। कोई किसी की शक्ल देखना पसन्द न करता हो। ऐसा घर नरक से भी बदतर होता है। जहाँ सदा कलह-क्लेश व अशान्ति रहती है, ऐसे घर में कितनी भी भौतिक समृद्धि हो सुकून नहीं दे सकती। ऐसा घर नरक के समान होता है। वहॉं कोई भी व्यक्ति आना पसन्द नहीं करता।
              यदि हम चाहते हैं कि हमारी सन्तान आज्ञाकारी हो तो हमें अपने बड़ों के प्रति वैसा ही व्यवहार रखना होगा। कितनी भी सुख-समृद्धि हो, घर का सुख-चैन नहीं खरीद सकती। उसके लिए स्वयं की भावनाओं पर नियन्त्रण रखना बहुत ही आवश्यक होता है। तभी घर के बच्चे भी बड़ों की देखा-देखी उसी की ही अनुपालना करेंगे। उस समय उन्हें सिखाना नहीं पड़ेगा। अब यह हमारे हाथ में है कि हम अपने घर को स्वर्ग के समान सुन्दर बनाना चाहते हैं अथवा नरक के समान कष्ट भोगते हुए जिन्दगी के दिन गिनना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 23 जुलाई 2025

बत्तीस दॉंतों में जीभ

बत्तीस दाँतों में जीभ

बत्तीस दाँतों के मध्य हमारी जीभ सुरक्षित रहती है। इसका कारण है कि दाँत कठोर होते हैं। जब ये निकलते हैं तो भी परेशान करते हैं और जब हमसे विदा लेते हैं तब भी कष्ट देते हैं। कितनी ही कठोर वस्तु क्यों न हो, उसे ये दाँत पल भर में चूरा कर देते हैं। इसी कठोरता के कारण सुख के साथ-साथ दुख का कारण भी बनते हैं। अपने इस कठोर व्यवहार के कारण ये किसी प्रकार का समझौता नहीं कर पाते। तभी आयुपर्यन्त साथ नहीं निभाते बल्कि बीच में ही साथ छोड़कर विदा ले लेते हैं।
             ये सदा ही अकड़कर रहते हैं। झुकना इनके स्वभाव में नहीं है। यह तो ईश्वरीय नियम है कि किसी का भी घमण्ड स्वीकार्य नहीं होता। महाविद्वान रावण का अहंकार हो या भगवान कृष्ण के मामा कंस का हो या अपने को स्वयंभू भगवान मानने वाले हिरण्यकश्यप का अहं हो, सभी नष्ट हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है कि बड़े-बड़े साम्राज्य तक अपनी गर्वोक्तियों के कारण नष्ट हो गए। उनके बारे में मात्र जानकारी ही मिलती है।
              मुँह में रहने वाली यह जीभ लचकदार है इसीलिए समझौता कर लेती और मृत्यु तक मनुष्य का साथ निभाती है। परन्तु यह है तो चमड़े की जो समय-असमय अनायास ही फिसल जाती है और फिर इसका खामियाजा मनुष्य को कभी-कभी तो आयुपर्यन्त भुगतना पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है महाभारतकालीन युद्ध का। द्रौपदी यदि दुर्योधन को कठोर शब्दों से आहत न करती तो शायद उस महाविनाश से बचा जा सकता था। उसमें हुए नुकसान को हमारा देश शताब्दियों बाद भी आज तक भुगत रहा है।
              इसीलिए हमारे बड़े-बजुर्ग कहा करते हैं- 'यह जीभ राज कराती है, नहीं तो मिट्टी में मिला देती है।' मुझे यह सब बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आप सभी  सुधी जन जानते हैं कि इतिहास भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से।
              यह जीभ बड़ी ही चटोरी है। यह एक ऐसी इन्द्रिय है जिसको वश में करना बहुत आवश्यक है। परन्तु हम सभी इसके चटोरेपन के झॉंसे में आ जाते हैं। यह जब तब हमें स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए ललचाती रहती है। जहाँ पर चटपटा व्यंजन देखा इसकी लार टपकने लगती है। इसकी इसी बुरी आदत के कारण ही बहुधा मनुष्य को मुसीबतों का सामना करना पड़ता है। आप सभी यही प्रश्न करेंगे कि यह कैसी बात कह रही हो? यह कैसे सम्भव हो सकता है? 
            इसके उत्तर में यही कह सकती हूँ कि हर खाद्य पदार्थ हर व्यक्ति को सूट नहीं करता। कई अपरिहार्य कारणों से हमें किन्हीं खाद्यान्नों को खाने के लिए डाक्टर मना करते हैं पर यह हमारी जीभ माने तब न। हमें ललचाती रहती है और हम उन को खाकर और अधिक बीमार व लाचार हो जाते हैं। जब रोग बढ़ता है तब पछताते हैं कि काश समय रहते गलत खानपान से परहेज करते तो स्वस्थ रहते। डाक्टरों के पास जाकर पैसा व समय बरबाद न करते।
              सादा भोजन खाने के बजाय चटपटा भोजन चटखारे ले-लेकर खाना इसका स्वभाव है। इसके चटोरेपन को शान्त करने के लिए मनुष्य अथक प्रयास करता रहता है। आजकल जंक फूड का फैशन बन गया है। यह जंक फूड खाने में बहुत स्वादिष्ट होता है। सबसे बढ़ी बात यह है कि खाना पकाने के लिए रसोई में पसीना नहीं बहाना पड़ता।इसका प्रचलन बढ़ता जा रहा है। यह घर के सादे और सुपाच्य भोजन की अपेक्षा अधिक स्वादिष्ट होता है। इसे कभी-कभार तो खाना ठीक है। परन्तु इसे अपनी आदत बना लेना सर्वथा अनुचित है। यह जंक फूड खाकर हम अनजाने में ही रोगों को न्योता दे बैठते हैं। 
             मनुष्य सारे पाप-पुण्य इसी जीभ के स्वाद के कारण ही करता रहता है। चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार कालाबाजारी और किसी का गला काटना आदि कुकर्म करने से यह मनुष्य स्वयं को रोक नहीं पाता। इसका अन्त विनाशकारी होता है। जहॉं तक हो सके हमें इन दुष्कर्मों से बचना चाहिए। अपने जीवन को सच्चाई के मार्ग पर चलना चाहिए। ताकि जीवन के अन्तकाल में पश्चाताप करने अथवा क्षमा याचना करने की आवश्यकता ही न पड़े।
               हमें यथासम्भव दाँतों की तरह कठोर न बनकर फलदार वृक्ष की तरह झुकने की प्रवृत्ति वाला बनना चाहिए। तभी हम अधिक समय तक सरवाइव कर सकते हैं। हमें जीभ की तरह नरम व लचीला होना चाहिए ताकि जीवन भर साथ निभा सकें। जीभ उ पट्टकी तरह लालची या स्वाद का गुलाम नहीं बनना चाहिए। इससे मनुष्य जीवन में हम अनचाहे ही दुखों-परेशानियों को बुलावा या न्यौता दे देते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

चेतावनी देता ईश्वर

चेतावनी देता ईश्वर 

हम बेसुध होकर सोते रहते हैं और ईश्वर हमें जगाने के लिए बारबार चेतावनी देता रहता है। सुख-दुख के रूप में वह हमें अहसास कराता है कि इस संसार में मेरी भी सत्ता है। उसे कभी चुनौती देने की गलती मत करना। परन्तु हम सब तो ऐसे अवज्ञाकारी बच्चे हैं जो पुनः पुनः उसकी महानता से मुख मोड़ लेते हैं। हम सोचते हैं उसकी ओर से ध्यान हटा लेने से अथवा विमुख हो जाने से जैसे उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। 
            सुख, शान्ति व ऐश्वर्य मिलने पर हम उसे पूरी तरह नकार देते है। हम बड़े अभिमान से कहते हैं कि मैंने मेहनत की और अपने लिए सुख के सभी साधन जुटा लिए। उस समय मनुष्य अपने झूठे अहं के चलते यह भूल जाता है कि संसार में जो कुछ भी है, वह सब कुछ उस मालिक के अधीन है। उसकी इच्छा के बिना वह एक पत्ता भी नहीं  हिल सकता। मनुष्य यदि चाहे भी तो एक कदम आगे नहीं बढ़ा सकता। न ही मनुष्य अपनी इच्छा से एक श्वास ले सकता है।
             इसके विपरीत दुख की स्थिति में वह मालिक को गिला-शिकवा करने से नहीं चूकता। उसे अपने दुखों का दाता मानकर उसे कोसता है और गाली तक दे देता है। मनुष्य अपने ही समान परमात्मा को समझता है। उस परम न्यायकारी परमेश्वर वह पर पक्षपात करने का आरोप तक लगा बैठता है। कबीरदास जी के इस दोहे को आत्मसात करना आवश्यक है- 
     दुख में सिमरन सब करें सुख में करे न कोय।
    जो सुख में सिमरन करे तो दुख काहे को होय॥
अर्थात् दुख में सभी भगवान को याद करते हैं, सुख में कोई नहीं करता। यदि सुख में भी भगवान को याद किया जाए, तो दुख नहीं होगा। 
             इसका मतलब है कि लोग अक्सर केवल दुख की घड़ी में ही भगवान को याद करते हैं। जब सुख का समय आता है तब उसे भूल जाते हैं। यदि सुख में भी भगवान को याद किया जाए तो दुख का अनुभव शायद कम होगा या नहीं होगा। भगवत स्मरण से दुख या कष्ट कटते नहीं हैं, उन्हें तो भोगना ही पड़ता है। परन्तु मनुष्य को उन्हें सहन करने के लिए आत्मिक बल प्राप्त होता है।
               अब यह विचारणीय है कि वह ईश्वर हमें आगाह कैसे करता है? किस प्रकार चेतावनी देता है? किसी भी अच्छे या गलत कार्य को करने पर वह हमें अन्तस की आवाज के रूप में चेतावनी देता है। दूसरे शब्दों में हम उसे अन्तरात्मा की आवाज भी कह सकते हैं। वह हमें हमारे इच्छित कार्य को उत्साहपूर्वक करने अथवा न करने की प्रेरणा देता है। इस प्रकार हमारा मार्गदर्शन कराता है। हम ऐसे नासमझ हैं कि उस चेतावनी को अनसुना कर कष्ट भोगते हैं।
              उसने इस संसार में हमें इसलिए भेजा है कि हम उसको याद करते हुए, डरते हुए सत्कर्म करें। जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करें। हम सारा जीवन स्वयं को बहलाते रहते हैं। उसकी पूजा-अर्चना न करने के हास्यास्पद बहाने खोजते हैं। कभी कम वय का, कभी किसी कार्य विशेष के पूरा होने की प्रतीक्षा को हथियार बनाने की नाकाम कोशिश करते हैं। सबसे अच्छा दिल हम यह कहकर बहलाते हैं कि अभी समय नहीं है ईश्वर का भजन करने का। जब बुढ़ापा आएगा तब उसका नाम जप लेंगे।
              इस प्रकार की बातें करते हुए मनुष्य भूल जाता है कि बुढ़ापे में भी नाम तभी ले सकेंगे जब हम जवानी या बचपन में उसे स्मरण करेंगे। यदि बुढ़ापे को हम सीमा बनाएँगे तो उसका स्मरण कभी सम्भव नहीं हो पाएगा। वृद्धावस्था में शरीर अशक्त होने लगता है और इन्सान अपनी बिमारियों में ही उलझा रहता है। उस समय वह ईश्वर का नाम जपने की स्थिति में नहीं रहता।
             ईश्वर समय-समय पर चेतावनी देता रहता है और कहता है, जागो बहुत हो गया है अब मेरी शरण में आओ, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। वह हमारे कर्मानुसार कष्टों की भट्टी में हमें झौंकता है। फिर भी हम उसको क्षणिक ही याद करते हैँ और फिर भूल जाते हैं। 
               ईश्वर बार-बार हमें चेतावनी देता है। सबसे पहली चेतावनी होती है बालों में सफेदी आना। उसका अर्थ होता होता है कि अब होश में आ जाओ। पर हम बालों को रंगकर उस मालिक को बहकाते हैं। तत्पश्चात आँखें कमजोर होना भी एक प्रकार से चेतावनी होती है। तब हम ऑंखों पर चश्मा लगाकर उसे झूठा सिद्ध करने का असफल प्रयास करना चाहते हैं। दाँतों का गिरना भी उसका चेताने का ही एक रूप होता है। हम बहुत समझदार हैं जो दाँतो का डेंचर (नकली दाँत) लगाकर उसकी सत्ता को चुनौती देने की हिमाकत करते है। अन्तिम चेतावनी श्रवण शक्ति कमजोर होना होती है। परन्तु हम यहाँ भी कानों में मशीन लगाकर बस झुठलाने का यत्न भर ही करते हैं।
               इस प्रकार स्वयं को छलावे में रखकर सम्पूर्ण जीवन व्यर्थ कर देते हैं पर मन से उसका स्मरण नहीं करते। हम बहुत ही सधे हुए कलाकार हैं जो उसकी भक्ति करने के प्रदर्शन करने का कोई मौका नहीं गॅंवाते।
            अन्त में मैं यही कहना चाहती हूँ कि ईश्वर की उपासना व्यक्तिगत आस्था का विषय है। परन्तु फिर भी सच्ची श्रद्धा से और भावना से उसे स्मरण करना चाहिए। क्योंकि वह दिखावे का नहीं बल्कि हमारे भाव का भूखा है। उसको सच्चे हृदय से याद करने से ही हमें सच्चा सुख व मानसिक शान्ति मिलती है। ईश्वर का निरन्तर निष्काम ध्यान जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 21 जुलाई 2025

प्रेम का व्यवहार

प्रेम का व्यवहार

प्रत्येक जीव से प्रेम का व्यवहार करना चाहिए। महत्मा बुद्ध का कथन है- 
        'समस्त प्राणियों से प्रेम करना ही 
            सच्ची मनुष्यता है।'
           छोटी-छोटी बातों को अपने अहं के कारण तूल नहीं देना चाहिए और न ही एक-दूसरे से नाराज होकर सम्बन्धों को दाँव पर लगाना चाहिए। यदि भावावेश में सम्बन्ध-विच्छेद किया जाए तो उनमें जुड़ाव होना कठिन हो जाता है। यदि उन्हें पुनः जोड़ने का प्रयास किया जाए तो मन में एक कसक रह जाती है। इसी विचार का रहीम जी ने बहुत सुन्दर शब्दों में विवेचन किया है-
     रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
     टूटे से फिर न जुरे, जुरे  गाँठ  परि  जाय॥
अर्थात् रहीम जी के इस प्रसिद्ध दोहे का अर्थ है कि प्रेम का रिश्ता बहुत नाजुक होता है, उसे झटके से नहीं तोड़ना चाहिए। एक बार अगर प्रेम का धागा टूट जाता है तो फिर वह आसानी से जुड़ता नहीं है। और यदि जुड़ भी जाए तो उसमें गॉंठ पड़ जाती है। यानी रिश्ता पहले जैसा नहीं रहता। 
            टूटकर जुड़े सम्बन्धों में पूर्ववत् मधुरता नहीं रह जाती बल्कि अविश्वास का एक काँटा मन में गड़ा रहता है। अतः जहाँ तक हो सके यत्न यही करना चाहिए कि सम्बन्धों में खटास न आने पाए। अपने अहं को दरकिनार करके रूठे हुओं को मना लेना चाहिए। इससे जीवन में कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ता।
           पारिवारिक व सामाजिक जीवन में प्रेम एक पुल का कार्य करता है। जहाँ यह पुल टूटा वहीं पारिवारिक विघटन की सम्भावना बढ़ जाती है। ये रिश्ते जितना हमारा सम्बल बनते हैं, उतने ही नाजुक भी होते हैं। बड़ी सूझबूझ से इनको निभाना होता है। जरा सी लापरवाही होने पर इनमें दरार आने लगती है। रिश्तों के विषय में कहा जाता है कि वे कच्चे धागों से बंधे होते हैं। कितने सुन्दर शब्दों में इसी भाव को निम्नलिखित दोहे में रहीम जी ने समझाया है-
       रूठे  सुजन  मनाइए जो रूठें सौ बार।
      रहिमन फिर फिर पोइए टूटे मुक्ताहार॥
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि यदि कोई प्रियजन सौ बार भी रूठे, तो उसे मना लेना चाहिए। जैसे मोतियों की माला जब टूट जाती है तो मोतियों को फेंक देने की बजाय उसे फिर से धागे में पिरोया जाता है। 
            आज रिश्तों में पारदर्शिता न होकर स्वार्थ हावी हो रहा है। भौतिक युग में धन प्रधान होता जा रहा है। नजदीकी रिश्तों को भी स्वार्थ के तराजू में तौला जाने लगा है। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है तब तक सम्बन्ध बने रहते हैं। ऐसे सम्बन्ध लम्बे समय तक नहीं चलते। स्वार्थ की पूर्ति होते ही तथाकथित आपसी सौहार्द समाप्त हो जाता है। फिर एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं हैं।
             सभी रिश्ते अपने-आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। परिवार, सम्बन्धी, मित्र और पड़ोसी सभी को हम प्रेम से अपना बना सकते हैं। और तो और शेर जैसे खूँखार जीव को भी अपने वश में कर सकते हैं। समाज के उपेक्षित वर्ग में भी यदि हम प्यार बाँट सकें तो वे भी हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे। कबीर दास जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में प्रेम की व्याख्या करते हुए कहा है-
    पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय।
    ढाई  आखर  प्रेम  के  पढ़ै  सो  पण्डित  होय॥
अर्थात् कबीरदास का प्रसिद्ध दोहा है जिसका अर्थ है कि संसार में लोग मोटी-मोटी किताबें पढ़ते-पढ़ते मर जाते हैं, पर ज्ञानी नहीं बन पाते। सच्चा ज्ञानी वही है, जिसने प्रेम के ढाई अक्षर का अर्थ समझ लिए हैं।
           सबके साथ समानता का व्यवहार करने से सभी नाजुक रिश्ते बने रहते हैं। किसी को भी त्यागना उचित नहीं। आश्चर्य होता है कि यह देखकर कि लोग दूसरों से दोस्ती गाँठते हैं, उनके साथ तो सम्बन्ध बनाते हैं पर अपने भाई-बहनों से बात करके राजी नहीं होते। उनका चेहरा तक नहीं देखना चाहते। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उनसे वे नफरत करते हैं।
              ईश्वर भी हमसे प्रेम की अपेक्षा रखता है। जो संसार को पैदा करता है व उसे सभी नेमतें देता है उसे हमसे कुछ भी नहीं चाहिए। पर वह यह भी नहीं चाहता कि उसकी बनाई सृष्टि में हम नफरत फैलाएँ। प्रेम के कारण ही भगवान राम ने शबरी के झूठे बेर खाए। भगवान कृष्ण ने दुर्योधन के राजसी छप्पन भोग छोड़कर विदुर के घर शाक खाया। धन्ना जाट को प्रभु ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए। अनन्य प्रेम होने पर मनुष्य ईश्वर का प्रिय बनता है तथा रोग-शोक से मुक्त हो जाता है। फिर जन्म-मरण के बन्धनों से  मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 20 जुलाई 2025

सफलता प्राप्ति के ये 20 मन्त्र

सफलता प्राप्ति के ये 20  मन्त्र

जीवन में सफलता प्राप्ति के ये 20 सूत्र कहीं पढ़े थे। इन जीवनोपयोगी सूत्रों को अपने शब्दों में ढालकर आप सुधीजनों के समक्ष रख रही हूँ। इन्हें अपने जीवन में अपनाकर उसे सफल बनाने का यथासम्भव प्रयास कीजिए।
1. अपनी आय से जीवन में खर्च कम हो 
    हमेशा ऐसा यत्न करना चाहिए।
2. बिना किसी पूर्वाग्रह के दिन में कम-से- 
    कम तीन लोगो की प्रशंसा कीजिए।
3. खुद की भूल स्वीकारने में कभी भी
    संकोच मत कीजिए।
4. किसी के सपनों का मजाक बनाकर   
    कभी हँसना नहीं चाहिए।
5. आपने पीछे खड़े व्यक्ति को भी कभी     
    आगे जाने का मौका दो।
6. हो सके तो हररोज सूरज को उगता हुए 
    देखिए अर्थात् प्रातः जल्दी उठिए।
7. बहुत जरूरी हो तभी कोई चीज उधार
    लें अन्यथा नहीं।
8. किसी से कुछ जानना चाहते हो तो
    अपने विवेक से दो बार पूछो।
9. कर्ज और शत्रु को कभी अपने ऊपर
    हावी मत होने दीजिए।
10. ईश्वर पर पूरा भरोसा रखिए।
11. ईश्वर से प्रार्थना करना कभी मत भूलिए 
      क्योंकि प्रार्थना में अपार शक्ति होती है।
12. हमेशा अपने काम से मतलब रखना
      चाहिए, दूसरों के काम में दखल नहीं
      देना चाहिए।
13. समय बहुत अधिक मूल्यवान है, जहाँ
      तक सम्भव हो इसे व्यर्थ के कामों में
      नहीं गॅंवाना चाहिए।
14. जो आपके पास है, उसी में खुश रहना
      सीखिए।
15. किसी की बुराई कभी भी मत कीजिए 
      क्योंकि बुराई नाव में हुए छेद के समान
      होती है। छेद छोटा हो या बड़ा नाव 
      को डुबो ही देता है।
16. हमेशा सकारात्मक सोच रखने से
      सफलता मिलती है।
17. हर व्यक्ति कोई न कोई हुनर लेकर
      इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। बस उस
      हुनर को तराशकर व संवारकर दुनिया के
      समक्ष लाने का प्रयास करिए।
18. कोई भी काम छोटा नहीं होता, हर काम
      बड़ा होता है। सदा यह सोचिए कि जो
      काम आप कर रहे हैं अगर वह काम
      आप नहीं करते तो दुनिया पर क्या
      उसका क्या प्रभाव होता?
19. सफलता उन्हीं को मिलती  है जो कुछ
      कर गुजरने की हिम्मत रखते  हैं।
20. कुछ पाने के लिए कुछ खोना नहीं
      पड़ता बल्कि कुछ करके दिखाना
       होता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

बच्चे कच्ची मिट्टी के समान

बच्चे कच्ची मिट्टी के समान

बच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। उन्हें जैसा भी रूप हम देना चाहते हैं, उन्हें उसी साँचे में ढालना पड़ता है। इसे हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जैसा माता-पिता अपने बच्चों को बनाना चाहते हैं वैसे ही वे बन जाते हैं। बच्चा जब इस संसार में अपनी आँख खोलता है तभी से ही उसकी शिक्षा अथवा ट्रेनिंग आरम्भ हो जाती है। उसके दूध पीने, सूसू-पाटी आदि की ट्रेनिंग शुरु होती है। ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगता है तब बैठना-उठना, खान-पान, चलना आदि सिखाया जाता है। फिर और बड़ा होने पर स्कूली शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार एक बच्चा आयुपर्यन्त कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है।
             बच्चे को जैसा परिवेश अपने घर-परिवार में मिलता है वैसे ही वह बनता है। यानी जैसे संस्कार उसे घर-परिवार में मिलते हैं, वह उसी सॉंचे में ढल जाता है। इसलिए माता-पिता को सबसे पहले स्वयं पर ध्यान देना आवश्यक है। ऐसा न हो कि बच्चा वह सब कुछ सीख ले जो हम उसे नहीं सीखाना चाहते। यदि बच्चे को बचपन में उचित दिशानिर्देश मिल जाए तो वह निश्चित ही सभ्य समाज का एक अटूट हिस्सा बनता है, उसकी नफरत का नहीं।
            बच्चे की सबसे पहली पाठशाला उसका घर होता है। अपने घर में जैसा देखता है, जैसा सुनता है, उसे ही ब्रह्म वाक्य मान लेता है। घर में उसे झूठ का व्यवहार दिखाई देता है तो उसे झूठ बोलने में बिल्कुल भी बुरा नहीं लगता। इसी तरह जब घर में सबको एक-दूसरे से छिपाव-दुराव करते देखता है तो अपनी गलतियाँ छुपाने लगता है। फिर धीरे-धीरे बहाने बनाने में निपुण बन जाता है। घर में पीठ पीछे एक-दूसरे की बुराई सुनकर अपना उल्लू सीधा करना सीख जाता है।
              कई बार माता-पिता अत्यधिक लाड़-प्यार में बच्चों को बचपन में बिगाड़ देते हैं। ऐसे बच्चे बड़े होकर स्वच्छन्द हो जाते हैं और कुमार्गगामी हो जाते हैं। बच्चे जब माता-पिता के हाथ से निकल जाते हैं तब उन्हें दोष देने से बात नहीं बनती। ये बच्चे अपने घर-परिवार के लिए सिरदर्द बन जाते हैं और समाज के लिए अभिशाप। तब माता-पिता उन्हें दुत्कारते हैं व अपने भाग्य को कोसते हैं। जब तक पानी सिर से निकल जाता है तब कुछ भी कर पाना असम्भव-सा हो जाता है।
             ऐसे बच्चे जो बच्चे किसी भी कारण से बचपन में ही बिगड़ जाते हैं, वे अपने माता-पिता की पहुँच से बहुत दूर निकल जाते हैं। तब उन्हें वापिस लौटाना नामुमकिन तो नहीं पर कठिन अवश्य हो जाता है।
            सोशल मीडिया, समाचार पत्र व टीवी चैनल ऐसे बच्चों के कुकर्मों को उजागर करते रहते हैं जिनके माता-पिता उच्च पदों पर आसीन हैं अथवा बड़े-बड़े व्यापारी हैं या सम्भ्रान्त कुल के होते हैं। ये वही बच्चे होते हैं जिन्हें अतिमोह के कारण अनावश्यक लाड़-प्यार में माता-पिता बचपन में ही बिगाड़ देते हैं। उनकी जायज व नाजायज माँगों को न कहने के बजाय बिना परिणाम सोचे पूरा करते हैं। यही बच्चे बड़े होकर देश व समाज विरोधी गतिविधियों में कब लिप्त हो जाते हैं, उन मासूम बच्चों को स्वयं ही पता नहीं चलता और वे समाज के अपराधी बन जाते हैं।
            वास्तव में हम बड़े लोगों को अपने गिरेबान में झाँकने की आवश्यकता है। छोटा बच्चा अपने आसपास के माहौल को बड़ी बारीकी से देखता है। उससे बहुत कुछ सीखता और समझता है। इस आयु में जो उसके विचार बन जाते हैं, वे उसके मन की कोरी स्लेट से आजीवन मिट नहीं पाते। इसलिए प्रत्येक माता-पिता को अपने आचरण में सावधानी बरतनी चाहिए। बच्चे के सामने ऐसी चर्चा करने से माता-पिता को बचना चाहिए जिसका दुष्प्रभाव उस पर गहरे से पड़े।
              यह बात हम सबको अवश्य याद रखनी चाहिए कि इस संसार में बच्चा जब जन्म लेता है तब वह मासूम होता है। इस दुनिया के छल प्रपंचो से अनजान होता है। तभी बच्चों के मन को सच्चा कहते हैं। उन्हें छल-कपट के संस्कार हमीं लोग देते हैं। उन भोले-भाले मासूम बच्चों पर यदि हम अपनी ही महत्त्वाकॉंक्षाओं का अनावश्यक दबाव नहीं डालेंगे, तभी उनका चहुँमुखी विकास सम्भव हो सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 16 जुलाई 2025

'द' शब्द का उपदेश

'द' शब्द का उपदेश 

उपनिषद में एक कथा आती है कि एक बार देवता, असुर और मनुष्य सभी मिलकर प्रजापति के पास गए। उन्होंने उनसे उपदेश देने के लिए कहा। प्रजापति ने उन सबको केवल 'द' शब्द का उपदेश दिया। तीनों ने उस शब्द का अर्थ अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लगाया।
              देवताओं ने 'द' शब्द से संयम अर्थ लिया। असुरों ने इस 'द' शब्द से अर्थ समझा दया। मनुष्यों ने 'द' शब्द का अर्थ निकाला दान। एक ही शब्द के तीन अलग-अलग अर्थ यह बताते हैं कि मनुष्य अपनी-अपनी योग्यता व बौद्धिक क्षमता के अनुसार ही किसी शब्द का अर्थ ग्रहण करते हैं।
             यह एक प्रतीकात्मक कथा है। दैवी, आसुरी और मानवी ये सभी शक्तियाँ हमारे अपने अन्तस में विद्यमान रहती हैं। इन शक्तियों में से कभी किसी का पलड़ा भारी हो जाता है तो कभी किसी का। जिस समय जो गुण मनुष्य पर हावी होता है, तदनुसार मनुष्य वर्ताव करने लगता है।
            दैवीय गुण जब मनुष्य में प्रधान होते हैं तब वह देवता तुल्य हो जाता है। उस समय उसे अपने कदम फूँक-फूँक कर रखने पड़ते हैं। वह संयमित जीवन व्यतीत करने लगता है। यदि वह अपने संयम से परे हो जाए तो उसका पतन निश्चित होता है। ऐसे दैवीय गुणों वाला व्यक्ति समाज का दिग्दर्शक होता है। अपनी आध्यात्मिक उन्नति के साथ-साथ समाज के निर्माण का कार्य भी वह करता है। 
          ये लोग परोपकारी होते हैं। अपना सर्वस्व दूसरों के लिए न्योछावर कर देने से परे नहीं हटते। दुखियों व पीड़ितों के लिए ये लोग छायादार वृक्ष के समान होते हैं। उनके पास जाकर लोगों को हर प्रकार से मानसिक शान्ति मिलती है।
            अब प्रश्न उठता है कि देवतुल्य व्यक्ति को प्रजापति के द्वारा संयम का उपदेश क्यों दिया गया? इसका सीधा-सा अर्थ है कि संसार में आकर्षण इतने अधिक हैं कि उसे अपने चरित्र की रक्षा करनी पड़ती है। नहीं तो वह भी समय की धारा में बहता हुआ तथाकथित सद्पुरुषों की भाँति दूसरों के धन का हरण करने वाला, धोखेबाज, भ्रष्टाचारी, कालाबाजारी करने वाला, हेराफेरी करने वाला बन सकता है। ऐसा करने पर ये फिर समाज में कलंक की तरह हो जाएँगे। उनका देवत्व तो नहीं बच सकेगा। इसलिए अपने जीवन को संयमित बनाना ही उनके लिए आवश्यक हो जाता है। तभी उनके लिए द(दमन) उपदेश की सार्थकता होती है।
              असुर यानी आसुरी विचार हमारे मन में विद्यमान रहते हैं। वे सदा शार्टकट का सहारा लेना चाहते हैं। हड़बड़ाहट में उल्टे- सीधे कार्य करते हैं। प्रायः समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त रहना पसन्द करते हैं। स्वेच्छाचारी उनको न अपनों का डर होता है न समाज का। वे दूसरों को कष्ट देकर आत्मतुष्टि प्राप्त करते हैं। दूसरों की आँख की किरकिरी ये लोग घर-परिवार, देश व समाज के शत्रु होते हैं। न इनकी दोस्ती अच्छी होती है और न ही इनकी दुश्मनी। जहाँ तक हो सके इनसे किनारा करना ही श्रेयस्कर होता है। इनके लिए द(दया) का उपदेश बिल्कुल जरूरी है।
              तीसरे नम्बर पर हैं मनुष्य यानी कि मानुषी प्रवृत्ति। मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं- दया, ममता, सौहार्द आदि। मानवोचित गुण होने से ही समाज में भाईचारा बना रहता है। सामाजिक, धार्मिक, घर-परिवार व देश व समाज के सभी कार्य सुचारू रूप से चलते रहें इसके लिए हर कदम पर धन की आवश्यकता होती है। तभी मनुष्यों को द(दान) करने का उपदेश दिया।
            यह सांकेतिक कथा अपने में इतनी गहराई समेटे हुए है। हम तो इसे कथा की तरह पढ़-सुनकर आनन्द लेते हैं। परन्तु यह हमारे गहन भावों को झकझोर देती है। हमें मनन करने के लिए विवश करती है कि हम देवतुल्य बनकर अमर होना चाहते हैं अथवा असुर बनकर मुँह छिपाते रहना चाहते है या फिर मनुष्य बनकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 15 जुलाई 2025

जैसे कर्म वैसे फल

जैसे कर्म वैसे फल

      बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाए।  
             यह उक्ति हमें समझा रही है कि यदि हम बबूल का पेड़ बोते हैं तो उससे हम कदापि आम का स्वादिष्ट व रसीला फल प्राप्त करके नहीं खा सकते। उसके लिए आम का बीज बोकर ही हमें आम का पेड़ लगाना पड़ेगा। बबूल के पेड़ से तो बस काँटे ही मिलेंगे मीठे फल नहीं। आम का पेड़ देर से फल देता है। वह मीठे फल व शीतल छाया केवल पेड़ लगाने वाले को ही नहीं देता बल्कि सभी को देता है जो उसके सम्पर्क में आते हैं। 
           इसी प्रकार सद् विचारों वाले लोगों के सम्पर्क में आने वालों को भी उनकी अच्छाई का फल मिलता है। बबूल की तरह कष्टदायी जनों के सम्पर्क में आने वालों को कॉंटे ही मिलते हैं। कर्मों की मण्डी इस संसार में मनुष्य जैसा कर्म करता है या जैसा बीज बोता है वैसा ही फल उसे मिलता है। उसी प्रकार जीवन में हम अच्छे कर्म करेंगे तभी सुख, शान्ति व समृद्धि मिलेगी। यदि हम सद् कर्म नहीं करेंगे तो निश्चित ही दुखों व कष्टों का सामना करना ही पड़ेगा। 
            इसीलिए मनीषी यह कहते हैं-
            जैसी करनी वैसी भरनी
इसका सीधा-सा अर्थ है कि मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के साथ करेगा वैसा ही व्यवहार उसे बदले में मिलेगा। अथवा जैसा कर्म करता है वैसा ही फल भोगता है। 
             हमें वही मिलता है जो जीवन में हम दूसरों के साथ बाँटते हैं। दूसरों के साथ विष साझा करेंगे तो हम अमृत पाएँगे ऐसी कल्पना करना ही व्यर्थ है। हमें अमृत तभी मिलेगा जब हम दूसरों को अमृत पिलाएँगे। हम भगवान शिव नहीं हैं जो विषपान करके भी सबको अमृत देंगे। संसार में हम अपने लिए सभी से मधुर व्यवहार की अपेक्षा करते हैं पर स्वयं इसके विपरीत आचरण करते हैं। तब ऐसा सोचना कि हमारे साथ सब अच्छा होगा सर्वथा अनुचित है। लेने और देने दोनों के बाट एक जैसे होने चाहिएँ तभी परस्पर सौहार्द बना रह सकता है। अन्यथा उलाहने ही शेष रह जाते हैं। सबके साथ समभाव रखकर चलने से ही व्यवहार में सन्तुलन बना रहता है। 
              हम अगर चारों ओर खुशियाँ बाँटेंगे तो ईश्वर की कृपा से हमारी झोली में भी खुशियाँ ही आएँगीं। इसके विपरीत यदि हम स्वार्थ, नफरत या ईष्या-द्वेष की खेती करेंगे तो फिर उसी की फसल काटेंगे। निश्चित ही हमें भी दूसरों से स्वार्थ व नफरत का व्यवहार ही मिलेगा। उस समय हमारे साथी दूसरों के प्रति किए गए दुर्व्यवहार बनते हैं दया, ममता, सौहार्द और प्रेम आदि सद् व्यवहार हमारा साथ नहीं देते। 
             ऐसी स्थिति आने पर हम सिर धुनकर पछताते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है कि यह सारा जमाना हमारा दुश्मन हो गया है। कोई भी हमें प्यार नहीं करता, हमें नहीं चाहता। यह सब सोचते हुए हम धीरे-धीरे अवसाद का शिकार होने लगते हैं।फिर शुरू हो जाते हैं डाक्टरों के चक्कर। समय और पैसे की बरबादी के साथ-साथ स्वास्थ्य की हानि भी होती है। यह स्थिति हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होती है।
              ऐसे समय में हम पानी पी-पीकर सभी बन्धु-बान्धवों को कोसते हैं। सबका खून सफेद होने का रोना रोते हैं परन्तु अपने गिरेबान में झाँकने का प्रयास ही नहीं करते। हम दूसरों के साथ अपना व्यवहार कैसे रखते हैं? इस बारे में कभी सोचना ही नही चाहते।
              हमारी परिकल्पना किस तरह के समाज, परिवार अथवा देश का निर्माण करने की है? यह हम पर निर्भर करता है। जैसा भी हम चाहते हैं उसके लिए प्रयत्न भी तो हमीं को ही करना पड़ेगा। यदि हम चारों ओर सुख, शान्ति, समृद्धि व सौहार्द का साम्राज्य बनाना चाहते हैं तो इन्हीं भावों को सबके साथ बाँटना होगा। इस दिशा में हमारा आगे कदम बढ़ाना तभी सार्थक हो सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 14 जुलाई 2025

दूसरे की थाली का लड्डू

दूसरे की थाली का लड्डू

      दूसरे की थाली में रखा हुआ लड्डू 
      हमेशा हमें बड़ा दिखाई देता है। 
यह उक्ति हम सब लोग सुनते और कहते रहते हैं। हमने कभी इस विषय पर विचार ही नहीं किया कि अपनी थाली में रखा हुआ लड्डू हमें छोटा क्यों दिखाई देता है? जबकि सभी लड्डू एक ही आकार के आए होते हैं। यहॉं किसी के साथ पक्षपात वाली कोई बात ही नहीं है। बच्चे तो प्रायः ऐसा कहते हैं। जब माता-पिता बच्चों को कोई वस्तु देते हैं तब उन्हें अपने बहन-भाई की वह चीज अधिक अच्छी लगती है। खाने की कोई वस्तु उन्हें दी जाए तो वे अपने माता-पिता पर आरोप लगाते हैं कि दूसरे भाई या बहन को अधिक दिया है। वह उनका प्रिय है आदि कहकर अपना‌ रोष प्रकट करते हैं।
             जहाँ तक मुझे समझ में आता है इसका अर्थ यह है कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो कभी किसी भी स्थिति में सन्तुष्ट नहीं होता। उसे अपना धन-दौलत, ऐशो-आराम, गाड़ी, नौकर-चाकर आदि सब कम लगते हैं। दूसरों की हर वस्तु उसे अपनी वस्तुओं से अधिक दिखाई देती हैं। कभी-कभी तो हद तब हो जाती है जब वह किसी पड़ोसी, मित्र या सम्बन्धी की कोई नई खरीददारी देखता है। उसी समय उसकी होड़ करते हुए बिना समय गॅंवाए, उस वस्तु को तुरन्त ही खरीदने के लिए लालायित हो जाता है।
             उस वस्तु को खरीदने के लिए चाहे उसके पास साधन ही न हों। उसे पाने के लिए वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाता है। चोरी-डकैती, लूटमार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, कालाबाजारी, टैक्सचोरी जैसे अपराध करने से वह बाज नहीं आता। जिन सभी अपराधों को वह कभी गलत मानता था या जिन्हें अपराध की श्रेणी में गिनता था, लालचवश उसी कुत्सित डगर पर बिना कुछ सोचे खुशी-खुशी चल पड़ता है।
               इस तरह दूसरों की होड़ करते हुए वह और-और पाने की चाह करता रहता है जो कभी समाप्त नहीं होती। एक वस्तु को जब वह किसी के पास देख लेता है तो उसके पीछे दिन-रात भागता है। उसे पाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है और हासिल कर लेता है तो फिर दूसरी को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। इस तरह एक के बाद एक लालच मनुष्य को घेरता रहता है। यह लालच उसे अपने जाल में ऐसा फंसाता है कि मनुष्य जितना उससे बाहर निकलने का  प्रयत्न करता है उतना ही उसमें और अधिक उलझता जाता है। 
            इस उलझन को सुलझाने के लिए कहीं तो सीमारेखा खींचनी पड़ती है। प्रश्न  यह उठता है कि वह सीमा कौन निर्धारित करेगा? इस सीमा को हमें स्वयं ही तय करना है। आखिर हमें कभी तो इस भटकन से छुटकारा पाना ही होगा। नहीं तो सारा जीवन अशान्त ही रहना पड़ेगा।
            यदि मनुष्य के मन में सन्तुष्टि का भाव आ जाए तो वह भटकन से बच सकता है। सन्तोष ऐसा धन है जो किसी को मिल जाए तो उसे कोई लालच नहीं घेरता। है सन्तोषी मनुष्य दुनिया का सबसे धनी व्यक्ति बन जाता है। तुलसीदास जी के इस दोहे को देखिए-
     गोधन गजधन बाजिधन और रत्नधन खान।
     जब आए सन्तोष धन सब धन धूरि समान॥
अर्थात् तुलसीदास कहते हैं कि मनुष्य के पास भले ही गाय रूपी धन हो, गज यानी हाथी रूपी धन हो, वाजि यानी घोड़ा रूपी धन हो, रत्न यानी धन-सम्पत्ति का अकूत भण्डार हो, फिर भी उसकी सन्तुष्टि कभी मिटने वाली नहीं होती। वह कभी भी सन्तुष्ट नहीं हो सकता। ये सभी धन उसे जितना प्राप्त होंगे उसकी इनको और अधिक पाने की कामना बढ़ती जाएगी। परन्तु सन्तोष रूपी धन के सामने दुनिया के सभी ऐश्वर्य मनुष्य के लिए धूल के समान हो जाते हैं। फिर उसे किसी दूसरे की थाली की ओर ललचाई नजरों से देखने तक की आवश्यकता नहीं रह जाती।
        मनुष्य मे यह सन्तोष रूपी भाव कब आएगा? यह कहा नहीं जा सकता। आने को तो सौ रुपए कमाकर आ जाए और न आए तो करोड़ रुपए कमाकर भी न आए। मनुष्य जब इस सन्तोष की भावना को आत्मसात कर लेता है तभी सन्तुष्ट हो सकता है। आयु की भी कोई सीमा नहीं। कुछ ऐसे लोग होते हैं जो सारा जीवन किसी न किसी कारण से असन्तुष्ट रहते हैं।
             इस असार संसार में मनुष्य को उतना ही मिलता है जितना उसके पूर्व जन्म कृत कर्मों के अनुसार भाग्य में होता है। उससे अधिक और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। ईश्वर बहुत ही न्यायकारी है। हर किसी को उसके हिस्से का अंश बिना कहे व बिना मॉंगे यथासमय वह देता रहता है। उसके घर इस संसार की तरह अन्धेर नहीं है। उस प्रभु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पण भाव रखने से मन में संतोष की भावना आती है।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 13 जुलाई 2025

मॉं की गोद

माँ की गोद

माँ की गोद ऐसा स्थान है जहाँ पर बैठकर हर बच्चा स्वयं को सबसे अधिक सुरक्षित समझता है। उसे वहॉं ऐसा महसूस होता है कि मानो वह दुनिया का राजदुलारा बन गया है। मॉं की उस गोद में बच्चे को हर प्रकार का सुकून मिलता है। वह कितने भी शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट में क्यों न हो, उसे बस माँ की गोद मिल गई तो मानो उसे स्वर्ग मिल गया। उसे यह अच्छी तरह ज्ञात होता है कि मॉं पलक झपकते ही उसकी परेशानी को जानकर उसे दूर कर देगी। फिर उससे बढ़कर उसे और कुछ भी नहीं चाहिए होता।
              बच्चा जब अपने विद्यालय से दोपहर में थका हारा घर में घुसता है तो वह माँ की तलाश करता है। वह न दिखे तो रोने-चिल्लाने लगता है।उस समय उसे ऐसा लगता है कि मानो उसका सब कुछ खो गया है। इसी प्रकार जब वह आस-पड़ोस, मुहल्ले या विद्यालय में कहीं भी लड़ाई करके या पिटकर आता है तो माँ की गोद में सिर रखकर सुबककर अपनी बेचारगी पर रोना चाहता है। वह जानता है कि उसकी पीड़ा को उसके बिना बताए ही माँ खुद समझ जाएगी। वह कभी उसका मजाक नहीं उड़ाएगी बल्कि उसे सांत्वना देगी और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरेगी।
            बच्चा अपनी माँ को भली-भाँति जानता है। उसे पता है कि घर-परिवार में जब बड़े बच्चे उसे प्रताड़ित करेंगे तब माँ उनका लिहाज नहीं करेगी। वह उन्हें डॉंट-फटकार लगाएगी और उसका पक्ष लेगी। उसके पीड़ित हृदय पर मलहम लगाएगी। इसी प्रकार जब पिता से या घर के किसी अन्य बड़े व्यक्ति से डॉंट या मार खाकर माँ की गोद में आता है तो वहॉं वह सुख व चैन पाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मॉं अपने बच्चे के लिए बरगद का वृक्ष होती है। उसकी छाया में बैठकर वह दीन दुनिया को विस्मृत कर देता है।
            बच्चे की पूरी दुनिया उसकी माँ होती है। उसका संसार अपनी माँ की गोद से आरम्भ होकर वहीं समाप्त होता है। उसके बड़े होने पर उसकी प्राथमिकताएँ जब बदलने लगती हैं तब भी माँ के बिना वह अपने जीवन की कल्पना नहीं कर  सकता। उसका रूठना-मानना और जिद्द करना उसकी माँ के दम पर ही होता है। जो बच्चे अपनी जरूरतों के बारे में डर के कारण अपने पापा से नहीं कह सकते, वे माँ के माध्यम से ही उन्हें पूरी करवाते हैं। उनके और पापा के बीच मॉं एक सेतु का दायित्व निभाती है।
             आज भौतिक युग की आपाधापी के कारण आजीविका हेतु कुछ बच्चे माता-पिता के साथ रहते हैं परन्तु कुछ अन्य बच्चों को रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी में घर से दूर देश अथवा परदेश में रहना पड़ता है। वे सभी रिश्तों को छोड़ सकते हैं पर माँ की ममता और उसके निस्वार्थ प्रेम को कदापि भूल नहीं सकते। मृत्युपर्यन्त मनुष्य अपनी माँ को याद करता रहता है। माँ के इस संसार से विदा हो जाने पर भी वह  प्रतिदिन कितनी ही बार याद करता है। अपनी माँ को 'हाय माँ' कहकर स्मरण करता है।
              यह सांसारिक माँ पर हम इतना प्यार व दुलार लुटाती है और बिनमाँगे अपने बच्चों की सारी आवश्यकताएँ पूरी करती है। हम उस माँ को कैसे भूल जाते हैं जिसने हमें इस संसार में पैदा करके भेजा है। हमें उस मालिक विषय में सोचने की फुर्सत भी नहीं मिलती। उस प्रभु की गोद में विश्राम करने का विचार हमारे मन में क्योंकर नहीं आता। हमारी वह जगत् जननी माँ सदा ही इस प्रतीक्षा में रहती है कि कब उसके बच्चे बाँहे पसारे हुए उसके पास आएँगे और उसकी गोद में सुख व चैन पाएँगे। हम इतने अहसान फरामोश बच्चे हैं जो उसकी सुध ही बिसरा बैठते हैं।                    
             इस संसार में आँखें खोलने के बाद हम धीरे-धीरे इसी दुनिया के होकर रह जाते हैं। उस जगत जननी माँ से दूरी बना लेते हैं। अपने भौतिक रिश्ते-नातों में मस्त हो जाते हैं। स्वार्थों के कारण उसे अपने से दूर कर देते हैं। जब हम उस माँ का दिल दुखाते हैं तो फिर हम सुखी नहीं हो सकते। कष्ट तो हमारे पास आने ही होते हैं। इस जीवन में स्वयं को दुखों-कष्टों से बचाने के लिए और अपने लिए सुख-शान्ति की तलाश करने हेतु तो उस प्रभु की, उस जगत् जननी माँ की महान गोद की शरण लेनी चाहिए। वह खुले दिल से हमारी प्रतीक्षा में बाट जोहती है।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 12 जुलाई 2025

जीवन को सुखी और खुशहाल बनाना

जीवन को सुखी और खुशहाल बनाना

अपने जीवन को सुखी और खुशहाल बनाना हम सबके लिए बहुत ही आवश्यक है। जीवन हमें एक ही बार मिलता है, बार-बार नहीं। इसी जीवनकाल में हम अपने सत्कर्मों के द्वारा जितनी अधिक सुगन्ध चारों ओर फैलाएँगे उतना ही उत्साहित होकर भरपूर जीवन जी सकेंगे। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में दुखी या मायूस नहीं होना चाहता। परन्तु यदि जीवन में उदासीनता छा ही जाएगी तो जीवन भार बन जाता है। फिर इस भार को ढोना हमारी मजबूरी हो जाती है।
             इस सत्य को कोई भी नहीं झुठला सकता कि जीवन भर मनुष्य अंगारों पर चलता रहता है। उसे अनेक दुखों-परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वास्तव में जीवन फूलों की सेज बिल्कुल भी नहीं है। यहॉं कदम-कदम पर काँटे चुभते रहते हैं जो मनुष्य को लहूलुहान करते रहते हैं। फिर भी इस जीवन को तो जीना ही पड़ता है। आत्महत्या करके इस जीवन को समाप्त कर देना, यह कोई हल नहीं हो सकता।
        अपने जीवन को सफलता की ऊँचाई तक ले जाने के लिए बस थोड़ा-सा मन को संतुलित करना है। हर परिस्थिति में यानि सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, निन्दा-प्रशंसा आदि इन विरोधी स्थितियों में सम रहना आवश्यक है। ये सब समय से सबके जीवन में आती रहती हैं। इनसे घबराने के बजाय डटकर मुकाबला करना चाहिए। 
              हमें पुरानी असफलताओं को सदा साथ लेकर नहीं चलना चाहिए बल्कि उनका विश्लेषण करना चाहिएकि हमसे कहाँ चूक हो गई? यदि इस दृष्टि से सोच-विचार करेंगे तब निश्चित ही इसका समाधान खोजना सरल हो सकेगा। उन गलतियों से शिक्षा लेकर हम आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिए मनीषी कहते हैं-
        बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले
अथवा ऐसा भी कह सकते हैं- 
                 रात गई बात गई
कहने का तात्पर्य मात्र यह है कि आने वाली प्रत्येक घटना चाहे वह सुखद हो अथवा दुखद, हमें जीवन में कुछ-न-कुछ अनुभव सिखाकर जाती है। कड़वी यादों को भूलाकर हमें अपने जीवन के अनुभव को समेटकर आगे बढ़ते रहना चाहिए। जीवन तो कभी रुकता नहीं, वह तो प्रवहमान है। समय अपनी गति से चलता रहता है। इसलिए अपने जीवन में आगे बढ़ जाना ही बुद्धिमानी है। यदि सारा समय हम दुखों और परेशानियों का पिष्टपेषण करते रहेंगे तो जीवन दुश्वार हो जाएगा।
               घर-परिवार, बन्धु-बान्धवों और मित्रों के बीच कभी हुए आपसी मनमुटाव को बातचीत से हल करने का प्रयास करके स्वयं को सन्तुलित बनाए रखना हितकर होता है। हमेशा प्रयास यही करना चाहिए कि बातचीत का रास्ता कभी बन्द न हो। इस प्रकार करने से रिश्तों में आई दूरियाँ मिट जाएँगी और मन पर पड़ा बोझ हट जाएगा। फिर धीरे-धीरे स्थितियॉं सामान्य होने लगती हैं। मनो में विराजमान कटुताऍं दूर हो जाती हैं। यह स्थिति सभी के लिए प्रसन्नतावर्धक होती है।
              एक साथ कई कार्य आरम्भ करके हड़बड़ी में नहीं रहना चाहिए। इस तरह सभी कार्य अधूरे रह जाते हैं और मन व्यथित होने लगता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि मानो हम जिन्दगी में कुछ कर ही नहीं सकते। एक कार्य समाप्त करके दूसरे को हाथ में लेने से कार्य सन्तोषजनक तरीके से सम्पन्न होता है। इसी प्रकार जीवन में आई हुई समस्याओं को भी एक-एक करके सुलझा लेना चाहिए। अपनी दृष्टि पैनी रखनी चाहिए जिससे आने वाली समस्याओं का पूर्वाभास हो सके।
             दूसरों से होड़, तुलना या मुकाबला नहीं करना चाहिए। यदि उनसे आगे रहेंगे तो बहुत अच्छा है अन्यथा मन में हीन भावना जन्म लेने लगती है। जो परिस्थितियाँ हमारे वश में नहीं हैं, उन्हें ईश्वर और समय पर छोड़ देना चाहिए। यह बात मन में अच्छी तरह बैठा लेनी चाहिए कि दुनिया में हर तरह के लोग हैं। उनके द्वारा किए गए दुर्व्यवहार से अपने मन को व्यथित नहीं करना चाहिए। दूसरे की सुख-समृद्धि से जलने वालों की कोई कमी नहीं है। उन ईर्ष्यालु लोगों को नजरंदाज करते हुए आगे बढ़ जाना चाहिए।
             अपने अमूल्य समय को व्यर्थ न गॅंवाकर उसे रचनात्मक कार्यों में अथवा समाज सेवा में लगाना चाहिए। दूसरों का सहयोग करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। क्षमा को अपना मजबूत अस्त्र बना लेना चाहिए जिससे अपने मन को शान्ति बनी रह सके। दिन में कुछ पल आत्मचिन्तन के लिए अवश्य रखने चाहिए जिससे अपनी गलतियों को दूर करके अपने अन्तस में सद् गुणों का समावेश किया जा सके। सबसे मुख्य बात यह है कि ईश्वर को धन्यवाद देना कभी नहीं भूलना चाहिए क्योंकि वही हमारा सच्चा हितैषी है। सांसारिक रिश्ते-नाते हमसे मुँह मोड़ सकते हैं और साथ छोड़ सकते पर वह हमारा हर स्थिति में सहायक रहता है। हमारा हाथ थामकर हमें हमारे लक्ष्य तक ले जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 11 जुलाई 2025

अहंकार हमारा आंतरिक शत्रु

अहंकार हमारा आंतरिक शत्रु

अहंकार हमारा आंतरिक शत्रु है। यह भी मनुष्य की विवेक शक्ति पर प्रहार करता है। मनुष्य अपने अहंकार में जब चूर हो जाता है तब सारी दुनिया उसे बौनी लगने लगती है। अपने अहं के कारण वह बाकी सारी दुनिया को अपने ठेंगे पर रख लेने का दम भरने लगता है। वह सारे संसार को आग लगा देने की बातें करने लगता है। ऐसे व्यक्ति के बच्चे भी अपने बड़े लोगों को देखकर वैसे ही बनने लगते हैं। उनकी सोच भी वैसी हो जाती है। यह वास्तव में दुखद स्थिति है कि उस समय उनकी सोच केवल मैं तक ही सीमित होकर रह जाती है।
              मनुष्य अहंकार किस बात का करता है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है। इस विषय पर विचार करने पर समझ आता है कि कुछ ऐसी विशेष बातें हैं जिन पर मनुष्य गर्व करता है। मनुष्य अपने पद या फिर सत्ता पर गर्व करता है। वह यह भूल जाता है कि जब यह पद उसके पास नहीं रहेगा तब उसे कोई नहीं पूछेगा। यह जो सलाम उसे मिलते हैं वे उसे नहीं बल्कि उसके पद को ठोके जाते हैं। इसलिए पद का भी गर्व नहीं करना चाहिए। न जाने कितने ऐसे और लोग होंगें जो उनके बराबर या और उनसे उच्च पद पर होंगे।
              कुछ लोग अपनी सुन्दरता पर इतराते फिरते हैं। हालॉंकि यह भी तो सौन्दर्य स्थाई नहीं है। यदि सुन्दरता का अहं है तो वह आयु के ढलने पर स्वत: नष्ट हो जाती है जब चेहरे पर झुरियाँ आ जाती हैं। किसी एक्सीडेंट या अथवा चेचक जैसी किसी बिमारी या किसी अन्य किसी बिमारी के हो जाने पर सौन्दर्य नहीं रहता। उस समय चेहरे की चमक खो जाती है, वह पीला पड़ जाता है। इन सब कारणों से यह चेहरा खराब हो सकता है। सोचने वाली बात है कि मनुष्य इस सुन्दरता के लिए क्यों वहम पालता है, घमण्ड करता है? 
              धन-सम्पत्ति पर क्या गर्व करना? पैसा तो हाथ का मैल है। धन पर अहंकार करने वाले लोग भूल जाते हैं कि माया तो महाठगिनी है जो जब चाहे साथ छोड़ देती है। कब किसी रंक को राजा बना दे और कब राजा को रंक बना दे? कुछ पता नहीं कि जीवन में अगले पल क्या होने वाला है? प्राकृतिक अपदाऍं जैसे भूकम्प और बाढ़ आदि। पलक झपकते ही सब धराशाही हो जाता है। अतिवृष्टि और अनावृष्टि भी धन गॅंवाने के कारण बन जाते हैं। ईश्वर न करे यदि अपने देश का किसी अन्य देश से युद्ध हो जाए तब भी यह धन धरा रह जाता है। उस स्थिति में हम कहॉं जाऍंगे हमें नहीं पता? आवश्यक नहीं है कि तब धन-सम्पत्ति को समेटने का समय भी हमें मिल सके।
        योग्य सन्तान का भी गर्व करने का क्या लाभ है? दुनिया में बहुत ही योग्य व आज्ञाकारी सन्ताने हैं जो अपने माता-पिता का ही अपितु नहीं पूरे विश्व का गौरव हैं। यह कोई नहीं जानता कि ये बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहेंगे भी या उन्हें छोड़कर किसी अन्य प्रदेश अथवा दूर परदेस में चले जाऍंगे। बच्चे माता-पिता के पास किसी भी कारण से आ नहीं पाते और बुजुर्ग होते माता-पिता उनके पास जा नहीं सकते।‌ उस समय उनकी प्रतीक्षा करना ही एकमात्र सहारा बच जाता है।
               मनुष्य को अपने बराबर अन्य कोई बुद्धिमान दिखाई ही नहीं देता। अपने अहं के कारण वह मनुष्य हर किसी को देख लेने का दम भरता है और दुनिया को आग लगा देने की गुस्ताखी करता है। हर कोई उसे कीड़े-मकौड़ों की तरह लगता हैं जिसे वह चुटकी बजाते ही मसलने की बात करता है। वह किसी दूसरे इन्सान की इज्जत करना तो जैसे भूल जाता है। विद्वत्ता भी अहंकार का विषय नहीं है क्योंकि ज्ञान किसी की बपौती नहीं। इस दुनिया में अक्षय ज्ञान का भण्डार है। हर व्यक्ति दुनिया के सम्पूर्ण ज्ञान का जानकार नहीं होता। उसका ज्ञान तो किसी विषय तक ही सीमित होता है। इसी प्रकार भक्ति व शक्ति आदि का भी मान अहंकार का विषय नहीं है। फिर इन सब भौतिक सम्बन्धों या उपलब्धियों पर अभिमान करना कदापि उचित नहीं है।
            अहंकारी अपने आप को भगवान समझने लगता है व अपने वचन को पत्थर की लकीर। इसी अहंकार के रहते वह उस परमसत्ता भगवान को भी अपमानित करने से नहीं चूकता और अंततः उसे भी चुनौती दे डालता है।
        हमारे बड़े-बुजुर्गों की कही बातों में सार अवश्य होता है। वे कहते हैं- 'घमंडी का सिर नीचा।' अहंकार करने वाला अपने आप को कितना भी महान समझ ले पर अंत में उसे अपमानित होना पड़ता है, शर्मिंदा होना पड़ता है। हम पीछे मुड़कर इतिहास की ओर दृष्टि डालते हैं। वाल्मीकि रामायण में प्रसंग आता है कि जब लव और कुश अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ लेते हैं तो भगवान राम के रक्षक उन्हें चुनौती देते हुए कहते हैं - '
 शस्त्र बच्चों की भी गर्वोक्तियों को सहन नहीं करते।
               कहने का तात्पर्य है कि अहंकार चाहे किसी बच्चे का हो या किसी बड़े का कभी स्वीकार नहीं किया जाता वह हमेशा ही विनाश का कारण बनता है। रावण, कंस और हिरण्यकश्यप जैसे बली अहंकारी काल के गाल में समा गए। दुर्योधन के अहंकार ने महाभारत का युद्ध करवाकर देश की अपूरणीय क्षति की। इतिहास गवाह है कि कितने बड़े-बड़े साम्राज्य इस अहंकार की भेंट चढ़ गए। उन्हें याद करने वाला कोई नहीं है।
        विवेकशील व्यक्तियों को चाहिए कि वे वृथा अहंकार को छोड़कर ईश्वर से यह प्रार्थना करें कि वह इस शत्रु से हमें बचाए जिससे हमारा लोक व परलोक दोनों सुधर जाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 10 जुलाई 2025

अन्ना बना देता है शत्रु मोह

अन्धा बना देता शत्रु मोह

मोह मनुष्य का एक ऐसा शत्रु है जो आँखों के रहते हुए भी मानो उन पर पट्टी बाँधकर उसे अन्धा बना देता है। वैसे मनीषी कहते हैं कि मनुष्य को मोह का गुलाम नहीं बनना चाहिए। उसे मोह का त्याग करना चाहिए। मोह के वशीभूत होकर मनुष्य अत्याचार और अनाचार तक कर बैठता है। मोह के कारण उसकी विवेकी बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। तब वह कुछ भी समझने-बूझने की स्थिति में नहीं रहता। वह सच और झूठ की पहचान करने में असमर्थ हो जाता है।
               मोह सृष्टि को चलाने के लिए एक सीमा तक आवश्यक है। अगर यह मोह न हो तो सन्तान का पालन-पोषण नहीं हो सकता। माता-पिता का सन्तान के प्रति मोह ही होता है जिसके कारण न वे उसे स्वयं से कभी दूर जाने देना चाहते हैं और न ही कभी उससे दूर जाना ही नहीं चाहते। चाहे सन्तान उन पर कितना ही क्रोध करे अथवा अपमानित करे। या दुर्भाग्य है कि इस सबको नगण्य करते हुए जूते खाकर भी उस नालायक सन्तान से अलग नहीं होना चाहते। घर-परिवार में सामंजस्य स्थापित करना और एक-दूसरे की परवाह करने में भी कठिनाई होती।
              मोह तब तक मान्य है जब तक वह पैर की बेड़ी न बने। पारिवारिक मोह यदि सामंजस्य के लिए हो तो वह परिवार की शक्ति बनता है। इसे हम एक-दूसरे की परवाह या चिन्ता का नाम भी दे सकते हैं। इसे हम बहुत बड़ी उपलब्धि कह सकते हैं कि परिवार एकजुट है। जिन परिवारों में माता-पिता और बच्चे एक-दूसरे का ध्यान रखते हैं, वहॉं पर सुख-समृद्धि और खुशियों का निवास होता है। परन्तु जिन घरों में स्थितियॉं विपरीत होती हैं, वहॉं पर सारे प्रयत्न विफल हो जाते हैं।
               इसके विपरीत कई बार माता-पिता मोह के कारण अत्यधिक लाड़-प्यार में बच्चों को बचपन में बिगाड़ देते हैं। ऐसे बच्चे बड़े होकर स्वच्छन्द हो जाते हैं और कुमार्गगामी हो जाते हैं। ये बच्चे अपने घर-परिवार के लिए सिरदर्द बन जाते हैं और समाज के लिए अभिशाप। उस समय माता-पिता उन्हें दुत्कारते हैं और अपने भाग्य को कोसते हैं। तब तक पानी सिर से ऊपर हो जाता है। बच्चों से मोह होना स्वाभाविक है परन्तु उनके जीवन के साथ खिलवाड़ करना उचित नहीं है।
              सोशल मीडिया, समाचार पत्र व टीवी ऐसे बच्चों के कुकर्मों को उजागर करते रहते हैं जिनके माता-पिता उच्च पदों पर आसीन हैं अथवा बड़े-बड़े व्यापारी हैं या सम्भ्रान्त कुल से सम्बन्ध रखते हैं। ये वही बच्चे होते हैं जिन्हें अतिमोह के कारण उनके माता-पिता बचपन में ही बिगाड़ देते हैं। उनकी जायज व नाजायज माँगों को न कहने के बजाय बिना परिणाम सोचे पूरा करते हैं। यही बच्चे बड़े होकर देश व समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त हो जाते हैं। अतिमोह का शिकार ये मासूम बच्चे समाज के अपराधी बन जाते हैं।
               यदि उन्हें बचपन में सही दिशानिर्देश मिला होता तो वे निश्चित ही अन्य बच्चों की भाँति सभ्य समाज का हिस्सा होते उसकी नफरत का नहीं। कच्ची मिट्टी के समान इन बच्चों को उनके ही अपने माता-पिता जी का जंजाल बना देते हैं। ये बच्चे बड़े होकर जब उसी प्रकार व्यवहार करते हैं तो माता-पिता उन्हें सही रास्ते पर लाना चाहते हैं। जो आदतें बचपन में पक जाती हैं, उन्हें बदलना बहुत कठिन हो जाता है। यदि अतिमोह का त्याग करके अपने बच्चों को अनुशासित किया जाता और अच्छे संस्कार दिए जाते तो निश्चित ही वे समाज में उदाहरण बन जाते।
              ऐसे बिगड़ैल बच्चे एक आयु के पश्चात माता-पिता की पहुँच से बहुत दूर निकल जाते हैं। तब उन्हें वापिस लौटा कर लाना नामुमकिन तो नहीं पर कठिन अवश्य हो जाता है। समय रहते यदि माता-पिता चेत जाते तो बच्चे यूॅं हर जगह तिरस्कृत न होते। ऐसे बच्चों के साथ कोई मित्रता नहीं करना चाहता। आस-पड़ोस के लोग, उनके बन्धु-बान्धव और उनके अपने परिवारी जन उन्हें अपने घर और बच्चों से दूर रखना चाहते हैं। उन्हें इस बात का डर होता है कि उन बच्चों की देखा-देखी उनके स्वयं के बच्चे न बिगड़ जाऍं।
               रामायण का उदाहरण लेते हैं। महारानी केकैयी ने अपने पुत्र भरत के अतिमोह के कारण भगवान राम को राज्य छोड़कर चौदह वर्षों तक जंगलों में भटकने के लिए विवश किया। इसका तात्पर्य यह था कि चौदह वर्षों का समय बहुत होता है। इस बीच प्रजा भगवान राम को भूल जाएगी। इससे उनके पुत्र भरत के राज्य करने का मार्ग निष्कंटक हो जाएगा। राजा दशरथ की मृत्यु हो जाने और भरत का राज्य लेने से इन्कार कर देने के कारण उनके परिवार पर मानो संकटों का पहाड़ ही टूट पड़ा।
                इसी प्रकार महाभारत काल में महाराज धृतराष्ट्र का अपने पुत्र दुर्योधन के अतिमोह के कारण उन्होंने अपने छोटे भाई महाराज पाण्डु के पुत्रों के साथ अन्याय किया। उन्हें उनका राज्य नहीं दिया। पाण्डवों और द्रौपदी पर दुर्योधन के द्वारा किए गए अनेक अत्याचारों को मूक समर्थन दिया। इन दुखदाई स्थितियों के कारण महाभारत का युद्ध हुआ जिसमें विनाश का भयावह ताण्डव हुआ। बहुत से योद्धा और विद्वान मारे गए। इसके नुकसान को हम भारतीय आज तक भुगत रहे हैं।
               हमें विचार करते हुए अपने नजरिए में थोड़ा-सा परिवर्तन लाना होगा ताकि हम अतिमोह से बच सकें। हम अज्ञानतावश मोह का पल्लू पकड़कर अपने बच्चों के जीवन से खिलवाड़ न करें बल्कि उन्हें अपनी स्वस्थ सांस्कृतिक विरासत सौंपे। तभी हमारी आने वाली पीढ़ियाँ ऐसी बनेंगी जिन पर हम, हमारा देश व समाज गर्व कर सकेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 9 जुलाई 2025

लोभ सभी बुराइयों का कारण

लोभ सभी बुराइयों का कारण

लोभ हमारा ऐसा शत्रु है जो मृत्यु पर्यन्त हमें नाच नचाता रहता है। अपने इस शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए मनुष्य एड़ी-चोटी का जोर लगाता है परन्तु सफलता उसके हाथ नहीं लगती। परिणाम ढाक के वही तीन पात ही रहता है।
           कहते हैं कि इस दुनिया में भाग्य से अधिक और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। इस अति लालच से संबंधित एक कहानी है पंचतंत्र में। वह समझाती है कि लालच करने वाले के सिर पर काल का चक्र घूमता है जो जन्म जन्मांतर तक सिर पर मंडराता रहता है। मनुष्य लहुलूहान हुआ, भूखा-प्यासा रहकर दिन-रात उसे ढोता रहता है पर फिर भी मुक्ति का मार्ग उसे दिखाई नहीं देता। यही परेशानियों और मुसीबतों का नाम है जिसके कारण हम अधिक-अधिक पाने की होड़ में दिन-रात का चैन खो देते हैं। खाने-पीने की सुध बिसरा कर हम कोल्हू के बैल की तरह हरपल पिसते रहते हैं, थककर चूर हो जाते हैं।
            संस्कृत भाषा के ग्रन्थ 'हितोपदेशम्' में लोभ के विषय में कहा गया है- 
              ‌लोभो मूलमनर्थानाम्। 
अर्थात् लोभ सभी अनर्थों का कारण है या जड़ है।   
             दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि यह लोभ कभी समाप्त न होने वाली लाइलाज बिमारी है। एक वस्तु हम देखते हैं तो उसे पाने का लालच मन में समा जाता है। उसे पाने के लिए यत्न करते हैं और हासिल कर लेते हैं तो फिर दूसरी वस्तु को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। इस तरह एक के बाद लालच हमें घेरते रहते हैं। अपने जाल में ऐसा फंसा लेते हैं कि उससे  बाहर निकलने की जितना यत्न करते हैं उतना ही उसमें और और उलझते जाते हैं। तब अपने बचाव का मार्ग हमें सुझता ही नहीं है।
              इस लालच के कारण ही अब ‌समाज में चोरी-डकैती, लूटमार, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, दूसरे का गला काटना, कालाबाजारी, टैक्सचोरी जैसे अपराध बढ़ते जा रहे हैं। इन अपराधों को सभी लोग बुरा कहते हैं। परन्तु इसे छोड़ना नहीं चाहते। इन अपराधों के कारण लोग न्याय व्यवस्था के दोषी बन जाते हैं। फिर जेल की सलाखों के पीछे भी पहुॅंच जाते हैं।‌ इस युग में आज सम्बन्धों की गरमाहट दिनोंदिन कम होती जा रही है जो स्वस्थ समाज की सेहत के लिए बहुत हानिकारक है।
              हम सबने उस राजा की कहानी कभी अपने बचपन में पढ़ी थी जो बहुत-सा सोना  इकट्ठा करना चाहता था। एक बार किसी साधु ने उसे वरदान दिया था कि जिस भी वस्तु को वह छुएगा, वह उसी क्षण सोने की हो जाएगी। अब वह राजा बहुत खुश हो गया अपना इच्छित वरदान पाकर। पर यह तो खुशी वाली बात नहीं थी। इस वरदान के कारण अपने महल की जिस भी वस्तु का स्पर्श करता, हर वस्तु सोने की हो जाती। राजा बहुत आनन्दित था कि वह अब से सोने के सिंहासन पर बैठेगा। 
          उसके महल के बाग के पेड़-पौधे भी सोने के हो गए। वह खाना नहीं खा सकता था क्योंकि हाथ लगाते ही वह सोने का हो जाता। जब राजा की बेटी उसके पास आई तो राजा ने उसे प्यार से गोद में उठा लिया। यह क्या, उसकी अपनी बेटी भी सोने की मूर्ति में बदल गई।। अब वह रोया-चिल्लाया कि मुझे सोना नहीं चाहिए। महात्मा जी अपना वरदान वापिस ले लीजिए।
           ‌‌  यह कथा केवल उस राजा की नहीं, हम सबकी भी है। हम अपने पूर्वजन्म कर्मानुसार ईश्वर प्रदत्त नेमतों से सन्तुष्ट नहीं होते। प्रतिदिन नये से नया पाने के लिए भटकते रहते है। उस भटकन में खोकर हम उस मालिक को तो क्या स्वयं को भी भूल जाते हैं। लालच की इस अन्धी रेस मे दौड़ते हुए अपने प्रियजनों से मनुष्य कब विमुख हो जाता है, उसे पता ही नही चलता। जब वह चेतता है तो स्वयं को अकेला पाता है। उस समय जब उसे अपनों के सहारे की आवश्यकता होती है वह उन्हें खो चुका होता है। फिर वह पछताता है और अपने आपको धिक्कारता है। समय बीतने पर उस पश्चाताप का कोई लाभ नहीं होता।
              अब हमें यह विचार करना है कि इस लोभ या लालच रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त करके हम आत्मिक शान्ति और कष्टों से मुक्ति चाहते हैं या इसके पीछे भागते हुए मृत्युपर्यन्त भटकना चाहते हैं। जो भी मार्ग उचित प्रतीत हो, उस पर ईमानदारी से चलकर अपना जीवन सुखपूर्वक बीताने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 8 जुलाई 2025

विवेक को हरता शत्रु क्रोध

विवेक को हरता शत्रु क्रोध 

अपने अन्तस में विराजमान शत्रुओं से हमारी गहरी छनती है। उनको पुष्ट करने में हम इतने मस्त रहते हैं कि सारी दुनिया को आग लगाने को तैयार रहते हैं। मैं और मेरा अहं दोनों ही बस तुष्ट होते रहें बाकी किसी से कोई मतलब हम नहीं रखना चाहते। हालॉंकि यह स्थिति बहुत विकट है। हमें यथासम्भव इससे बचना चाहिए।
          इन शत्रुओं में क्रोध प्रमुख है। इसके बारे में शास्त्र कहता है-
        क्रोधो मूलमनर्थानां क्रोध: संसारबन्धनम्।
       धर्मक्षयकर: क्रोध: तस्मात् क्रोधं विवर्जयेत्॥अर्थात् क्रोध सभी बुराइयों की जड़ है। संसार में बन्धन कारण है, धर्म का नाश करने वाला है। अतः इसका त्याग करना चाहिए।
             वास्तव में क्रोध हमारा बहुत बड़ा शत्रु है। यह विवेक यानी हमारी सोचने-समझने की शक्ति को नष्ट करता है। आम भाषा में हम कहते हैं कि क्रोध में इन्सान पागल हो जाता है। ऐसे क्रोधी व्यक्ति को कोई भी पसन्द नहीं करता।  उसे पता ही नहीं चलता कि क्रोध में वह क्या कह जाता है। उस समय उसे छोटे-बड़े का भी ध्यान नहीं रहता। कोई भी व्यक्ति अपना अपमान करवाना नहीं चाहता।सभी उससे किनारा करने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
             सहन शक्ति से क्रोध जब परे हो जाता है तब मनुष्य जानवर की तरह व्यवहार करने लगता है। वह उस समय हत्या या आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध भी कर बैठता है। हत्या जैसे अपराध की सजा अकेला वह नहीं भोगता बल्कि उसका निरपराध परिवार भी इस कष्ट का भागीदार बनता है। इसका पश्चाताप उसे मृत्यु पर्यन्त ही करना पड़ता है। आत्महत्या करके वह तो मुक्त हो जाता है पर अपनों का जीवन दुरुह कर देता है।
               यहॉं हम महर्षि परशुराम जी का उदाहरण लेते हैं। वे बहुत विद्वान एवं शक्तिशाली थे परन्तु फिर भी उन्हें समाज में यथोचित स्थान नहीं मिल सका। कारण था उनका अति क्रोधी होना। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान परशुराम ने 21 बार क्षत्रियों का संहार किया था। यह घटना हैहय वंश के राजा सहस्रार्जुन द्वारा परशुराम के पिता, जमदग्नि मुनि की हत्या के प्रतिशोध में हुई थी। उन्होंने इतने वर्ष संघर्ष किया, महर्षि वसिष्ठ से महर्षि शब्द सुनने के लिए।
              रामायण में राजा जनक के दरबार में भगवान राम के द्वारा प्रत्यंचा चढ़ाते समय शिव धनुष के टूटने पर लक्षमण और परशुराम का संवाद हम सबको याद है। ऋषि दुर्वासा का नाम यदि आज भी किसी प्रसंग में आ जाए तो लोगों के मन में उनके प्रति श्रद्धा का भाव नहीं जागता।
            ऐसे क्रोधी को कोई भी पसन्द नहीं करता। सभी उससे किनारा करने में ही अपनी भलाई मानते हैं और यही सोचते हैं कि बर्र के छत्ते में कौन हाथ डाले? लोग उससे बात करने या सन्बन्ध रखना नहीं चाहते उससे किनारा ही करना चाहते हैं। ऐसे लोगों के साथ दोस्ती केवल स्वार्थ के कारण होती है। जब तक स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है तब तक मित्रता बनी रहती है। उसके पश्चात सभी अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। एक-दूसरे को वे लोग पहचानने से भी इन्कार कर देते हैं।
             जितना अधिक इस शत्रु को गले लगाएँगे उतना ही घर, परिवार, मित्रों व समाज से कटकर रह जाएँगे। सामने मुँह पर हमारे लिए शायद कोई भी प्रतिक्रिया न करे पर पीठ पीछे हमारा उपहास करेंगे। और तो और उनके परिवार जन भी उनकी इस आदत से परेशान रहते हैं। वे इसी यत्न में लगे रहते हैं कि किसी भी प्रकार से उनका यह क्रोधी स्वभाव शान्त स्वभाव में बदल जाए। ऐसे व्यक्ति को न उसका जीवनसाथी और न ही उसके बच्चे प्यार करते हैं। वे बस स्वार्थवश ही उनसे सम्बन्ध रखते हैं। वे उसके सामने पढ़ने से भी कतराते हैं। पता नहीं किस बात पर उनकी शामत आ जाए। जब बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तब उन्हें पूछना ही नहीं चाहते। इससे बढ़कर और  उनका दुर्भाग्य क्या होगा?
            क्रोधी व्यक्ति को यह ज्ञात ही नहीं होता कि वह अपना स्वयं का कितना नुकसान करता है यानी कि अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारता है। अति हर चीज की बुरी होती है। अधिक क्रोध करने से मन अशान्त होता है व बेचैनी रहती है। मनुष्य अतिक्रोध की स्थिति में अपना आपा खो देता है। बड़े-बजुर्ग कहा करते थे कि गुस्सा करने से इन्सान का अपना खून जलता है। मन अशान्त होगा तो पक्की बात है तन भी अस्वस्थ होगा। तन और मन के रोगी होने से हानि ही हानि होगी। क्रोध करने वाले से जब लोग किनारा करते हैं तो वह इसे सहन नहीं कर पाता। ऐसे हालत में मनुष्य मानसिक सन्तुलन तक खोने लगता है।
             जब तक हम अपने इस शत्रु क्रोध पर नियन्त्रण करने का यत्न नहीं करेंगे तब तक न हमें सुख-चैन मिलेगा और न ही हम कभी किसीके प्रिय बनेंगे। जब क्रोध आए तो उसे शान्त करने के लिए सयाने  कुछ कारगर नुस्खे बताते हैं। कहते हैं मन में सौ तक उल्टी गिनती गिन सकते हैं। हम इसके अतिरिक्त ठण्डा पानी पी सकते हैं। सबसे अच्छा उपाय है ईश्वर का नाम मन में स्मरण करें। इस प्रकार अभ्यास करने से हम क्रोध को वश में कर सकते हैं।
              व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि वह अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है या सबसे कटकर रहना चाहता है। हालांकि अपनी आदतों को बदलना या छोड़ना बहुत मुश्किल होता है। पर यदि मनुष्य दृढ़ संकल्प करे तो कुछ भी असम्भव नहीं। थोड़े से अभ्यास से इस पर काबू पाया जा सकता है और अपने व अपनों से दूरी बनाने से बचा जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 7 जुलाई 2025

काम रूपी शत्रु

काम रूपी शत्रु 

हम अपने अन्त:करण में यदि झाँककर देखें तो विराजमान शत्रुओं में काम प्रमुख शत्रु है। इससे मित्रता करने वाले को शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। एक सीमा तक ही हमें इसका उपभोग करना चाहिए।
             हमारी भारतीय संस्कृति हमें विवाहोपरान्त शरीरिक सम्बन्ध बनाने की आज्ञा देती है, उससे पूर्व नहीं। यानी विवाह के उपरान्त ही युवा जोड़े को शारीरिक सम्बन्ध की अनुमति मिलती है। इससे भी बढ़कर यह है कि उच्छृंखलता को बिल्कुल सहन नहीं किया जाता। इस विषय में यहाँ पर विकृति का कोई स्थान नहीं है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इस आयु में आकर मनुष्य काम के वशीभूत होकर दीन-दुनिया को भूल जाए। हमारे शास्त्र पति-पत्नी को मात्र सन्तानोत्पत्ति के लिए ही इस सम्बन्ध की अनुमति देते हैं। शेष समय वे मनुष्यों से संयम बरतने की अपेक्षा करते हैं।
               यहॉं मैं प्रकृति जगत के विषय में चर्चा करना चाहती हूॅं। सारे जीव-जन्तुओं के लिए ईश्वरीय विधान के अनुसार प्रजनन का समय निर्धारित है। अपने उस ऋतुकाल में ही वे अपनी सन्तान को जन्म देते हैं। परिश्रम से अपने घोंसले बनाकर उनका लालन-पालन करते हैं। परन्तु मनुष्य के लिए ऐसा कोई नियम लागू नहीं है। उसके लिए समय की कोई बाध्यता नहीं है। इसका कारण है कि मनुष्य प्रकृति का सर्वश्रेष्ठ जीव है। उससे  बुद्धिमत्ता के आचरण की अपेक्षा की जाती है। परन्तु यही मनुष्य रूपी जीव स्वयं को सारी सीमाओं से परे मानकर अतिचारी हो जाता है।
               काम रूपी इस शत्रु की अधिकता होने पर मनुष्य राक्षस बन जाता है। उसे सही व गलत की पहचान नहीं रहती। वह अपना आपा खो देता है व अनर्थ कर बैठता है। बलात्कार आदि अपराध इसी काम की अधिकता के कारण होते हैं। तत्पश्चात ऐसा मनोरोगी समाज और न्याय व्यवस्था का दोषी बन जाता है। उसे आजीवन जेल की सलाखों के पीछे रहना पड़ता है। क्षणिक आवेश में आकर किए गए इस अपराध की कोई माफी नहीं होती। ऐसा व्यक्ति स्वयं पर तो दाग लगा बैठता है, साथ-साथ अपने प्रियजनों को भी सिर उठाकर चलने से लाचार कर देता है।
              आज यह स्थिति है कि जिन रिश्तों पर आँख मूँदकर विश्वास कर सकते हैं, वे इस विकृति के उदाहरण बनते जा रहे हैं। दुर्भाग्यवश जिन रिश्तों पर ऑंख मूॅंदकर विश्वास किया जाना चाहिए वे ही भक्षक बनते जा रहे हैं। पिता, भाई, मित्र, गुरु/शिक्षक या अन्य सगे-सम्बन्धियों के रूप में इन विकृत मानसिकता वाले लोगों को देखा जा सकता हैं। ऐसे लोगों के विषय में सोशल मीडिया, समाचार पत्रों व टी वी चैनलों पर हम सब यदाकदा देख-पढ़ लेते हैं।
             धर्म का पालन करने का उपदेश देने वाले और अधर्म से विमुख होने का पाठ पढ़ाने वाले, वे तथाकथित धर्मगुरु व पाखण्डी तन्त्र-मन्त्र वाले भी लोगों को बहला-फुसला कर इस काम के वश में जघन्य अपराध करते हैं। ये लोगों अपनी धार्मिकता की आड़ में इन अपराधों को प्रश्रय देते हैं। फिर समाज के दोषी बनकर जेल की सलाखों के पीछे जाकर, गुमनाम जीवन जीते हुए वर्षों सजा काटते हैं। इन लोगों को इस प्रकार के घृणित कार्य करते हुए आत्मिक ग्लानि भी शायद नहीं होती। ऐसे निरंकुश लोगों का सार्वजनिक रूप से बहिष्कार होना चाहिए।
               हमारे शास्त्र हमें कठोर कर्म सिद्धान्त के विषय में जागरूक करने का कार्य करते हैं। वे ऐसा कहते हैं कि इस जन्म में जो व्यक्ति अपनी किसी भी इन्द्रिय या शरीर के किसी अंग का दुरूपयोग करता है तो ईश्वर उसे अगले जन्म में उस इन्द्रिय या शरीर के उस अंग से वंचित कर देता है। इतना सब समझाने पर भी यदि मनुष्य जागृत न हो सके तो ईश्वर भी उसके लिए कुछ नहीं कर सकता। मनुष्य को अपने पूर्वजन्म कृत कर्म का फल भोगने कोई भी नहीं बचा सकता। तब वह सम्पूर्ण न होकर विकारयुक्त शरीर वाला मनुष्य बनता है। हम अपने आसपास कितने ही उदाहरण देख सकते हैं। 
              अपने आसपास समाज में हम बहुत से मनुष्यों को देखते हैं जो शरीर के किसी अंग के न होने पर अपाहिज का जीवन जीते हैं। वे स्वयं भी परेशान रहते हैं और उनके अपने भी उनके दुख में दुखी रहते हैं। इसे भाग्य की विडम्बना ही कही सकते हैं। पता नहीं मनुष्य न जाने किस जन्म में अशुभ कर्म करता है और कब उसे उसका फल मिलता है। कर्मफल का यह विधान बहुत निराला है। इसे हमारी अज्ञ बुद्धि नहीं समझ पाती।
               शास्त्र के अनुसार काम के वशीभूत होकर जो लोग अपनी इस इन्द्रिय का दुरुपयोग करते हैं, वे अगले जन्म में नपुंसक बनकर जन्म लेते हैं। ये लोग समाज में हमेशा तिरस्कृत होते हैं। सदा ही वे अपने प्रारब्ध को कोसते रहते हैं। ऐसी ही सजा कुछ लोगों ने पिछले दिनों बलाकारी को देने की माँग भी की थी।
               हमारी भारतीय संस्कृति हमें जो जीवन मूल्य अपनाने का विमर्श देती है, वे शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध हों। इन जीवन मूल्यों की अनुपालना करके मनुष्य में दैवीगुण आते हैं। वह मनुष्य समाज में अपना अनुकरणीय स्थान बनाने में  सफल हो जाता है।
            ईश्वर ने मनुष्य को संसार में सर्वश्रेष्ठ जीव बनाकर भेजा है। इसे विवेक शक्ति का उपहार दिया है ताकि वह सोच-समझकर जीवन में आगे बढ़े। मनुष्य यदि अपना जीवन नियमानुसार संयमपूर्वक  व्यतीत करें तो इस काम रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त करके इससे किनारा कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 6 जुलाई 2025

आन्तरिक शत्रुओं पर विजय

आन्तरिक शत्रुओं पर विजय 

मनुष्य अपने सांसारिक शत्रुओं पर साम, दाम, दण्ड और भेद किसी भी तरह का उपाय करके विजय प्राप्त कर लेता है। वह बस यही चाहता है कि कोई भी व्यक्ति, किसी भी क्षेत्र में उसके सामने सिर न उठाए। यदि कोई ऐसा करने का प्रयत्न करता है तो वह अपना आपा खो देता है। वह उसे कुचल डालने के लिए मचल उठता है। वह यह भी नहीं देखता कि उसके समक्ष सिर उठाने वाला उसका कोई अपना है अथवा कोई अन्य। उसके लिए मानो वह उसका कट्टर शत्रु बन जाता है।
              इसी प्रकार किसी सत्ता ने भी कभी किसी को प्रतिकार नहीं करने दिया। सतयुग से लेकर आज कलयुग तक कमोबेश यही स्थिति रही है। इतिहास गवाह है कि जो भी स्वर सत्ता को चुनौती देने के लिए विरोध में उठा उसे वहीं दबा दिया गया। कोई भी शक्तिशाली राज्य दूसरे कमजोर राज्यों को अपने अधिकार में कर लेने में कोई कसर नहीं छोड़ता। उसकी स्वायत्तता उसके लिए मानो कोई मायने नहीं रखती।
              यह तो थी बाहरी शत्रुओं की चर्चा। अब हम अपने स्वयं के शत्रुओं के विषय में विचार करते हैं। हमारे अपने अन्तस में विराजमान काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार - इन पाँचों शत्रुओं से हमारी गहरी छनती है। उनको पुष्ट करने में हम इतने मस्त रहते हैं कि सारी दुनिया को आग लगाने को तैयार रहते हैं। मनुष्य को ठगने वाले इन पाँचों शत्रुओं को मनीषी चोर की संज्ञा देते हैं। इनके लिए कहा जाता है कि ये पॉंचों शत्रु दिन-रात हमें ठगते रहते हैं। मजे की बात यह है कि हम इस सबसे बेखबर रहते हैं।
             जितना अधिक सत्कार करके हम इन पाँचों का अपना मित्र बनाते हैं, उनके साथ मौज-मस्ती करते हैं या इनमें डूब जाना चाहते हैं, उतना ही ये हमें पतन के मार्ग की ओर धकेलते हैं। मैं और मेरा अहं हम दोनों ही बस तुष्ट होते रहें बाकी किसी से कोई मतलब हम नहीं रखना चाहते। हालांकि इस सोच वाली स्थिति बड़ी विकट है। यथासम्भव इससे बचने का हमें हमेशा ही प्रयत्न करते रहना चाहिए।
              जीवन में इनकी बहुत आवश्यकता होती है। परन्तु इनको उतना ही बढ़ावा देना चाहिए जितनी इनकी आवश्यकता हो। अनावश्यक प्रश्रय मिलने पर ये सिर पर सवार हो जाते हैं। इनसे तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी इनसे नहीं बच सकते तो हम मनुष्यों की क्या कहें?
             काम की गृहस्थ जीवन में महती आवश्यकता होती है पर मात्र सन्तानोत्पत्ति के लिए। इसकी अधिकता होने पर मनुष्य राक्षस तुल्य बन जाता है। बलात्कार आदि अपराध इसी काम की अधिकता के कारण होते हैं। संसार के सर्वश्रेष्ठ जीव हम मनुष्य यदि नियमानुसार संयमपूर्वक जीवन व्यतीत करें तो इन बुराइयों से बचा जा सकता है।
        क्रोध की आवश्यकता भी जीवन में होती है। यदि मनुष्य बिल्कुल भी क्रोध नहीं करेगा तो उसे उसी प्रकार कोई पूछेगा ही नहीं जैसे विषरहित साँप से कोई नहीं डरता। इसकी अधिकता हमेशा नुकसान देती है। घर-परिवार, भाई-बन्धु कोई भी क्रोधी का सम्मान नहीं करता। उसे उसका वह स्थान नहीं मिलता जिसके वह योग्य होता है। 
             लोभ का संवरण प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए नहीं तो चोरी की हद तक उसे यह दुर्गुण ले जाता है। जिसका पश्चाताप मृत्युपर्यन्त करना पड़ता है। इसीलिए कहते हैं- लालच बुरी बला है।
               मोह में पड़कर इन्सान सच और झूठ की पहचान नहीं कर पाता। मोह सृष्टि को चलाने के लिए एक सीमा तक आवश्यक है। अतिमोह धृतराष्ट्र की तरह कुल और साम्राज्य के विनाश का कारण बन जाता है। 
              मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए परन्तु उसे अहंकार से नाता कभी नहीं रखना चाहिए। अहंकार हमेशा सिर नीचा कराता है। कोई भी व्यक्ति अहंकारी की सराहना नहीं करता। वह सदा ही आलोचना का पात्र बनता है।
            ‌इन पाँच शत्रुओं को वश में करने से सदा मनुष्य सर्वविध उन्नति करता है तथा आत्मिक बल व शान्ति प्राप्त करता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 5 जुलाई 2025

जो मॉंगना है ईश्वर से मॉंगिए

जो माँगना है ईश्वर से मॉंगिए 

आयुपर्यन्त हर मनुष्य को बहुत कुछ माँगने की आवश्यकता रहती है। प्रतिदिन उसे कुछ-न-कुछ नया चाहिए ही होता है। ऐसा नहीं है कि धनवानों को माँगने की कभी इस संसार में आवश्यकता नहीं होती, वे भी हर समय माँगते रहते हैं। साधनहीन तो हर समय अपनी जरूरतों के कारण परेशान रहता है। वह ईश्वर से यही प्रार्थना करता रहता है कि उसे जीवन में सभी सुख मिलें ताकि वह समाज में रहते हुए अपना जीवन स्तर सुधार सके। उसे अपनी आवश्यकताओं के लिए किसी का भी मुॅंह न ताकने की जरूरत न पड़े।
              धनाढ्य जनों को कभी आपना घर चाहिए, नित-नयी गाड़ी चाहिए, इन्कम टैक्स-सेल्स टैक्स से बचना होता है, अच्छा स्वास्थ्य चाहिए, सुन्दर सुशील पति/पत्नी जरूरी है, आज्ञाकारी सन्तान की कामना, अच्छी नौकरी या फिर तरक्की की इच्छा, विदेश में सेटल होना या विदेश यात्रा करना आदि कुछ भी हो सकता है। इनके अतिरिक्त हमें परीक्षा-कम्पीटिशन में पास होना, यश, बल, बुद्धि आदि सब भी चाहिए होते हैं। कभी-कभी तो हद हो जाती है जब किसी पड़ोसी, मित्र या सम्बन्धी की नई खरीददारी देखकर उसकी होड़ में बिना समय गंवाए, उसे खरीदने के लिए लालायित हो जाते हैं।
            अपने पास साधन हों या न हों पर बस वह वस्तु हमें चाहिए। हमारे घर की शोभा वह जब तक न बने तब तक हम बेचैन रहते हैं। इसके लिए चाहे हमारी सामर्थ्य है या नहीं अथवा हमारी जेब इसके लिए तैयार है या नहीं, हमें कोई मतलब नहीं। इस कारण पहले अपने साधनों को कोसते हैं,  फिर जोड़- तोड़ करने का प्रयास करते हैं। बैंक से लोन लेने का जुगाड़ भी करने की कोशिश करते हैं। जब वह प्रतीक्षित वस्तु हमारे घर की शोभा बन जाती है तभी मन को शान्ति मिलती है।
                ऐसी जरूरत आने पर हम सोचते हैं कि माँगे तो किससे? कौन हमारी सहायता कर सकता है? उस समय हम चारों ओर दृष्टि डालते हैं। सभी बन्धु-बान्धवों की आर्थिक स्थिति का जायजा लेने लगते हैं। यह एक ऐसा प्रश्न है जिससे हम सबका वास्ता प्रायः पड़ता रहता है। रहीम जी इस विषय में कहते हैं -
        मॉंगन गए सो मर रहे, मरै जु मॉंगन जाहि।
       तिनके पहिले वे मरे, होता करते हैं शाहिद।
अर्थात् यदि कोई किसी से कुछ मॉंगने जाता है तो समझो की वह मर गया लेकिन उसके पहले वह मर चुका होता है जो दान देने के लायक होकर भी देने से मुकर जाता है।
           मॉंगने के विषय में कहे गए कबीरदास जी के निम्न दोहे देखिए -
     मागन मरन समान है, सीख दयी मैं तोहि।
    कहैं कबीर सतगुरु सुनो, मति रे मांगौ मोहि।।
अर्थात् मॉंगना मृत्यु के समान है। मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूँ। कबीर कहते हैं कि हे प्रभु! मुझे कभी भी किसी से मॉंगने के लिये मजबूर नहीं होने देना।
      खर कूकर की भीख जो, निकृष्ट कहाबै सोये।
     कहै कबीर इस भीख मे, मुक्ति ना कबहु होये।।
अर्थात् कुत्ते एवं गदहे की तरह जबर्दस्ती करके ली गई भीख अति निम्न स्तर की है। कबीरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार की भिक्षा एवं दान से किसी को मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता है।
              जन्म से मृत्यु पर्यन्त हम दूसरों की देखा-देखी कुछ पाने की होड़ में कामना करते ही रहते हैं। हम लोगों को जब कभी आर्थिक कठिनाई से झूझना पड़ता हैं या उपरोक्त किसी भी वस्तु की कामना से बेहाल हम होते हैं तो स्वभावत: ही हमारे मन को उस समय यह प्रश्न बहुत उद्वेलित करता है। तब इस प्रश्न का हल खोजना हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हो जाता है।
               मेरा यह मानना है कि माँगना हो तो उस प्रभु से माँगो जिसके खजाने भरे हुए हैं। वह किसी को देकर पश्चाताप नहीं है। वह दाता बहुत ही दयालु है। हमारे बिन माँगे ही हमें झोली भर-भरकर प्रसन्नतापूर्वक देता रहता है। हम ही ऐसे नाशुकरे हैं कि उसी की कद्र नहीं करते, उसका धन्यवाद तक नहीं करते। जब हमें कोई अन्य ठौर नहीं मिलता तब हम उस मालिक को याद करते हैं। सबसे मजे की बात तो यह है कि अपना उल्लू सीधा करने के लिए हम उसी को रिश्वत देने की बात भी करते हैं। जो बिनमाँगे, बिना हम पर कोई अहसान किए हमें छप्पर फाड़कर दिन-रात देता रहता है।
              दुनिया के सामने रोने के बजाय उस प्रभु के समक्ष बैठकर रोना ज्यादा अच्छा है। सच्चे मन से की गई हमारी याचना को झवह अवश्य पूर्ण करता है। दुनियावी लोगों से हम सहायता अवश्य लेते हैं पर उनका अहसान हम पर हो जाता है। वे राई जितना उपकार करेंगे तो पहाड़ जितना गुणगान करेंगे। थोड़ी-सी सहायता क्या करते हैं खुद को भगवान से भी बड़ा समझने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि वे भी समाज का एक अंग हैं जो उससे बहुत कुछ लेते हैं। 
              इसलिए दूसरों की निस्वार्थ सहायता करना उनका दायित्व बनता है। ईश्वर ने यदि उन्हें सामर्थ्य दी है तो उन्हें मालिक को हमेशा यह सिद्ध करके दिखाना चाहिए कि वे उसकी दी हुई नेमतों का सदुपयोग कर रहे हैं। इसीलिए हमारे बड़े-बजुर्गों ने कहा है-
             नेकी कर दरिया में डाल
                       और 
       एक हाथ से दो तो दूसरे को पता न चले।
         आदर्श स्थिति यही कहीं जा सकती है। इससे मनुष्य के मन में कर्तापन का भाव नहीं आता। न ही मनुष्य में अहंकार जागता है। जो मनुष्य ईश्वर को अपने भीतर-बाहर मानकर उसे सदा धन्यवाद देते हैं कि उसने उन्हें इस योग्य बनाया है। वे यदि किसी की सहायता कर सके तो वे वास्तव में वे ईश्वरीय गुणों से युक्त हो जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद