रविवार, 31 अगस्त 2025

समलैंगिक विवाह

समलैंगिक विवाह

समलैंगिक शब्द का अर्थ है एक ही लिंग। वे लड़के हो सकते हैं या फिर लड़कियॉं। समलैंगिकों के विवाह की चर्चा कुछ समय पूर्व सोशलमीडिया, टी वी व समाचारपत्रों में बहुत जोर-शोर से हुई थी। डॉ ओमप्रकाश श्रीवास्तव ने आग्रह किया कि मैं इस विषय पर अपने  विचार लिखूँ। इस विषय पर मेरे विचार प्रस्तुत हैं।
          शास्त्रों के अनुसार शादी एक नवयुवक एवं एक नवययुवती में होती है। ऐसा ही हमारे शास्त्रों में विधान है। कभी-कभी बेमेल विवाह भी होते हैं जहाँ पति और पत्नी की आयु में अन्तर होता है। इसके अतिरिक्त बाल विवाह और विधवा विवाह भी होते हैं। यानी हर स्थिति में दो अलग-अलग लिंग के लोगों में ही वैवाहिक सम्बन्ध बनाते हैं। समाज में यही विवाह मान्य होता है। भारत में ही नहीं पूरे विश्व में ऐसे ही सम्बन्ध होते हैं। मनुष्यों में ही नहीं पूरी सृष्टि यानी पशु-पक्षियों तक में भी इसी नियम का पालन किया जाता है।
             आजकल एक ही लिंग के दो लोग विवाह के बन्धन में बन्धना चाहते हैं। इसका सीधा-सा यह अर्थ है कि युवक युवक से और युवती युवती से विवाह करके एक साथ रहना चाहते हैं। इस विवाह को समलैंगिक विवाह कहते हैं।
            पूरे विश्व में इस समस्या पर आज गम्भीरता से इस विषय पर विचार किया जा रहा है। यूके देश में समलैंगिक लोगों की शादी को कानूनी मान्यता है। परन्तु भारत सहित विश्व के कई देशों में ऐसी शादियाँ प्रतिबन्धित हैं। अभी कुछ दिन पूर्व आयर लैंड जनमत से समलैंगिकों के विवाह की अनुमति देने वाला पहला देश बन गया है।
           समलैंगिक विवाह के इच्छुक हरीश की माँ ने उसकी शादी के लिए किसी दूल्हे (लड़के ) के लिए मुम्बई के एक समाचार पत्र में 19 मई 2015  को विज्ञापन दिया था। तब 20 मई 2015 सायं 6.15 आजतक न्यूज चैनल पर उन दोनों माँ-बेटे से बातचीत की गई। उसके बाद 28 मई 2015 के हिन्दी हिन्दुतान में समाचार प्रकाशित किया कि इस शादी के विज्ञापन पर हरीश की माँ को 150 से अधिक जवाब मिले। इनमें से कुछ लोगों ने नफरत दिखाई और कुछ ने प्रोत्साहित किया। कुछ लोगों ने अभद्र भाषा में मेल करके शादी जैसी संस्था को खत्म करने के लिए उसकी माँ पर आरोप भी लगाया था।
            ‌‌20 मई 2015 के टाइम्स आफ इण्डिया पत्र ने समाचार प्रकाशित किया था कि बंगलौर की दो लड़कियाँ हैदराबाद में मिलीं और कुछ समय एकसाथ रहीं और फिर यू एस ए में शादी करने के लिए गई थीं। कुछ वर्ष पूर्व भी दो लड़कियों ने ऐसा ही प्रयत्न किया था। टी वी ने उनसे इन्टर व्यूह भी लिया था। परन्तु कुछ समय बाद ही उनका ब्रेकअप  हो गया। जो पहले कसमें खाया करती थीं, वे इसलिए अलग हो गई थीं कि वे अब उनमें से एक किसी दूसरे की ओर आकृष्ट हो गई थी।
            वास्तविकता यही है कि इन सम्बन्धों में भी कुछ दिन बाद आकर्षण कम होने लगता है। फिर वे एक-दूसरे को छोड़कर किसी अन्य की ओर आकर्षित हो जाते हैं। यहाँ सामाजिक बन्धन तो है नहीं कि सात जन्मों का बन्धन है। कभी घर-परिवार तो कभी समाज का भय या फिर बच्चों का ध्यान रिश्तों की टूटन को बचा लेता हैं। इस अप्रकृतिक सम्बन्ध में ऐसा कोई बन्धन नहीं होता। एक-दूसरे से ईर्ष्या, घृणा आदि भाव शीघ्र ही पनपने लगते हैं। यह मानवीय स्वभाव है। यहाँ भी मरने-मारने वाली स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
             कहने का तात्पर्य है कि प्राकृतिक यौन सम्बन्धों को छोड़कर अप्राकृतिक सम्बन्ध किसी भी तरह से समाज में मान्य नहीं होते। समाज ऐसे पुरुषों और महिलाओं के प्रति उदासीन रहता है। कुछ समय पूर्व तक ये लोग स्वयं के विषय में किसी से चर्चा भी नहीं करते थे। समाज भी इन लोगों को हेय दृष्टि से देखता था। इसमें कोई दोराय नहीं कि ईश्वर ने इन लोगों को ऐसा ही बनाया है। इनसे घृणा करना उचित नहीं हैं। ये समाज का अभिन्न अंग हैं। इनके साथ सदा ही सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना चाहिए। हमारी भारतीय संस्कृति ऐसे अप्राकृतिक सम्बन्धों को कभी मान्यता नहीं देती।

शनिवार, 30 अगस्त 2025

लिव इन रिलेशनशिप

लिव इन रिलेशनशिप

लिव इन रिलेशनशिप के बारे में लिखने के लिए बहुत आग्रह है आप मित्रों का। अतः इस विषय पर अपने विचार लिख रही हूँ।
           भारतीय संस्कृति के अनुसार लिव इन रिलेशनशिप जैसे सम्बन्ध को कदापि स्वीकृति नहीं दी जा सकती। यह विदेशी सभ्यता (कल्चर) में होता है जहाँ पारिवारिक मूल्य बिखर गए हैं। हमारे संस्कारों में यह सम्बन्ध अनैतिक सम्बन्धों की श्रेणी में गिना जाता है। वैवाहिक संस्था की परम्परा हमारी भारतीय सांस्कृति की रीढ़ है। उसे किसी भी मूल्य पर दूषित नहीं किया जा सकता। अपवाद उपलब्ध हो सकते हैं परन्तु उनके विषय में हम यहॉं चर्चा नहीं कर रहे।
             हम इस बात से कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि दो व्यक्तियों का सम्बन्ध निश्चित ही समाज को प्रभावित करता है। ऐसा कोई नियम तो है नहीं कि लिव इन दो अविवाहितों में ही होगा। यदि रिश्तों की मर्यादा को तोड़ते हुए भी यह सम्बन्ध बनने लगेंगे तब क्या समाज को स्वीकार्य होगा? यानी कि किसी युवक या युवती को पता चले कि उनके माता, पिता, भाई, बहन या कोई अन्य प्रिय सम्बन्धी उन्हीं के किसी अन्य सम्बन्धी के साथ अपने पार्टनर को छोड़कर लिव इन में रह रहा है तो सोचिए इस विषय में कि उनकी मानसिक स्थिति क्या होगा। जो बड़े-बड़े भाषण इसके पक्ष में दे रहे हैं तो शायद वे भी अपने किसी प्रियजन के इस सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करेंगे।
             हाँ, इसके पक्षधर कह सकते हैं कि अपना जीवन जीने स्वतन्त्रता है सबको है। मैं भी कहूॅंगी कि अपना जीवन जीने की आजादी सबको है। परन्तु सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने का अधिकार समाज किसी को नहीं देता। इस स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छ्रंखलता तो कदापि नहीं हो सकता है। मेरे विचार में ऐसे सम्बन्ध में रहने वाले माता-पिता भी अपने बच्चों को स्वीकृति नहीं देंगे। स्वयं लिव इन में रहने वाले युवा भी अपने भाई-बहन को इस सम्बन्ध में नहीं बॅंधने देंगे। 
               माता-पिता अपने बच्चों के अतिमोह में पढ़कर बचपन में ही उन्हें बिगाड़ देते हैं। वे उन्हें समझा नहीं पाते तो उन्हें ईश्वर के भरोसे भी नहीं छोड़ सकते। न ही उनको संस्कारों या मानव जीवन की नयी परिभाषा लिखने की अनुमति दी जा सकती है। कुछ मुट्ठी भर सिरफिरों के कारण रिश्तों की पवित्रता को समाप्त नहीं किया जा सकता। अपनी जिम्मेदारियों से भागने का इन भगोड़ों ने बड़ा अच्छा रास्ता ढूँढ लिया हैं लिव इन समर्थकों ने। दोनों ही साथियों को एक-दूसरे के प्रति समर्पण की कोई आवश्यकता नहीं होती।
              यह बात समझने वाली है कि न तो सभी महिलाएँ धोखेबाज होती हैं और न ही सभी पुरुष। विवाहेत्तर सम्बन्धों को अब लिव इन का नया नाम दे दिया गया है जिसे मात्र दैहिक आकर्षण व शोषण कहा जा सकता है। यह तो बहुत सुविधाजनक सम्बन्ध है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक पुरुष व महिला जब तक एक-दूसरे को सहन करेंगे तब तक साथ रहेंगे। जब उनकी एक-दूसरे को सहन करने की सीमा समाप्त हो जाएगी तब वे दूसरे साथी का चुनाव करेंगे। और फिर वहाँ भी पटरी न बैठी तो फिर अगले साथी की तालाश होगी। यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा? इसे तो हम केवल खुल्लमखुला व्यभिचार ही कह सकते है। यही सब लिव इन के नाम पर हो रहा है और कुछ भी नहीं। 
              दो लोग जब साथ रहते हैं तो आने वाले बच्चों की समस्या से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। लिव इन में सिर्फ स्वछन्दता होती है या मनमाना रवैया। वहाँ किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती और तब भी यदि चूक हो जाए तो उसका अन्त भी शादी ही होगा। समस्या वही होती है कि बिना शादी के बच्चे को हम क्या बतायेंगे? हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि जब उनका रिश्ता ही नहीं तो उनमें माता-पिता का रिश्ता भी नहीं बन सकता है। लिव इन रिलेशनशिप से जो बच्चे पैदा होंगे तो उनके तथाकथित माता-पिता उनके लिए किस प्रकार आदर्श व प्रेरणास्रोत बन सकेंगे? जैसा कि आम जीवन में होते हैं। सोचिए हम अपने बच्चों से बुढ़ापे में लाठी बनने की कल्पना करते हैं क्या उन बच्चों के बारे में वे लोग ऐसा सोच सकेंगे?
            बहुत बार हम ऐसे बच्चों को देखते हैं जिन्हें अविवाहित माताएँ जन्म देते ही छोड़  देती हैं। उन बच्चों को अनाथालयों में अपना जीवन जीना पड़ता है। महाभारत काल के कुन्ती पुत्र कर्ण से बड़ा इसका उदाहरण नहीं हो सकता। राज परिवार में जन्म लेने के पश्चात भी कर्ण सारी आयु अपनी पहचान के लिए व्याकुल रहा। आज भी यहाँ-वहाँ पड़े हुए बच्चे मिल जाते हैं जो लिव इन का परिणाम होते हैं।
            माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यद्यपि इस सम्बन्ध को मान्यता दे दी है। परन्तु धर्म एवं समाज इस सम्बन्ध को कदापि स्वीकार नहीं करते, यही सत्य है।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

बेमेल विवाह

बेमेल विवाह 

अपने आसपास हम कई बेमेल या अनमेल जोड़ों को देखते हैं। इन जोड़ों में बहुधा पुरुषों की आयु अधिक होती है और पत्नी कम आयु की होती है। हालॉंकि यह अपराध नहीं कहा जा सकता परन्तु कई बार यह सम्बन्ध समस्याओं को भी जन्म दे देते हैं। 
             बेमेल विवाह के इस विषय को विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से उठाया है। इससे सम्बन्धित कुछ फिल्में भी बनी हैं। टीवी सीरियल से भी यह विषय अछूता नहीं है। इस बेमेल विवाह के कई कारण हो सकते हैं। आइए इन कारणों पर चर्चा करने का प्रयास करते हैं।
            माता-पिता की आर्थिक स्थिति प्रमुख कारण हो सकती है। इसके अतिरिक्त माता अथवा पिता, किसी एक का परलोक सिधारना भी कारण हो सकता है। कभी-कभी अधिक आयु वाला व्यक्ति धन का प्रलोभन देकर भी ऐसा विवाह कर लेता है। यद्यपि ऐसे विवाह को किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता।
             पत्नी की मृत्यु के पश्चात अपने घर व बच्चों की देखभाल के लिए कम आयु की युवती से विवाह कर लिया जाता है। कभी-कभी युवावस्था में अपने दायित्वों का निर्वहण करते हुए विवाह योग्य आयु कब बीत जाती है, युवक को पता ही नहीं चलता। उस परिस्थिति में भी ऐसा बेमेल विवाह हो जाता है। इसके अतिरिक्त वृद्धावस्था के अकेलेपन को दूर करने के लिए भी कुछ साधन सम्पन्न लोग ऐसा विवाह कर लेते हैं।
              कई बार समय साधनहीन लोग दहेज न दे पाने या अन्य किसी मजबूरी के चलते अपनी कम आयु बेटी का विवाह किसी अधेड़ व्यक्ति से करने के लिए विवश हो जाते हैं। लोग प्रायः उन्हें पिता व पुत्री समझ लेते हैं। इस कारण कभी-कभी उन्हें शर्मिन्दा होना पड़ता है।
            पुरुष यदि अधिक आयु का हो तो वह इसी परेशानी में रहता है कि यदि कहीं उसकी पत्नी को उसका हमउम्र साथी मिल गया और उससे उसे प्यार हो गया तो क्या होगा? इसलिए वह उसकी हर जायज-नाजायज माँग को पूरा करता रहता है। कभी-कभी धन-दौलत के लालच में भी कम आयु की महिला उससे शादी कर लेती है। उसके पीछे प्रायः स्वार्थ ही कारण होता है। स्वार्थपूर्ति हो जाने के उपरान्त उसकी दशा शोचनीय हो जाती है।
              समाज में ऐसा भी देखा गया है कि अधेड़ आयु का पति अपनी पत्नी के अत्याचार व उसका किसी औरर से शारीरिक सम्बन्ध इसलिए सहन कर लेता है ताकि जग हसाई न होने पाए। इस डर से बचने के लिए वह विवश हो जाता है। इससे भी बढ़कर त्रासदी यह होती है कि अधेड़ पति के युवा बच्चे उस कम आयु माँ को स्वीकार न करके उससे नफरत करते हैं।
          इस तरह मनों में घुलने वाला जहर किसी की भी हत्या करवा देता है। कभीकभार पत्नी भी अपने युवा प्रेमी के साथ मिलकर अपने पति की हत्या का पडयन्त्र रच डालती है और फिर सबकुछ लेकर फरार हो जाती है।
             अब हम चर्चा करते हैं जब पत्नी की आयु पति से अधिक होती है। वैसे शादियों के मुहूर्त निकालने वाले पण्डित मानते हैं कि पत्नी यदि आयु में बड़ी हो तो शुभ होता है। वे दो या अढ़ाई वर्ष तक पत्नी का बड़ा होना शुभ मानते हैं।
            समस्या तब होती है जब पत्नी दस से बीस वर्ष तक अपने पति से बड़ी होती है। सहानुभूति के कारण या धन-सम्पत्ति के लालच में किए गए इस वैवाहिक सम्बन्ध में परेशानियाँ अधिक होती हैं। आयु के अधिक अन्तर के कारण पत्नी शीघ्र ही अधेड़ावस्था में पहुँच जाती है और पति अभी युवा ही रहता है। ऐसी स्थिति में वह कामेच्छाओं की पूर्ति के लिए इधर-उधर भटकने लगता है। विवाहेत्तर सम्बन्ध तक बना लेता है। जिसका परिणाम नित्य कलह-क्लेश होता है। इस सम्बन्ध का अन्त भी किसी एक की हत्या हो सकता है।
            पति या पत्नी कोई भी यदि आयु में वृद्ध है तो उसका परिणाम प्रायः सभी को भुगतना पड़ता है। यदि दोनों की आयु में कम अन्तर हो तो गृहस्थी कुछ अधिक सुविधा से चलती है। माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों के बेमेल विवाह कराने से बचें ताकि उनका और उनके बच्चों की जिन्दगी का सफर सुहाना हो सके। पति-पत्नी दोनों प्रसन्नता पूर्वक अपनी गृहस्थी की गाड़ी को चलाने में सक्षम हो सकें।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 28 अगस्त 2025

भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात

भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात

हम अपनी भारतीय संस्कृति पर बहुत गर्व करते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने बहुत सोच-समझकर सारी व्यवस्थाऍं बनाई हैं। हमारी इस भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात करने के लिए पाश्चात्य लोग तैयार बैठे हुए हैं। उनके पिछलग्गू हमारे देशीय महानुभाव भी आग में घी डालने कार्य कर बखूबी निभा रहे हैं। इसका दुष्परिणाम यह है कि वे विवाह जैसी पवित्र सामाजिक व्यवस्था को वे तहस-नहस कर देना चाहते हैं। पर शायद वे भूल रहे हैं-
          यूनान, मिस्र, रोमा सब मिट गए जहाँ से
          बाकी बचा है अब तक नामो-निशाँ हमारा।कहने का तात्पर्य यह है कि कितने देश और कितनी ही सभ्यताऍं इस धरा से मिट गई हैं। परन्तु हमारी सांस्कृतिक विरासत की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि उनको हिला पाना असम्भव है। वह अभी तक दृढ़ता से विद्यमान है।
             हालॉंकि आज के इस भौतिकतावादी युग में देखादेखी जीवन मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। इसका परिणाम है तलाक के बढ़ते मुकदमे। पहले तो अधिक आयु में बच्चे विवाह करते हैं। दोनों पति-पत्नी अच्छे पदों पर कार्य करते हैं और अच्छा कमाते हैं। बच्चों में धैर्य की कमी के कारण आपसी सामंजस्य में कठिनाई आ रही है। कोई भी झुकने के लिए तैयार नहीं होता। ये युवा भूल जाते हैं कि उनके परिवारी जन उनकी ऐसी दशा देखकर कितना कष्ट भोग रहे हैं। उधर बेचारे उनके निर्दोष बच्चे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं जिनका इस सबमें कोई दोष ही नहीं होता।
               कुछ परिस्थितियों में तलाक लेना उचित हो सकता है पर हर केस में नहीं। पति का पत्नी पर अपने अहं के कारण कटाक्ष करना, मानसिक व शारीरिक शोषण करना, दहेज के लिए प्रताड़ित करना आदि सर्वथा अनुचित है। इस प्रकार की स्थिति होने पर भारतीय दण्ड संहिता में महिलाओं की सुरक्षा के लिए बहुत से कानूनों का प्रावधान किया है। उनका उपयोग वह कर सकती है। ये कानून महिलाओं के प्रति बढ़ते उत्पीड़न से रोकने के लिए बनाए गए हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इनकी आड़ में अपना स्वार्थ साधा जाए या निर्दोष साथी को फंसाया जाए।
              कुछ महिलाएँ विवाहेत्तर सम्बन्ध के चलते, पति से अधिक कमाने के कारण, पति का दुर्घटना में विकलांग हो जाने की स्थिति में, उसका नपुंसक होने आदि किसी भी कारण से अपने पति से अलग होना चाहती हैं। दुर्भाग्य है कि वे अपने पति सहित ससुराल के अन्य सभी सदस्यों पर दहेज या प्रताड़ना का झूठा केस दर्ज करवा देती हैं। मेरे विचार से यह सर्वथा अनुचित है। अब अदालतें उन महिलाओं के घड़ियाली आँसुओं से पिघलने वाली नहीं हैं। गलत बयानी करने वालों को सावधान हो जाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें सजा भी हो सकती है। कानून को मजाक समझना बन्द कर देना चाहिए। 
             विवाह जैसे पवित्र बन्धन को दूषित करने वाले चाहे पुरुष हों या महिलाएँ किसी को भी यह समाज क्षमा नहीं करेगा। यह बात गाँठ बॉंध लें कि अपनी सांस्कृतिक विरासत का अपमान करने और दूसरी संस्कृति को आधे-अधूरे मन से अपनाने वालों की स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है जो न घर का रहता है न घाट का। दूसरे शब्दों में हम ऐसा कह सकते हैं कि अपनी विरासत का सम्मान कीजिए। व्यर्थ अहं के कारण उसका तिरस्कार कदापि नहीं करना चाहिए। दूसरों की अच्छाइयों को अपनाने में कोई बुराई नहीं पर उन्हें अपने मूल्यों की कसौटी पर पहले परख लें। ऐसा न हो कि बाद में पश्चाताप करने का अवसर भी हाथ से चला जाए।
             आज विदेशों की तरह हमारे भारत में भी युवाओं को लिविंग रिलेशनशिप भाने लगी है। अपने मन में विचार कीजिए कि इस सम्बन्ध में अपना कहने के लिए कौन है? दोनों के माता-पिता व सम्बन्धी शायद ही इस सम्बन्ध को मन से स्वीकार कर पाएँ। परन्तु सामाजिक संस्कारों से मुक्त होने का दावा करने वाले ऐसे दूषित विचारों वाले युवा जो अपने साथी की बेवफाई सहन नहीं कर पाते तो क्या इस सम्बन्ध में आँखों देखी मक्खी निगल सकेंगे? 
              मेरे विचार में जिन्हें परिवार में रहकर सम्बन्ध निभाने नहीं आते, वे इसे भी अधिक समय तक नहीं निभा सकते। वहाँ भी नित्य प्रति के होने वाले लड़ाई-झगड़ों से वे दो-चार होते रहेंगे। इस स्थिति में उनका शीघ्र ही अलगाव होना निश्चित है। इस प्रकार भेड़चाल चलने से हमारा अपना ही नुकसान होता है। यथासम्भव इससे बचने का प्रयास करना चाहिए। अपनी घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों को प्रसन्नतापूर्वक निभाइए फिर देखिए आपको निस्सन्देह चारों ओर खुशियों की वर्षा होती हुई दिखाई देगी।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 27 अगस्त 2025

सेंध लगाते दुख

सेंध लगाते दुख 

दुख चोरों की तरह सेंध लगाकर हमारे घर में अनचाहे मेहमान की तरह घुस आते हैं और अड्डा जमाकर बैठ जाते हैं। फिर आते ही वे हमारे जीवन में उथल-पुथल मचा देते हैं। चाहे हम अपने घर को किले की तरह कितना ही मजबूत बना लें या चाहे सारी खिड़कियाँ व दरवाजे बन्द कर लें। फिर भी पता नहीं कहाँ से ये घर में घुसने का मार्ग खोज लेते हैं? सबसे छिपते हुए नजरें बचाकर चले आते हैं। घर आकर शान्ति से मेहमानों की तरह नहीं बैठते बल्कि सारे घर को सिर पर उठा लेतै हैं। वहाँ रहने वाले सभी लोगों को अस्त-व्यस्त कर डालते हैं। उस समय घर-परिवार का वातावरण बहुत बोझिल होने लगता है।
             ये दुख बड़ा ही कष्ट देते हैं। जब कष्टदायक समय आता है तो वह इन्सान को नानी याद दिला देता है। ये अपने जाल में उसे इस प्रकार फंसा लेते हैं कि वह जल बिन मछली की भॉंति छटपटाने लगता है। उससे बचने का कोई भी रास्ता उसे सुझाई नहीं देता। मनुष्य समझ ही नहीं पाता है कि उसे किस गुनाह की सजा मिल रही है। इस जन्म में तो उसने किसी का बुरा भी नहीं किया। फिर वह इतने कष्ट क्यों भोग रहा है? यह विषय वास्तव में विचारणीय है। 
              कुछ दुख हमारी अपनी नादानियों या गलतियों के कारण हमें मिलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आलस्य, झूठा अहं, अपने दायित्वों का भली-भाँति निर्वाहण न करना, लापरवाही बरतना, अनजाने में ही समाज विरोधी कार्य में लिप्त हो जाना, समुचित आहार-विहार की ओर ध्यान न देना आदि हमारे आने वाले दुखों का कारण बन जाते हैं। ये सभी कारण हैं जिनका फल हमें शीघ्र ही मिलता है यानी तत्काल, कुछ समय के उपरान्त या इसी जीवनकाल में मिल जाता है। 
             इनके अतिरिक्त कुछ दुख ऐसे भी होते हैं जो इस जीवन काल में हमें अपने प्रारब्ध कर्मों के द्वारा अथवा भाग्य के कारण भोगने पड़ते हैं। सृष्टि की रचना अरबों साल पहले हुई थी, ऐसा हमारे सद्ग्रन्थों का कहना है। हमारे इस भौतिक शरीर में विद्यमान आत्मा ने भी न जाने कितने जन्म लेकर अनेक रूप धारण किए होंगे। हर जन्म में जीव कुछ-न-कुछ अपराध करता है जिसका फल उसे भोगना ही होता है। जिन दोषों का फल वह भोग लेता है वे समाप्त हो जाते हैं। 
            इसके विपरीत जिन दुष्कर्मों का फल हमें नहीं मिल पाता वे सभी संचित(इकट्ठे) होकर जन्म जन्मान्तर तक हमारे साथ ही चलते रहते हैं। उन संचित कर्मों से ही हमारा भाग्य बनता है। इन्हीं कर्मों को भोगने के कारण हम विवश हो जाते हैं। जब तक हम इन कर्मों को भोगकर समाप्त नहीं कर देते तब तक ये हमारे दुख का कारण बनते हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। इसीलिए हमारे बड़े-बुजुर्ग दुष्कर्म न करने का परामर्श देते हैं। परन्तु हम उन्हें अनसुना कर देते हैं।
             ऐसी कपोल कल्पना है कि मृत्यु के देवता यमराज के पास हमारे सारे कर्मों का लेखा-जोखा रखने के लिए कोई बही-खाता है जो चित्रगुप्त के पास रहता है। ये हम लोगों को अपराध या गलत काम न करने से डराने के लिए रची गई है। खैर, ये संचित कर्म हमारे साथ ही रहते हैं जिनके अनुसार हमारा भाग्य या प्रारब्ध बनता है। उसी के अनुसार ही दुख समयानुसार हमारे जीवन में आते हैं और हमें समझाते हैं कि भविष्य के लिए यह चेतावनी है। अब संभल जाओ और अपने जीवन में सत्कर्म करते रहना चाहिए।
            अपने दुख हम चाहें भी तो कम नहीं कर सकते। जब तक उनको हम भोग नहीं लेते तब तक उनसे मुक्ति नहीं मिलती। इसका कारण है जो भी कर्म हम करते हैं उनका फल तो भोगना पड़ता है। इसीलिए कहा गया है-
        अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।
अर्थात अच्छे या बुरे जो भी कर्म हम करते हैं उनको भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। 
            ये कर्मफल पवित्र जल में डुबकी लगाने, तीर्थों की यात्रा करने अथवा तथाकथित गुरुओं की शरण में जाने से नहीं कटते। दुख के समय कोई भी हमारा सहायक नहीं बनता। उस समय सब लोग हमसे अपनी नजरें फेर लेते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं सहायता न करनी पड़ जाए। कहते हैं कि ऐसे कष्ट के समय मनुष्य की परछाई भी तब उसका साथ छोड़ देती है। बस अपने उस कष्टप्रद समय के बीतने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। फिर किसी से क्या शिकवा-शिकायत करनी? 
              उस कठिन समय में ईश्वर की उपासना, सुधी जनों का साथ व वेदादि सद् ग्रन्थों का अध्ययन हमें उस कष्ट से मुक्त होने, मानसिक शान्ति देने और उसे सहने की शक्ति प्रदान करते हैं। इसलिए उस कष्टदायक काल में तथाकथित ज्योतिषियों एवं तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के पास जाकर अनावश्यक धन व समय की बरबादी से बचना चाहिए। ईश्वर पर पूर्ण विश्वास को ही हमें अपना एकमात्र आश्रय बनाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 26 अगस्त 2025

छोटी-छोटी खुशियॉं तलाशिए

छोटी-छोटी खुशियॉं तलाशिए 

हम लोग सुखों को खोजने में इतना अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि बड़ी-बड़ी खुशियों की तलाश करने के लिए यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं। उस चक्कर में हम अपनी छोटी-छोटी खुशियों की ओर ध्यान नहीं दे पाते, उन्हें अनदेखा कर देते हैं। पर शायद यह सब अनजाने में ही हो जाता है। वैसे तो सभी लोग अपने जीवन में खुशियाँ ही चाहते हैं। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में कभी दुखों का सामना नहीं करना चाहता।
             वास्तव में खुशियों के पल जीवन में पलक झपकते ही बीत जाते हैं। या यूँ कह सकते हैं कि रेत पर पड़ी मछली की तरह हमारे हाथ से फिसल जाते हैं। शायद इसलिए हमें ऐसा लगता है कि हम कभी सुखी रह ही नहीं पाए। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि जब सुख आता है  तो उस समय हम बहुत अधिक आनन्द में डूब जाते हैं। तब हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जब हम खुशियॉं मनाऍं तो सारी कायनात हमारे सुख में शामिल हो जाए। आनन्द में सराबोर हमें दिन-रात का भान ही नहीं हो पाता। सुख के ये पल हमें बहुत तेजी से भागते हुए प्रतीत होते हैं। इसलिए हमें लगता है कि सुख आए भी और जल्दी ही चले गए। 
              यहाँ एक उदाहरण प्रस्तुत करती हूँ। मान लीजिए घर में किसी की शादी एक माह पश्चात है। वह पूरा महीना योजनाएँ बनाते, खरीददारी करते, सबको न्योता देने, मेहमानों की आवभगत करते हुए एवं शादी के फंकशन में भाग लेते हुए बीत गया। हमें वह एक महीना ऐसा लगता है कि मानो बहुत थोड़ा-सा समय था जो पलक झपकते हुए सपने की तरह बीत गया। अपने घर-परिवार और अपने सभी बन्धु-बान्धवों के साथ हॅंसी-खुशी में बिताया हुआ वह समय हमें कम लगता है।
              इसके विपरीत दुख का समय जब हमारे जीवन में आता है तब हमें ऐसा प्रतीत होता है कि वह हमें अधिक समय तक घेरकर परेशान कर रहा है। कष्ट का समय बिताए नहीं बीतता। पल-पल हमारी परेशानी बढ़ती रहती है। हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता। बीमारी, दुर्घटना अथवा अन्य किसी कारण आए हुए दुख के समय एक-एक दिन तो क्या पलभर भी भारी हमें लगने लगता है। इस तरह सुख का समय हमें कम लगता है और दुख के समय ऐसा लगता है कि वह रबर की तरह खिंचता ही चला जा रहा है।
             हमें जीवन में छोटी-छोटी खुशियों को ढूँढना है और उन पलों को समेटना है। उन नन्हीं खुशियों को गॅंवाना नहीं है। वे हो सकती हैं- प्रतिवर्ष आने वाले परिवारी जनों के जन्मदिन और शादी की साल गिरह, बच्चे का मनचाहे स्कूल में दाखिला या कैरियर चयन, कक्षा में अच्छे अंक लाना, बच्चे को प्राइज मिलना, घर में किसी छोटी-बड़ी वस्तु की खरीददारी, घूमने जाना, व्यस्तता में कुछ पलों को चुराकर सिनेमा देखना या शापिंग करना अथवा डिनर के लिए जाना। 
               मेहमानों का अपने घर पर आना या स्वयं मेहमान बनकर किसी दूसरे के घर जाना भी तो खुशियाँ ही देता है। इन सभी पलों को समेटने का यथासम्भव प्रयत्न करना चाहिए। इन खुशियों का आनन्द भोगना चाहिए, इनसे वंचित नहीं रहना चाहिए। घर-परिवार में बड़ी-बड़ी खुशियाँ  तो अपने समय पर ही आती हैं। जैसे बच्चे का जन्म, उसका मुण्डन, बच्चे का सेटल होना, शादी-ब्याह, नया घर या गाड़ी खरीदना, व्यापार या नौकरी में सफलता आदि। ये सभी सुख या खुशियाँ नित्य प्रति हमारे जीवन में नहीं आ सकतीं।
              इन सुखों को ढूँढने के लिए जंगलों, तीर्थ स्थानों या तथाकथित गुरुओं के पास, तान्त्रिकों या मान्त्रकों के पास कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। किसी के पास इस समस्या का हल नहीं मिलेगा। यदि किसी के पास इसका हल होता तो दुनिया में भटकाव की स्थिति न होती। हम इस विषय में जानकारी जुटाने के लिए कदापि उत्सुक नहीं होते। हम केवल शार्टकट अपनाना चाहते हैं। वह सम्भव नहीं होता। 
             हमारे पूर्वकृत कर्मों के अनुसार जो भी सुख अथवा दुख हमें जीवन में मिलते है, उन्हें धैर्यपूर्वक भोगना चाहिए। यदि हम बड़ी और छोटी सभी प्रकार की खुशियों का आनन्द ले सकेंगे तो हमारा जीवन बहुत चैन से बीतेगा। अन्यथा हम अनावश्यक रूप से तनावग्रस्त रहेंगे जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। सबसे प्रमुख बात यह है कि हर खुशी या सुख का भोग करते समय हम प्रभु को धन्यवाद देना न भूलें जिसने हमें छप्पर फाड़कर खुशियाँ दी हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 25 अगस्त 2025

मन को मन्दिर बनाऍं

मन को मन्दिर बनाऍं 

मानव शरीर में मन एक बहुत पवित्र स्थान है। हमारे ऋषि-मुनि इसे मन्दिर की संज्ञा देते हैं। मनीषी उसमें ईश्वर की प्राण प्रतिष्ठा करके उसकी आराधना करने का परामर्श देते है।
      विचारणीय है कि यह मन मन्दिर कैसे बने? इसे मन्दिर को बनाने का तरीका क्या है? इस मन को मन्दिर बनाने का बहुत ही सरल उपाय भुल्ले शाह जी ने हमें सुझाया है। वे कहते हैं-
'भुलया रब दा की पाना एत्थे पुटना ओत्थे लाना।'
अर्थात् ईश्वर को पाना बहुत ही सरल है। मन को इधर से हटाकर उधर प्रभु की ओर मोड़ दो।
          दूसरे शब्दों में कहें तो हम सभी जानते हैं कि चावल की खेती करते समय उसे एक स्थान पर बोया जाता है। कुछ समय पश्चात उसे वहाँ से उखाड़कर दूसरे स्थान पर रोपा जाता है। भुल्ले शाह जी का मानना है कि चावल की खेती की तरह अपने मन को सांसारिक बन्धनों से विमुख करके बस ईश्वर की ओर उन्मुख कर दो। जितना कहना सरल है, क्रियात्मक रूप में उसकी अनुपालना उतनी ही कठिन है।
         सन 1965 में बनी फिल्म काजल का भजन है, जिसे लिखा है साहिर लुधियानवी जी ने। साहिर जी के गीतों से मालूम होता है कि वे मन और कर्म को बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। श्रीमती आशा भोंसले ने यह गीत गया था। गीत के बोल इस प्रकार हैं- 
मन ही देवता, मन ही ईश्वर, मन से बड़ा न कोई, 
मन उजियारा, जब जब फैले, जग उजियारा होए,
इस उजले दर्पण पर प्राणी, धूल न जमने पाए।
सुख की कलियॉं दुख के कॉंटे, मन सबका आधार,
मन से कोई बात छुपे न, मन के नैन हजार,
जग से चाहे भाग ले कोई, मन से भाग न पाए।
तन की दौलत ढलती छाया, मन का धन अनमोल,
तन के कारण मन के, धन को मत माटी में रोल,
मन की कदर भूलाने वाला, हीरा जनम गंवाए ॥
        इस गीत में मन को ईश्वर कहा है। मन से बड़ा इस संसार में कोई नहीं है। मन के प्रकाशित होने पर विश्व में प्रकाश होने लगता है। मन एक दर्पण है, जिस पर कवि धूल न जमने के लिए कह रहे हैं। मनुष्य का मन सुख और दुख का आधार है। मन से इन्सान कोई बात नहीं छुपा सकता। इसकी हजारों ऑंखें हैं। दुनिया से व्यक्ति भाग सकता है पर अपने मन से नहीं। शरीर समयानुसार ढलने लगता है। मन रूपी धन बहुत अनमोल है। इसका तिरस्कार नहीं करना चाहिए। मन का सम्मान न करने वाला व्यक्ति, हीरे जैसे अमूल्य जीवन को निस्सन्देह गॅंवा देता है।
       कहने के लिए मन को साधना बड़ा सरल है।  परन्तु मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन बीत जाता है, इस चंचल मन को साधते-साधते। यह एक ऐसा बेलगाम घोड़ा है जो किसी के वश में आता ही नहीं। इस मन को नियन्त्रित करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने 'श्रीमद्भगवद्गीता' के छटे अध्याय में कहा हैं-  
      असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।
       अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
अर्थात् हे अर्जुन! मन को अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है।
       इसे नियन्त्रित करने के लिए पहला उपाय है निरन्तर अभ्यास करना। मन को बार-बार ईश्वर की आराधना में प्रवृत्त करना। वह इधर-उधर भागेगा, उसे पुनः वापिस लेकर आना। दूसरा उपाय है वैराग्य यानी सांसारिक पदार्थो से आसक्ति का त्याग। सभी सांसारिक कार्यों को करते हुए असार संसार में उसी प्रकार रहना जैसे जल में कमल रहता है।
        हमारा मन एक ऐसा पात्र है जिसमें प्रभु के प्रति श्रद्धा व भक्ति के भाव होने चाहिएँ। हम लोगों ने अपने मन को ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि दुर्गुणों का आश्रय बना रखा है। जब तक ये सभी वहाँ घर बनाकर रहेंगे तब तक ईश्वर का निवास नहीं बन सकता।
        जैसे किसी पात्र में हमने कोई वस्तु डालनी हो तो पहले यह विश्वास करना पड़ता है कि वह खाली हो। यदि उसमें पहले से कुछ डालकर रखा हो तो नया पदार्थ उसमें नहीं आ सकेगा। इसलिए बर्तन को पहले खाली करना पड़ेगा और धोकर सुखाना होगा तभी नया पदार्थ उसमें आ पाएगा।
        उसी प्रकार हमें अपने मन में विद्यमान इन सभी दुर्गुणों को वहाँ से दूर करके मन रूपी पात्र को खाली करना होगा। फिर उसमें उस मालिक के नाम की लौ जगानी होगी। तभी वह धुल-पुछकर स्वच्छ होगा। ईश्वर का वास हमारे मन में तभी हो सकता है यदि उसमें प्यार, भाईचारा, दया, ममता,  आपसी विश्वास, परोपकार आदि सद् भावनाओं का उदय होगा।
          ईश्वर हमारे इस मन में सदा ही वास करता है पर हम अपने अहंकार व दुर्गुणों के कारण उससे दूर होते जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब हम न उसे अपने अंतस में महसूस कर सकते हैं और न ही उसकी चेतावनी एवं उत्साहवर्धक प्रेरणा को सुन  पाते हैं। वह तो हमारी रक्षा हर कदम पर करता है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम अज्ञ जन उसकी कृपा को समझ ही नहीं पाते हैं।
        जब हम अपने मन को सद् गुणों से प्रकाशित करेंगे तभी वास्तव में, सही मायने में वह चमकता हुआ मन्दिर बन जाएगा। तब हम वहाँ हम अपने इष्ट को, प्रभु को प्रतिष्ठित कर सकेंगे। तभी इस गीत की पंक्ति को सार्थक कर सकेंगे-
 तेरे पूजन को भगवान बना मन मन्दिर आलीशान।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 24 अगस्त 2025

जीवन एक यज्ञ

जीवन एक यज्ञ

हमारा जीवन एक यज्ञ है जिसे हम प्रतिदिन अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मिलकर करते हैं। यज्ञ को करने के लिए जिस प्रकार औषधीय गुणों से युक्त सामग्री व समिधाओं की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीवन यज्ञ को करने के लिए अपने दुर्गुणों को दूर कर सद् गुणों की आहुति देनी होती है। तभी हमारे जीवन यज्ञ की सुगन्ध दूरदराज तक फैल सकती है। हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जैसे-जैसे हमारे सुकृत्यों की चर्चा चारों ओर फैलेगी, उतनी ही प्रशंसा हमें मिलेगी। 
             हमारे अन्तस में जितना अधिक सद् गुणों का विकास होगा उतने ही हमारे मनोमस्तिष्क में विद्यमान दुर्गुण जीवन यज्ञ की अग्नि में भस्म होते जाएँगे। फिर हमारा अन्त:करण उतना ही शुद्ध व पवित्र होता जाएगा। यह हमारे जीवन की एक विशेष उपलब्धि कही जाएगी। अन्त:करण की शुद्धि होने से हमारे मन में व्याप्त नकारात्मक विचार स्वत: ही किनारा करने लगते हैं। उनके स्थान पर हृदय में सकारात्मक विचारों का उदय होने लगता है। मनुष्य के मन में प्राणिमात्र के प्रति दया और करुणा आदि मानवोचित गुणों का समावेश होने लगता है। 
           यज्ञ में घी की आहुति भी दी जाती है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि हम अपने जीवन में स्नेह की चिकनाई बॉंटनी चाहिए। संसार के सभी जीवों को अपना मानते हुए उनके साथ प्यार का व्यवहार करना चाहिए। हमेशा ही इस बात को याद रखना चाहिए कि वही व्यहार हमें वापिस मिलेगा जो हम दूसरों के साथ करेंगें। सृष्टि का यह नियम अटल है- 
             जैसा बोओगे वैसा काटोगे।
इसलिए भी अपने जीवन में सदा सतर्क रहना बहुत आवश्यक होता है। प्रेम व भाईचारे की भाषा मूक पशु-पक्षी तक जानते व समझते हैं। उन्हें जरा-सा प्यार करो तो वे हमारे ही हो जाते हैं।
             इस जीवन यज्ञ के पुरोधा हमारे अपने माता-पिता होते हैं जिन्होंने ने हमें इस धरा पर लाने का पुनीत कार्य किया। उनको अपने जीवनकाल में प्रसन्न रखना बहुत आवश्यक है अन्यथा इस यज्ञ के खण्डित होने का भय सताता रहेगा। माता-पिता के त्याग और तपस्या को कभी विस्मृत नहीं करना चाहिए। यथासम्भव उनके प्रति सजगता बरतनी चाहिए। हमारे शास्त्र उन्हें ईश्वर तुल्य मानते हैं। उनकी सेवा-सुश्रुषा करने पर ही मनुष्य का जीवन सफल होता है।
             सम्पूर्ण प्रकृति भी यज्ञोमय है। उसका यह यज्ञ सृष्टि के आदि से अब तक निरन्तर चलता जा रहा है। इसीलिए हम सभी जीवों का अस्तित्व विद्यमान है। वह हमारी भौतक माता के समान ही हमारी सारी आवश्यकताओं को बिना कहे पूर्ण करती है। अत: हम उसे माता कहते हैं। वह हमारी सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करती है। वह बदले में हमसे कुछ नहीं मॉंगती। परन्तु हम ऐसे हैं कि उसे सदा दूषित करते हैं। उसकी महानता है कि वह हमें क्षमा कर देती है।
            यज्ञ कुण्ड के चारों ओर जल छिड़का जाता है जो पवित्रता का प्रतीक है। इससे चींटियॉं आदि जीवन यज्ञ की अग्नि में जलने से बच जाते हैं। जल से जो भाप बनती है वह भी लाभदायक होती है। उसी प्रकार हमें भी यथासम्भव दूसरों की सहायता करके उन्हें शीतलता प्रदान करनी चाहिए। उनकी परेशानियों को दूर करने के लिए हमें अपना कदम बढ़ाना चाहिए।
            यज्ञ जिस प्रकार वायुमण्डल को शुद्ध करता है, उसी प्रकार हमारा भी यह दायित्व बनता है कि हम अपने वायुमण्डल को शुद्ध रखें। अपनी मूर्खताओं के कारण उसे दूषित न करें। यदि हम उसे हानि पहुँचाएँगे तो उसका दुष्परिणाम बाढ़, तूफान, भूकम्प, रोगों आदि के रूप में हमारे सामने आएगा। तब हम व्यर्थ जोड़तोड़ करने व्यस्त हो जाते हैं। हम अनावश्यक ही भ्रष्टाचार आदि को अनजाने में बढ़ावा देकर अपने देश और समाज के दोषी बन जाते हैं।
            यज्ञ से कई रोगों से बचा जा सकता है। उसी तरह जीवन यज्ञ को नियमपूर्वक करने वाला सन्तुलित व सात्विक जीवन जीने वाला जीव अनेक व्याधियों से बचा रहता है।
            इस यज्ञ की पवित्र अग्नि से मनुष्य को यह शिक्षा मिलती है कि वह जीवन की आग्नेय शक्ति को जल रूपी धैर्य से सदा बॉंधकर रखे। अकारण अपनी शक्ति का ह्रास न करे बल्कि अपने भीतर की आग को प्रज्ज्वलित करके उसका सदुपयोग करे। उससे शक्ति सम्पन्न होकर देश, धर्म व समाज के लिए हितकारी कार्य करते हुए अपना यह नश्वर जीवन प्रभु को समर्पित कर दे।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 23 अगस्त 2025

अहं का प्रश्न न बनाऍं

अहं का प्रश्न न बनाऍं

हम अपने घर के दरवाजे व खिड़कियाँ रात को बन्द करके रखते हैं। प्रातःकाल सूर्य आता है, हमारे द्वार पर खड़ा रहता है और दस्तक देता है। अब यह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है कि हम अपने घर का दरवाजा खोलते हैं या नहीं। चुपचाप मौन खड़ा रहकर वह कुछ पल हमारी प्रतीक्षा करता रहता है। अपने प्रति हमारे द्वारा की गई उपेक्षा या उदासीनता को देखकर वह हमसे कोई गिला-शिकवा नहीं करता। फिर बिना कुछ कहे ही वह वापिस लौट जाता है। है न यह सूर्य की महानता?
             सूर्य ने कभी इसे अपने अहं का प्रश्न नहीं बनाया। यदि हमारे इस व्यवहार से सूर्य अपना अपमान समझ लेता तो हम लोगों की तरह हमारी शक्ल दुबारा न देखने की कसम खा लेता। अब सोचिए यदि ऐसा हो जाए और सूर्य अगले दिन से ही उदय होने से इन्कार कर दे तो ब्रह्माण्ड की क्या स्थिति हो जाएगी? चारों ओर हाहाकार मच जाएगा। सम्पूर्ण पृथ्वी पर शीत का ही साम्राज्य हो जाएगा। चारों ओर बर्फ-ही-बर्फ जम जाएगी। फिर हर तरफ त्राहि-त्राहि मच जाएगी। हम सभी जीवों का जीवन तत्काल ही समाप्त हो जाएगा।
             चन्द्रमा रात्रि में आकाश को सुशोभित न करें तो चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य हो जाएगा। राहगीरों को कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। सबका मामा कहा जाने जब चन्दा रूठ जाएगा तो उसकी कल्पना कीजिए। चॉंद कवियों और लेखकों की प्रेरणा है। फिर वे बेचारे क्या करेंगे? अब वायु को ही ले लीजिए। यदि वह कहे कि युगों-युगों से बस मैं सबकी जीवनी शक्ति हूॅं फिर भी लोग दूषित करते हैं। अब मैं सबको मजा चखाती हूॅं। बताइए वायु के नाराज होने पर हम पर मर भी जीवित नहीं रह सकेंगे।
              जल भी न जाने कितने ही युगों से हमारी सारी आवश्यकताओं को पूरा करता है। फिर भी हम उसमें गंदगी डालते हैं। उसके नाराज होने पर तो सब कुछ वहीं-का-वहीं थम जाएगा। कृषि न होने की स्थिति में सब भूखे मर जाऍंगे। विद्युत का उत्पादन न होने पर सर्वत्र अन्धेरा अपने पैर जमाकर बैठ जाएगा। हमारी सुविधा के लिए जुटाए गए सभी उपकरण धरे रह जाऍंगे। हमारा जीवन कष्टमय हो जाएगा। इस सबकी कल्पना करके ही हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
               ईश्वर निर्मित सम्पूर्ण सृष्टि इस प्रकार हमारी बेवकूफियों व गुस्ताखियों को नजरअंदाज करके हमें ईश्वरीय नेमतों से मालामाल करती है।
जब प्रकृति हमारी गलतियों की हमें सजा नहीं देती। वह क्षमाशील हो सकती है तो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना हम मनुष्य क्यों नहीं? यह प्रश्न रह-रहकर मन को पुनः पुनः उद्वेलित करता है।
            किसी ने जरा-सा कुछ कह दिया या हमारी ओर ध्यान नहीं दिया तो हम यह मानने लगते हैं कि अमुक व्यक्ति ने हमारा अपमान कर दिया है। उसे हमारी रत्ती भर भी परवाह नहीं है। चाहे यह सब अनजाने में ही हुआ हो। ऐसा भी हो सकता है कि जिसे हम अपना शत्रु मान चुके हैं, वह इस सबसे अनजान हो। परन्तु हम अनावश्यक ही नकारात्मक विचारों की गाँठ मन में बॉंधे  सोच-सोचकर व्यर्थ ही परेशान होने लग जाते हैं। 
             उस समय हम अपने आपे से बाहर होकर किसी भी प्रकार से हर हालत में उस व्यक्ति से बदला लेने के लिए मचलने लगते हैं। कभी उसका चेहरा न देखने की कसम तक खा लेते हैं। भविष्य में उसके घर न जाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हो जाते हैं। यह तो नहीं हो सकता कि हर स्थान पर हमारा ही डंका बोले। हम इतने विशिष्ट हो गए हैं कि सारा संसार हमारी पूजा करे। सबको देख लेने और दुनिया को आग लगा देने वाले हमारे विचार किसी तरह से सही नहीं कहे जा सकते।
      अपने अहन के कारण हर किसी को भी देख लेने और हर कदम पर दूसरों को नीचा दिखाने वाली प्रवृत्ति के कारण हम बदले की आग में जलते रहते हैं। ईर्ष्या और क्रोध की अग्नि में जलते हुए हम अपने दुश्मन स्वयं ही बन जाते हैं। तब हार्ट अटैक, बी पी, शूगर, डिप्रेशन जैसी नामुराद व लाइलाज बीमारियों को हम अनायास ही न्यौता दे बैठते हैं। उस समय दिन-रात एक करके परिश्रम से कमाए गए धन को और अपने अमूल्य समय को हम डाक्टरों के हवाले करते हैं। राई को पहाड़ बनाकर निरर्थक ही हम अपने और अपनों के दुख का कारण बन जाते हैं। अपने स्वास्थ्य व धन की हानि करते हुए अपनी मानसिक शान्ति भंग करने का दुष्कार्य करते हैं। 
              उस समय ग्रन्थों द्वारा समझाए गए ये वचन भूल जाते हैं कि अहंकार करने वाले का कभी भला नहीं होता। उसका अन्त  हमेशा ही भयानक होता है। इतिहास के पन्नों में ऐसे लोगों के नाम सदा के लिए दफन हो जाते हैं। युगों तक कोई भी उनका नाम सम्मान से नहीं लेता। हमें यथासम्भव अपने झूठे अहं से स्वयं को बचाना चाहिए ताकि किसी प्रकार के मानसिक व शारीरिक आघातों से दूर रह सकें। हम प्रकृति की तरह क्षमाशील बनकर अपने जीवन को सन्तुलित रखने में समर्थ हो सकें।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

दोनों हाथों से खुशियॉं बॉंटिए

दोनों हाथों से खुशियाँ बाँटिए

अपने दोनों हाथों से खुशियाँ बाँटिए और फिर देखिए जीवन में कितना सुकून मिलता है। आज की भागमभाग वाली जिन्दगी में यदि कुछ पल खुशियों भरे मिल जाएँ तो किसी का भी जिन्दगी का सफर सुहाना हो सकता है। दुख-परेशानी इस जीवन का अभिन्न अंग हैं, इनसे क्योंकर घबराना। जब भी अवसर मिले खुशियों को बटोरने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए। आश्वस्त होकर उन्हें अपने दामन में समेटे लेना चाहिए।
            सबसे बड़ी बात यह है कि दूसरों को खुशियाँ तभी बाँटी जा सकती हैं, यदि मनुष्य पहले स्वयं प्रसन्न रहना सीख जाएगा। उसके लिए पहले अपने जीवन में सन्तोष का होना ही बहुत आवश्यक है। सन्तोष रूपी धन जब जीवन में आ जाता है तो शेष सभी धन मिट्टी के समान लगने लगते हैं। तब फिर भौतिक पदार्थों के लिए व्यर्थ भटकने की मनुष्य को कदाचित आवश्यकता नहीं रहती। जब मन दुख और परेशानी से व्यथित होता है तो वे भाव उसके चेहरे पर प्रत्यक्ष दिखाई पड़ते हैं। उसी प्रकार सन्तुष्टि का भाव भी मनुष्य के चेहरे पर स्पष्ट रूप से छलकता है।
           इस असार संसार के आकर्षण मनुष्य को ललचाते हैं। उनको और और पाने की चाहत उसे गुमराह कर देती है। तब मनुष्य अनजाने में गलत राह या कुमार्ग पर चल पड़ता है जिससे वापसी असम्भव तो नहीं परन्तु कठिन अवश्य हो जाती है। उस समय मनुष्य सभी प्रकार के सच-झूठ व छल-प्रपंच करने लगता है। अपनी सफेदपोशी की पोल खुल जाने का डर उसे विचलित करता रहता है। फिर उसका पीड़ित हो जाना तो समझ में आता है। ऐसा दिशाहीन होता हुआ मनुष्य अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मार लेता है। वह  परेशानियों के जंगल में चौबीसों घण्टे व्यर्थ ही इधर-उधर भटकता रहता है।
              जब हमारे मन को ये ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार आदि शत्रु डसने लगते हैं तब वह बेचैन होकर बेबस पक्षी की तरह फड़फड़ाने लगता है। उस समय ऐसा प्रतीत होता है मानो कोई हमारा दिन-रात का सब सुख-चैन हर रहा है। तब सारा समय हम दूसरों को गाली-गलौच करने या कोसने में व्यतीत करते हैं। ऐसी स्थिति में मन की शान्ति भंग हो जाती है जो वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। जब मन ही शान्त नहीं होगा तो हम भी प्रसन्न नहीं रह सकते। फिर ऐसे में अपने घर, परिवार, मित्रों व बच्चों सबको खुशी कैसे दे सकते हैं?
           जीवन में बड़ी खुशियों के पल कम ही आते हैं। बड़ी खुशियॉं आती हैं और चली जाती हैं। यानी बच्चे का जन्म, उसका मुण्डन, उसका जीवन में सेटल होना और फिर विवाह आदि। पर छोटी-छोटी खुशियों को हमें खोना नहीं चाहिए। जैसे जन्मदिन, शादी की सालगिरह, बच्चे के टेस्ट या परीक्षा में अच्छे नम्बर आना, घर में कोई नई वस्तु खरीदना, कहीं घूमने जाना आदि जीवन में अनेक पल ऐसे आते हैं जिन्हें हम सेलिब्रेट कर सकते हैं। ऐसी बहुत-सी खुशियॉं हमें मिल सकती हैं।
           यह आवश्यक नहीं कि हम लाखों-करोड़ों रुपए खर्च करें तभी स्वयं खुश रह सकते हैं और औरों को खुश रख सकते हैं। दूसरों के दुख को बॉंटकर उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है। उनके कष्ट के समय इतना अहसास भर दिलाना ही उनकी खुशी के लिए बहुत होता है कि हम उनके साथ हैं। किसी की परेशानी को यदि हम सुन लेते हैं तो भी हम उसकी प्रसन्नता का माध्यम बन सकते हैं।    
            अपनी सामर्थ्य के अनुसार दूसरों के छोटे-छोटे अभावों को दूर करके हम उन्हें खुशियाँ दे सकते हैं। असहायों के लिए दीनबन्धु बन सकते हैं। अपने व्यवहार को सन्तुलित करके भी हम अन्यों को सन्तुष्ट कर सकते हैं। ओल्ड होम, अनाथालय, अन्धविद्यालय आदि स्थानों पर जा सकते हैं। उन लोगों के साथ कुछ पल बिताकर, उनकी बातों में रुचि दिखाकर भी उन्हें खुशियों के कुछ पल दे सकते हैं। इनके लिए कोई मूल्य भी नहीं चुकाना पड़ता।
            खुशियाँ फूलों की भाँति बहुत कोमल होती हैं। ये चारों ओर अपनी सुगन्ध से सबको सुवासित करती हैं और अपने सौन्दर्य से सबको मोहित कर लेती हैं। इन्हें निस्वार्थ भाव से बॉंटने पर दूसरों को प्रसन्नता तो मिलती ही है, अपना मन भी खुश व शान्त रहता है। ऐसा करने पर एक आत्मतुष्टि का भाव अपने मन में रहता है कि हमने जीवन में कुछ सकारात्मक कार्य किया। यथासम्भव अनमोल खुशियों की चाँदनी बिखेरते रहने का यत्न हम सभी को करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

हठ से किसी का भला नहीं

हठ से किसी का भला नहीं 

जिद यानी हठ से किसी के भी भले के लिए नहीं होती। इस जिद की बलि बहुत कुछ चढ़ जाता है।इतिहास साक्षी है कि जिद के कारण जो रामायण काल में और महाभारत काल में जो विनाश हुआ, उसे न चाहते हुए भी सबको भुगतना पड़ा। हठी राजाओं के कारण विश्व को समय-समय पर बहुत हानि उठानी पड़ी है। राजहठ, बालहठ और त्रियाहठ इन तीनों प्रकार के हठों ने साम्राज्यों को सम्पूर्ण विनाश के कगार पर पहुँचा दिया। 
           राजहठ के विषय में हम सब लोग जानते हैं। प्राचीन काल के राजाओं के हठ से हम में से कोई अनजान नहीं है। रावण, दुर्योधन, कंस आदि के हठ के कारण देश का इतना अधिक नुकसान हुआ जिसका भुगतान अभी तक हम सब कर रहे हैं। हिटलर व औरंगजेब के कारनामे आज भी इतिहास के पन्नों में मिल जाएँगे। ये नाम तो मात्र प्रतीक रूप हैं। प्राचीन काल में और भी बहुत से राजा ऐसे हुए हैं जिनके हठ के कारण बहुत बड़े-बड़े अनर्थ हुए।
          आज राजा तो नहीं रहे पर राज्य चलाने वाले सत्ताधीश तो विद्यमान हैं ही। उनके हठ से हम सभी परिचित हैं। रूस, यूक्रेन, अमेरिका, इजरायल, ईराक,  ईरान, चीन, नार्थ कोरिया, पाकिस्तान आदि देशों को भी इस श्रेणी में रख सकते हैं जिनके हठ से हम भली-भाँति परिचित हैं। इन देशों के शासकों ने अपने हठ के कारण न जाने कितने ही मासूमों की  बलि दे दी। अभी भी इन देशों के शासक अपने हठ को नहीं छोड़ रहे। पता नहीं और कितने विनाश का साक्षी यह विश्व बनेगा?
             त्रिया हठ किसी से छुपा नहीं है। यदि भगवती सीता स्वर्ण मृग लाने की जिद न करती तो शायद सीताहरण न होता। जिसके फलस्वरूप रामायण का युद्ध न होता। ऐसे ही द्रौपदी यदि हठ न करती तो शायद महाभारत का युद्ध टल जाता। वह विनाश न होता जिसका खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं। इसी प्रकार के अनेक उदाहरण इतिहास के पन्नों में दफन हो चुके हैं जिन्हें हम खोजकर पढ़ सकते हैं। 
            वैसे तो घर-परिवार में भी त्रियाहठ के उदाहरण यत्र-तत्र मिल जाते हैं। जिस घर में स्त्री का हठ प्रबल हो जाता है, वह घर कभी खुशहाल नहीं रह सकता। और जिस घर में पुरुष अपने मुखिया होने के अहसास के कारण हठ करता है, वहाँ पर सुख-शान्ति कभी नहीं रहती। दोनों ही स्थितियों में घर-परिवार टूटने के कगार पर आ जाता है। इस हठ के कारण पति-पत्नी एक-दूसरे के मानो शत्रु ही बन जाते हैं। उनमें होने वाले अलगाव का दंश बच्चे सारी आयु भोगते हैं।
           इस हठ के कारण माता-पिता, भाई-बहन एवं बच्चों में परस्पर मनमुटाव हो जाता है। रिश्तों में अनचाहे खटास आ जाती है। यदि पति-पत्नी में से कोई भी एक अपने हठ पर अड़ा रहे तो घर टूट जाते हैं। जिसकी परिणति तलाक से होती है। उसका दण्ड उनके निर्दोष बच्चे भुगतते हैं जो बेचारे इस सबसे बेखबर होते हैं। घर-परिवार में चाहे बच्चों का हठ हो अथवा बुजुर्गों का हठ हो, शान्ति का कारण बनता है। इससे घर युद्ध का मैदान बन जाता है। वहॉं पर रहने वालों का जीवन नरक से भी बदतर हो जाता है।
           बालहठ से तो हम सबका प्रतिदिन सामना होता ही रहता है। आजकल माता-पिता ही अपने बच्चों को हठी बना रहे हैं। यही बच्चे बड़े होने पर जब अपनी जायज-नाजायज जिद मनवाते हैं तो माता-पिता अपनी गलती नहीं मानते। वे अपने बच्चों को भला-बुरा कहते हैं, दोष देते हैं। यानी बच्चों से हार मानकर अपने भाग्य को कोसते हैं। उस समय जब बच्चे हाथ से निकल जाते हैं तब पश्चाताप करने का कोई लाभ नहीं होता। उल्टा वे स्वयं की ही हानि करते हैं।
           ऐसे जिद्दी बच्चे जहाँ कहीं भी जाते हैं एक नई मुसीबत खड़ी कर देते हैं। अपने आस-पड़ोस, उनके विद्यालय हर स्थान से उनकी शिकायतें ही माता-पिता को सुननी पड़ती हैं। कोई मित्र या सम्बन्धी ऐसे बच्चों को अपने घर में पसन्द नहीं करता। कोई भी अपने बच्चे को इन हठी बच्चों के साथ खेलने नहीं देना चाहते। सामने मुँह पर लोग कुछ नहीं भी कहेंगे पर पीठ पीछे ऐसे माता-पिता की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि उन्होंने अपने बच्चे को अच्छे संस्कार नहीं दिए।
          यह बालहठ जब परवान चढ़ता है तब वह बड़े-से-बड़े साम्राज्य तक को हिलाकर रख देता है। हठ कोई भी अच्छा नहीं चाहे वह बालहठ हो या त्रियाहठ हो अथवा राजहठ हो। 
            जहाँ तक हो सके इस जिद या हठ से किनारा ही किया जाना चाहिए। इस जिद ने बहुत कुछ की बलि ली है। आगे भी न जाने कितने ही बलिदान लेगा। अपने व अपनों को सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत करवाने के लिए इससे बचना ही श्रेयस्कर है।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 20 अगस्त 2025

रिश्तों में शर्त नहीं

रिश्तों में शर्त नहीं 

 रिश्तों में कभी शर्त नहीं रखनी चाहिए। यदि आपसी सम्बन्धों में शर्तें रखी जाएँ तो वे लम्बे समय तक साथ नहीं निभाते। सारे भौतिक रिश्ते-नाते घर-परिवार, भाई-बन्धु, मित्रादि भावनाओं से जुड़े होते हैं। जहाँ शर्तें रखी जाती हैं, वहाँ पर मनों में दूरियाँ होने लगती हैं। सभी सम्बन्ध मानो चरमराने लगते हैं। इसे कोई भी समझदार व्यक्ति उचित नहीं कहेगा। 
            घर में पति-पत्नी का सम्बन्ध बहुत ही नाजुक होता है। इसमें जरा-सा भी मनोमालिन्य होने पर रिश्ता दरकने लगता है। तब इस सम्बन्ध में अलगाव की स्थिति बन जाती है। सबसे भयावह स्थिति तब होती है जब पति-पत्नी का तालाक हो जाता है और वे दोनों ही जन पुनः विवाह करके अपने-अपने जीवन में सेटल हो जाते हैं। तब माता-पिता के होते हुए भी वे मासूम बच्चे अनाथों की तरह जिन्दगी जीते हैं जिन बेचारों का कोई दोष नहीं होता। यहाँ वही बात हुई कि करे कोई और भरे कोई।
             माता-पिता और बच्चे यदि घर में एकसाथ रहने के लिए शर्तें रखने लगें तो घर में मिल-जुलकर नहीं रहा जा सकता। वहॉं तो अखाड़ा बन जाएगा। जिन माता-पिता का ऋण आयुपर्यन्त सेवा करके भी नहीं चुकाया जा सकता, उन्हीं से मुख मोड़ लेना सभ्य समाज में कदापि मान्य नहीं हो सकता। सभी सदस्यों को मिलकर इसका हल सोचना चाहिए।  ऐसी विषम स्थिति घर में न बनने पाए तभी घर में सुख, शान्ति व समृद्धि का स्थायी रूप से वास हो सकता है।
            भाई-बहन के रिश्ते को यदि शर्तों में बाँधने का प्रयास किया जाए तो वहाँ पर सम्बन्धों की गर्माहट समाप्त हो जाती है। आज भौतिक युग में कई भाई-बहनों में धन-सम्पत्ति को लेकर शर्तें रखी जाती हैं। वहॉं कोर्ट-कचहरी तक में जाने की नौबत आ जाती है। ऐसे परिवारों में निश्चित ही मनमुटाव हो जाता है और रिश्ते समाप्त हो जाते हैं। कोई भी किसी की शक्ल तक नहीं देखना चाहता। वहाँ भाई-बहनों के सम्बन्ध शत्रुता में बदल जाते हैं। ऐसे में ली गई तुच्छ भौतिक धन-सम्पत्ति रिश्तों पर भारी पड़ जाती है। 
             दूर की रिश्तेदारों के साथ सम्बन्धों में तो खैर शर्तों की आवश्यकता ही नहीं होती। वहॉं सब अपनी सुविधानुसार रिश्ते निभाने का प्रयास करते हैं। यदि उन्हें नजदीकी बनाना चाहो तो बहुत अच्छी बात है, नहीं तो भली करेंगें राम। वहाँ सुख-दुख में ही रिश्ता निभा लिया जाए तो मान लिया जाता है बहुत हो गया। उन रिश्तों में शिकवा-शिकायत की गुॅंजाइश कम होती है। सभी लोग अपने में मस्त रहते हैं।
            यदि मित्रता अपनी शर्त पर करना चाहेंगे तो कोई मित्र बनेगा ही नहीं। और यदि तथाकथित मित्रता हो भी जाएगी तो मात्र स्वार्थ के वशीभूत होगी। वह लम्बे समय तक नहीं चलती। जहाँ स्वार्थ पूर्ण हो गए वहाँ 'जय राम जी' की करके सब चलते बनते हैं। फिर 'तू कौन और मैं कौन' वाली बात चरितार्थ हो जाती है। स्वार्थों की पूर्ति के पश्चात वे स्वार्थी मित्र एक-दूसरे तक को पहचानते से इन्कार कर देते हैं। 
              सम्बन्धों को शर्तों के तराजू में तौलने वाला व्यक्ति बहुत जल्दी अकेलेपन का शिकार हो जाता है। सभी लोग उसे मतलबी कहकर उससे किनारा कर लेते हैं। उसे स्वार्थी कहकर उसका उपहास उड़ाते हैं। जब ऐसे व्यक्ति को इस बात की समझ आती है तब सब कुछ हाथ से निकल जाता है और फिर पश्चाताप करने के अलावा कुछ नहीं बचता। सोचने की बात यह है कि आखिर कब तक मनुष्य शर्तों पर सम्बन्ध बना सकता है? कहीं तो एक रेखा खींचनी होगी।
             जब-जब रिश्तों में दरार आती है तो वे टूटने की कगार पर पहुँच जाते हैं। अगर उन्हें पुनः जोड़ने का यत्न किया जाए तो उनमें गाँठ पड़ जाती है। रहीम जी व्यथित होकर हमें समझाते हुए यह कहते हैं-
       रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय।
      टूटे से फिर न जुड़े जुड़े गाँठ  पड़ी जाए॥
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि प्रेम के धागे को मत तोड़ो। टूटा हुआ धागे फिर जुड़ नहीं सकता। यदि उसे जोड़ने का प्रयास किया जाए तो उसमें गॉंठ पड़ जाती है।
और भी कहा है-
       रूठे सुजन  मनाइए  जो रूठें सौ बार।
      रहिमन फिर फिर पोहिए टूटे मुक्ताहार॥
अर्थात् रहीम जी कहते हैं कि अपने प्रियजन यदि किसी कारण से सौ बार भी नाराज हो जाऍं या रूठ जाऍं तो उन्हें मना लेना चाहिए। यदि मोतियों का हार टूट जाए तो उसे बार-बार पिरो लेना चाहिए। इसी में समझदारी होती है।
           सबके साथ प्रेमपूर्वक मिल-जुलकर रहना ही हितकर है। इसलिए अपने रिश्तों को अपने झूठे अहं के कारण शर्तों में बाँधने से यथासम्भव बचना चाहिए। उन्हें सरल और सहज स्वभाव से जीने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 19 अगस्त 2025

समय प्रतीक्षा नहीं करता

समय प्रतीक्षा नहीं करता 

समय कभी किसी की प्रतीक्षा नहीं करता क्योंकि उसे इसकी आदत नहीं है। वह किसी का गुलाम नहीं है। जो समय का गुलाम बन जाता है, समय उसका सर्वस्व हरण कर लेता है। उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। उसकी विशेषता यह है कि वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो समय को नष्ट करता है, वह उन्हें बर्बाद कर देता है। जो व्यक्ति उसका मूल्य पहचान लेता है और उसका सदुपयोग करता है, उसे वह जीवन की ऊँचाइयों की ओर ले जाता है।
           हमें सदा ही समय के साथ-साथ कदमताल करते हुए चलना चाहिए। जो व्यक्ति समय के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलता है, सफलता उसके ही कदम चूमती है।Time is money कहकर हमें यही समझाने का प्रयास किया गया है कि जैसे हम अपने धन की सुरक्षा करते हैं, वैसे ही समय की भी सार-सम्हाल करनी चाहिए। समय के मूल्य को पहचानकर अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने से कार्यों में सफलता अवश्य मिलती है। इसी भाव को संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने अपने 'रघुवंशम्' महाकाव्य में कहा है-
    काले खलु समारब्धा: फलं बध्नन्ति नीतय:।
अर्थात् समय पर जिन नीतियों को आरम्भ किया जाता है, वहीं फलदायी होती हैं।
            इसके विपरीत समय के साथ जो व्यक्ति रेस नहीं लगा पाता, वे समय की दौड़ में पिछड़ जाता है। उसे जीवन के हर कदम पर निराशा एवं असफलता का सामना करना पड़ता है। असफल व्यक्ति का कोई मीत नहीं होता। कोई उसका हाथ थामकर चलना नहीं चाहता। उसके अपने प्रिय बन्धु-बान्धव उनसे किनारा कर लेते हैं। उसके साथ खड़े होने में उन्हें शर्म महसूस होती है। 
      महाभारत में स्पष्ट रूप से कहा है- 
     अकाले कृत्यमारब्धं कर्तुं नार्थाय कल्पते।
अर्थात् असमय (समय बीतने पर) किया गया कार्य व्यर्थ हो जाता है। यानी उसकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है। फिर बस लकीर पीटते रहे जाने वाली बात होती है।
             हमें समय का गुलाम नहीं बनना चाहिए बल्कि उसे अपनी मुट्ठी में कर लेना चाहिए। तभी हम एक सफल इन्सान बन सकते हैं। चारों ओर हमारा यश फैलेगा अन्यथा तब failure व्यक्ति होने का ठप्पा हमारे ऊपर लग जाएगा। तब सभी लोग हिकारत की नजर से देखने लग जाते हैं। यहाँ कोई भी असफल व्यक्ति का साथी नहीं बनना चाहता। हर व्यक्ति उससे किनारा कर लेना चाहता है। उसे सारा जीवन ही निराशा का सामना करना पड़ सकता है। धीरे-धीरे निराशा के गर्त में डूबा व्यक्ति जीवन की बाजी ही हार जाता है।
              जो प्रबुद्ध जन समय रहते उसकी नब्ज पहचान लेते हैं, वे चमत्कार करते हैं। वे ही आकाश की ऊँचाई को छूने से लेकर समुद्र की गहराई तक को नाप लेते हैं। वे लोग ही हमारी सुख-सुविधा के लिए नित्य नए-नए अविष्कार करके सदा मानव जाति को कृतार्थ करते हैं। यही लोग अपने महान कालजयी ग्रन्थों की रचना करते हुए हमारा मार्गदर्शन करते हैं।
           भारतीय संस्कृति के पोषक हम लोग मानते हैं कि यह मानव जन्म बहुत दुर्लभ है। चौरासी लाख योनियों में भटकने के पश्चात ही यह मिलता है। इस अमूल्य जीवन को अपने आलस्य के कारण यूँ ही बर्बाद नहीं करना चाहिए। समय रहते यदि इसे सत्कर्मों में प्रवृत्त किया जाए तभी इसकी सार्थकता है अन्यथा अन्तिम समय हमारे पास पश्चाताप करने का समय भी नहीं बचेगा। महर्षि वाल्मीकि ने 'वाल्मीकिरामायणम्' में कहा है- 
       अत्येति रजनी या तु, सा न प्रतिनिवर्तते। अर्थात् जो रात बीत जाती है वह कभी लौटकर नहीं आती। यानी बीता हुआ समय हमारी पहुॅंच से दूर हो जाता है।
          रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, दुर्योधन, हिटलर जैसे घमण्डियों और विश्व की अनेक संस्कृतियों के विनाश का साक्षी यह समय है। समय कभी पीछे मुड़कर नहीं देखता। वह हम लोगों से भी यही उम्मीद करता है कि अपने अतीत को बार-बार दोहराने का कोई लाभ नहीं। जो गलतियॉं हमने अपने भूतकाल में की हैं, उनसे शिक्षा लेकर कर आगे बढ़ने में ही समझदारी है। अनावश्यक ही उसी स्थान पर जमकर खड़े रहने से हम अपने साथ शत्रुता निभाने का कार्य करते हैं।
           अपनी शारीरिक क्षमता और आत्मिक शक्ति को पहचानकर जब समय रहते हम अपने कार्य का सम्पादन करेंगे तभी कामयाब होने में सफल हो सकेंगे। सफलता का मूलमन्त्र है समय की नब्ज को पहचानकर आगे बढ़ो और मनचाहा फल हाथ बढ़ाकर तोड़ लो। तभी अपने जीवन में हर प्रकार का सुख प्राप्त करने के स्वप्न को साकार किया जा सकता है। समय की रेत पर अपने पैरों के निशान छोड़ने वाला बनने का हमें यथासम्भव प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार समय का मूल्य हम सबको जान-समझकर हमें अपने जीवन में आगे बढ़ते रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 18 अगस्त 2025

हर वस्तु की अपनी उपादेयता

हर वस्तु की अपनी उपादेयता 

 हर वस्तु चाहे वह छोटी है या बड़ी, उसका हमारे जीवन में अपना ही एक स्थान व उपादेयता होती है। इसलिए किसी छोटी-से-छोटी वस्तु की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। न ही किसी को बड़ा मान कर उसे अपने सिर पर ही सवार होने देना चाहिए। अन्यथा कुछ समय पश्चात वही हमारे लिए मुसीबत बन जाता है। तब हमें बहुत कष्ट होता है पर फिर हम कुछ कर नहीं सकते।
             यहॉं हम तिनके का उदाहरण लेते हैं। तिनके को हम बहुत तुच्छ वस्तु मानते हैं। तिनके जैसी तुच्छ चीज जिसको हम फूँक मारकर उड़ा देते हैं। उसकी हमारे जीवन में कोई उपादेयता नहीं होती। पर जब तेज हवा के चलने से यही तिनका आँख में गिरता है तो बड़ा कष्ट देता है। कितने समय तक आँख में लाली बनी रहती है। उसमें भयंकर पीड़ा होती है यानी कि- 'पीड़ घनेरी होय।' तब हमें उसका समझ में आता है कि उसका भी कोई महत्त्व होता है।
           हम  प्रायः अपने घर में देखते हैं कि वस्त्रों की सिलाई के लिए हमेशा सुई जैसी छोटी-सी वस्तु का प्रयोग किया जाता है। यदि सुई न हो तो हम कपड़ों की सिलाई या मुरम्मत का कार्य नहीं कर सकते। वहाँ तलवार जैसी बड़ी व मारक वस्तु का प्रयोग नहीं कर सकते। तलवार रूपी शस्त्र की आवश्यकता युद्ध के मैदान में होती है जहाँ शत्रु का मुकाबला किया जाता है। वहाँ यदि तलवार के स्थान पर सुई लेकर जाएँगे तो निश्चित ही शत्रु हम पर हावी हो जाएगा। रहीम जी ने निम्न दोहे में यही बात कही है -
   रहिमन देख बड़ें को, लघु न दीजिए डारि।
   जहां काम आवे सुई, कहा करें तरवारि।।
अर्थात् रहीम ने इस दोहे में बताया है कि हमें कभी भी बड़ी वस्तु की चाहत में छोटी वस्तु को फेंकना नहीं चाहिए क्योंकि जो काम एक सुई कर सकती है वही काम एक तलवार नहीं कर सकती। अत: हर वस्तु का अपना अलग महत्व है। ठीक इसी प्रकार हमें किसी भी इन्सान को छोटा नहीं समझना चाहिए। जीवन में कभी भी किसी की भी जरूरत पड़ सकती है। सभी अच्छा व्यवहार बनाकर रखना चाहिए।
             इसलिए जहाँ जिस वस्तु की आवश्यकता होती है वहाँ उसका उपयोग करना ही सदा बुद्धिमत्ता होती है। अगर हम ऐसी मूर्खता करने की सोचेंगे तो जग में हँसी का पात्र बनेंगे। इसलिए जहाँ सुई की आवश्यकता है वहाँ हम सुई का प्रयोग करेंगें और जहाँ तलवार की जरूरत है वहाँ तलवार का प्रयोग करेंगे।
             हर वस्तु चाहे वह छोटी हो या बड़ी उसका अपना महत्त्व होता है। एक के होते हुए हम दूसरी को नजरअंदाज नहीं कर सकते। हमें घर-परिवार में सभी वस्तुओं की आवश्यकता होती है। जब किसी एक वस्तु की हमें जरूरत होती है और वह समय पर हमें न मिले तो परेशान हो जाते हैं। जो भी हमारे सामने पड़ता है उसी पर हम झल्लाने लगते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं। जब तक आवश्यक वस्तु को हम जुटा नहीं लेते हमें पलभर भी चैन नहीं मिल पाता।    
          इसी प्रकार अपने जीवन में मिलने वाले सभी लोगों की हमें आवश्यकता होती है। अगर हम यही सोचते रहेंगे कि अमुक व्यक्ति छोटा है हमें उसकी जरूरत क्योंकर पड़ने लगी? तो हम गलत सोचते हैं। घर में कामवाली या नौकर के बिना हम एक दिन भी बिताने में असहाय अनुभव करते हैं।
सारा घर अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसी तरह ड्राइवर के बिना कहीं आनेजाने के लिए लाचार हो जाते हैं। धोबी के बिना हम कपड़े प्रेस करवाए बिना बाहर नहीं जाया जा सकता। माली के बिना घरेलु पौधों की देखभाल में हमें कठिनाई का सामना करना पड़ता है। सफाई कर्मचारी न हो तो घर-बाहर हर ओर गंदगी फैल जाएगी जिससे चारों ओर दुर्गन्ध व बीमारियाँ फैलने लगती हैं। इलेक्ट्रिशियन, कारपेंटर या प्लंबर न मिले तो छोटे-मोटे सुधार कार्य नहीं हो पाते। इनके बिना भी हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी नरक बन जाती है। 
            मात्र केवल बड़े लोगों से दोस्ती करेंगे और छोटों का तिरस्कार करेंगे तो हमारा जीवन दुष्वार हो जाएगा। यही मानकर चलिए कि हमें अपने जीवनकाल में सबकी आवश्यकता होती है। इसलिए बड़े लोगों की ही तरह छोटे लोगों को भी उतना ही सम्मान दें। उन्हें पैर की जूती की तरह समझने की भूल न करें।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 17 अगस्त 2025

अपने मन को बास मानना छोड़िए

अपने मन को बास मानना छोड़िए 

मनुष्य को कभी-कभी यह घमण्ड हो जाता है कि वह जो भी कहता है अथवा करता है, उसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। वह अपने मन को अपना बास मानने लगता हैं। अपने बन्धु-बान्धवों के समक्ष वह बड़ी शान बघारते हुए कहता है कि वह तो बहुत मनमौजी है। वह वही काम करता है जो उसका मन कहता है। वह अपने मन के विपरीत जाकर कोई काम नहीं करता। यहीं पर मनुष्य सबसे बड़ी भूल कर देता है। उसे यह नहीं समझ आता कि अपनी हेकड़ी दिखाते हुए जो वह कर रहा है, उसके सामने जब समस्या आ जाएगी तब वह उससे निपटने में समर्थ हो भी पाएगा या नहीं। 
         अब विचारणीय प्रश्न यह उठता है कि क्या मन सदा मनुष्य को सही सलाह देता है? क्या मन का परामर्श मानना मनुष्य के लिए आवश्यक होता है? मन की कही बात मानने से क्या मनुष्य को सदा सफलता मिलती है?
            मनुष्य इस सत्य को भूल जाता है कि यह मानव मन बहुत चंचल होता है। मनुष्य को ज्ञात ही नहीं हो पाता कि यह क्या क्या कारनामे कर जाता है। इसकी गति और चंचलता का पार मनुष्य नहीं पा सकता। इसलिए इसे अपने वश में करना बहुत आवश्यक है। मनुष्य का मन यदि उसके वश में हो जाए तो समझिए उसका बेड़ा पार हो गया। परन्तु यदि मन मनुष्य के वश में हो गया तो उसका पतन निश्चित हो गया। इसलिए इस पर लगाम कसना हमारे हित में है। 'श्रीमद्भागवद्गीता' में भगवान कृष्ण ने कहा है कि मन बहुत चंचल है इसे अभ्यास और वैराग्य से वश में किया जा सकता है।
           मनीषी कहते हैं- 
   मन साडे आखे नहीं लगदा 
  अस्सी मन दे आखे क्यों लगिए 
अर्थात् जब मन हमारे कहने पर नहीं चलता तो हम उसके कहने पर क्यों चलें? यदि इसके कहने पर चलेंगे तो हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुनने से कतराने लगेंगे। इसका कारण स्पष्ट है कि मन पंख लगाकर उड़ना चाहता है। इसलिए जब बिना मेहनत के सब कुछ पाना चाहेगा है तो प्रायः शार्टकट का सहारा लेगा। उस समय वह हमें कुमार्ग पर चलने के लिए विवश करेगा और हम भी बड़ी खुशी-खुशी उसके सुझाए हुए लुभावने मार्ग पर चल पड़ेंगे। फिर वहाँ से लौटकर आना हमारे लिए बहुत ही कठिन हो जाएगा।
            यह वास्तव में सत्य भी है क्योंकि मन दिनभर खुद तो भटकता ही रहता है और हम सबको भी भटकाता रहता है। मनुष्य को पता ही नहीं चल पाता और यह उसे न जाने कौन-सी गलियों में घुमाकर, सैर करवाकर वापिस ले आता है। पलभर के लिए भी न यह स्वयं चैन से बैठता है और न किसी को चैन नहीं लेने देता। एक स्थान पर बैठे-बैठे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को क्षणभर में नापकर लौट आता है। हजारों-हजार मीलों की यात्रा पलक झपकते ही करके यह ऐसे नादान बन जाता है जैसे उसे कुछ भी पता नहीं। यह सभी इस मन की खूबियॉं हैं। 
         यह मन ही मनुष्य के अन्दर पनपने वाले अवसाद, घृणा,  ईर्ष्या-द्वेष, आशा-निराशा, उपकार-अपकार आदि भावनाओं के साथ-साथ काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि शत्रुओं को भी न्योता देता है। यदि इन भावनाओं और शत्रुओं से मन के कहने पर हम मित्रता कर लेंगे तो समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने में समय नहीं लगेगा। तब घर-परिवार, देश व समाज के शत्रु कहलाकर सबसे अलग-थलग रहकर जीना ही मनुष्य की विवशता बन जाएगी।
    मन में उठने वाली इच्छाओं को पूरा करते हुए मनुष्य जीवन पर्यन्त कोल्हू के बैल की तरह खटता रहता है। परन्तु वे इच्छाऍं हैं कि समाप्त होने का नाम नहीं लेतीं। एक-के-बाद एक करके उठने वाली मनोकामनाएँ मनुष्य को चैन से नहीं जीने देतीं। वह हमेशा अशान्त रहता है। तब शान्ति की खोज में इधर-उधर भटकता रहता है। कभी जंगलों में, कभी तीर्थ स्थानों में, कभी धार्मिक स्थलों में और फिर कभी तथाकथित धर्म गुरुओं की शरण में परन्तु शान्ति ऐसी चिड़िया है जो उसे कहीं पर भी नहीं मिलती। भटकना छोड़कर शान्ति उसे अपने मन में ही मिलती है यदि वह उसे साध लेता है।
        इसीलिए सयाने कहते हैं- 
      मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
हम कह सकते हैं कि मन ही हम मनुष्यों को विनाश के गर्त में ढकेल सकता है और यही है जो हमें आकाश की बुलन्दियों को छूने की सामर्थ्य देता है। जिसने इसे अपने वश में कर लिया वह सिद्ध बनकर ईश्वर तुल्य हो जाता है। समाज को दिशा और दिशा देने का कार्य करता है। और जो इसके बहकावे में आकर भटक जाते हैं वे अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष से बहुत दूर होकर पुनः जन्म-मरण के चक्र में फँस जाते हैं। फिर इस ब्रह्माण्ड की कहें जाने वाली चौरासी लाख योनियों में भटकते रहते हैं।
          यथासम्भव मन के कथनानुसार चलकर परेशान होने के स्थान पर यदि मनुष्य अपनी इच्छा से मन को चलाएगा तो सफलता व प्रसन्नता उसके कदम चूमेंगी। मनुष्य को जीवन में कभी निराशा एवं असफलता का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। अब मनुष्य को स्वयं ही विचार करके अपने रास्ते का चुनाव करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 16 अगस्त 2025

नकारात्मक विचार

नकारात्मक विचार 

 नकारात्मक विचार हमारे अन्तस में अंगद की तरह पैर जमाकर विद्यमान रहते हैं। उन्हें हिला पाना असम्भव तो नहीं पर बहुत कठिन अवश्य हो जाता है। सकारात्मक विचारों पर ये नकारात्मक विचार जब हावी हो जाते हैं तब मनुष्य निराशा के अन्धकूप में गोते खाते हुए डगमगाने लगता है। उसे वहॉं से बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता और वह छटपटाता रहा जाता है।
             नकारात्मक विचार से तात्पर्य है कि मनुष्य हर समय निराश रहता है। अच्छी-से-अच्छी बात में भी वह बुराई ढूँढता रहता है। स्वादिष्ट भोजन में भी उसे आनन्द नहीं आता। दिन-रात निराशा के गर्त में डूबा वह धीरे-धीरे स्वयं ही सबसे कटने लगता है। न तो उसे किसी का साथ अच्छा लगता है न किसी की सलाह पसन्द आती है। टीवी, फिल्म, सैर-सपाटा, मित्रों का साथ, विवाह, पार्टी आदि उत्सव कुछ भी उसे नहीं भाता। इन सबसे वह कन्नी काटने लगता है और वहॉं जाने से कतराते लगता है। यदि उसे उसके घर-परिवार के लोग या बन्धु-बान्धव उसे इन स्थानों पर जाने के लिए जिद करते हैं तो वह उनसे नाराज हो जाता है।
            इस तरह वह अपने आप को सबसे काटकर अकेला कर लेता है, अलग-थलग कर लेता है। सारा समय बस उल्टा-सीधा सोचता रहता है।ऐसी स्थिति यदि लम्बे समय तक चलती रहे तो मनुष्य को किसी पर विश्वास नहीं रहता। उसे ऐसा लगने लगता है कि सभी उसके दुश्मन हैं। इसलिए वह अपने घर के सदस्यों से भी कन्नी काटने लगता है। उसके मन में यही डर घर करने लगता है कि वे किसी-न-किसी बहाने से मार डालेंगे। उसकी ऐसी सोच से सभी परेशान हो जाते हैं। उसे सब समझाते हैं पर अविश्वास का सर्प फन फैलाकर उसके हृदय में बैठ जाता है।
             'आत्मानुशासन' नामक पुस्तक का यह श्लोक हमें समझा रहा है-
     जीविताशा धनाशा च येषां तेषां विर्धिविधि:।
     किं करोति विधिस्तेषां येषामाशा निराशता।।
अर्थात् जिनको जीने की और धन की आशा है उनके लिए विधि विधि है परन्तु उन लोगों का विधि या भाग्य क्या करेगा जिनकी आशा निराशा में बदल गई हो।
             कहने का तात्पर्य यही है कि जीवन में जो व्यक्ति आशा को अपना सखा बना लेता है, वह कभी हार नहीं मानता। सफलता निश्चित ही उसके कदम चूमती है। इसके विपरीत जो व्यक्ति आशा को छोड़कर निराशा का दामन थाम लेता है, वह हर पल दुखी रहता है। उसे किसी का समझाना बुरा लगता है। ऐसा व्यक्ति शीघ्र ही डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। तब उस पर डाक्टरों के पास जाकर अपना मेहनत से कमाया हुआ पैसा और समय नष्ट करना पड़ता है। समस्या यह है कि ऐसे लोग डाक्टर के पास भी तो नहीं जाना चाहते। 
            'जातकमाला' नामक पुस्तक में कवि आर्यशूर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है-
      निरीहेण स्थातुं क्षणमपि न युक्तं मतिमता।
अर्थात् बुद्धिमान का एक भी क्षण निरीह की तरह रहना उचित नहीं। यानी उसे पल भर भी निराश नहीं होना चाहिए।
             जिस क्षण मनुष्य के मन में नकारात्मक विचारों का उदय होता है उसी पल उनका दुष्प्रभाव उसके शरीर पर भी परिलक्षित होने लगता है। शरीर पर होने वाले कुछ प्रभाव यहाँ दे रही हूँ -
1. शरीर एसिड छोड़ता है।
2. मनुष्य की औरा पर प्रभाव पड़ता है।
3.  आत्मविश्वास में कमी आती है।
4. शरीर का पाचन तंत्र प्रभावित होता है।
5. हार्ट बीट बढ़ती है।
6. बल्ड प्रेशर बढ़ता है।
7. अनचाहे हारमोन शरीर से निकलते हैं।
            नकारात्मक विचारों के चलते मनुष्य स्वयं को तो हानि पहुँचाता ही देता है और दूसरों को भी हानि पहुँच सकता है। ऐसा इन्सान आत्महत्या जैसा जघन्य अपराध तक कर बैठता है। वह तो इस जीवन से मुक्त हो जाता है पर अपने पीछे परिवारी जनों के लिए समस्याओं का अम्बार लगा जाता है। पुलिस उन पर शक करती है और बार-बार पूछताछ करने आती है। वे लोग अपनी नजरें झुकाकर चलने के लिए विवश हो जाते हैं। लोग उन पर सन्देह करते हुए उनसे तरह-तरह के प्रश्न पूछते हैं जिनका उत्तर उनके पास नहीं होता। 
            जहाँ तक सम्भव हो सकारात्मक विचारों को अपनाएँ। अनावश्यक सोच-सोचकर स्वयं को पीड़ित नहीं करना चाहिए। अपने समय का सदुपयोग करना चाहिए। सबके साथ मिलजुल कर रहना आरम्भ कीजिए। स्वयं को हमेशा क्रियात्मक कार्यो में व्यस्त रखने का यथासम्भव प्रयास करना चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिए। ईश्वर की उपासना में समय व्यतीत करना चाहिए। एवंविध उपायों को अपनाने लें तो इस निराशा से छुटकारा पा सकते हैं। इसलिए सदा ही सकारात्मक विचारों को अपनाकर नकारात्मक विचारों से बचा जा सकता है और प्रसन्न रहा जा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

दिवास्वप्न मत देखिए

दिवास्वप्न मत देखिए 

स्वप्न देखिए पर दिवास्वप्न नहीं। दिवास्वप्न आलसी लोग देखा करते हैं। सपनों की अपनी एक दुनिया होती है। हम विभिन्न प्रकार के सपने सोते-जागते देखते हैं। प्रायः सभी लोग सोते हुए स्वप्न देखते हैं। उनमें से कुछ स्वप्न हमें याद रह जाते हैं और कुछ स्वप्न हम भूल जाते हैं। जागृत अवस्था में देखें गए सपनों में से कुछ को हम अपने अथक परिश्रम से साकार कर लेते हैं परन्तु कुछ को यत्न करने पर भी पूर्ण नहीं कर पाते। इसकी पीड़ा हमें मृत्यु पर्यन्त कचोटती है।
              हम अपने बूते से बढ़कर सपने देखते हैं तो अपने प्रयासों में सफल नहीं होते। अपनी सामर्थ्य के अनुसार देखे गए स्वप्न अवश्य फलीभूत होते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम सपने सजाना छोड़ दें। हाँ, इतना अवश्य कहना चाहूँगी कि सपनों की दुनिया में खोकर घर-परिवार, भाई-बन्धुओं अथवा अपनी रोजी-रोटी के प्रति अपने दायित्वों को नजरअंदाज न कर दें। ऐसा करना तो जीवन से भागना कहलाएगा। जो व्यक्ति अपना रवैया इसी प्रकार का रखता है उसे कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। समाज की नजर में वह व्यक्ति असफल होता है।
           यहॉं एक कथा का स्मरण हो रहा है। इसे अपने बाल्यकाल में हम सबने सुना होगा। एक नवयुवक काम-धन्धा नहीं करता था पर दिनभर सोचता रहता था, सपने बुनता रहता था। किसी प्रकार उसके पास सत्तू का मटका भर गया। एक दिन वह उस मटके के नीचे चारपाई बिछाकर सो रहा था। तब उसने एक बहुत ही सुन्दर स्वप्न देखा कि उसने सत्तू बेचकर एक गाय खरीद ली है। एक के बाद एक, धीरे-धीरे उसके पास बहुत-सी गाय हो गयीं। फिर किसी सद् गृहस्थ के दरवाजे पर जाकर उसने अपने विवाह की चर्चा की। विवाह के पश्चात उसका एक बेटा हुआ। कुछ समम बाद वह जब चलने लगा तो एक दिन वह गौवों की तरफ बढ़ रहा था। उसे चोट लग जाएगी इस डर से उसे बहुत क्रोध आ गया। गुस्से में उसने अपनी पत्नी को लात मारी कि वह बच्चे को सम्भालती क्यों नहीं। यह क्या हुआ उसके लात मारने से मटका टूट गया। सारा सत्तू उसके ऊपर बिखर गया। तब उसका स्वप्न टूट गया और अपने दुर्भाग्य पर वह रोने लगा, प्रलाप करने लगा। अब तो कुछ भी नहीं हो सकता था सिवा पश्चाताप के। उसकी सारी जमा पूँजी नष्ट हो गई थी। उसके पास अब कुछ भी नहीं बचा था।
           यह कहानी केवल उस दिवास्वप्न देखने वाले युवक की नहीं हम सबकी गाथा है जो मात्र स्वप्नों की दुनिया में खोए रहते हैं। परिश्रम नहीं करना चाहते। जब कुछ लुट जाता है यानी हालात हमारे नियन्त्रण से बाहर हो जाते हैं तब हम जागते हैं और प्रलाप करते हैं। उस समय अपने भाग्य को और ईश्वर सहित सब लोगों को जी भर-भरकर कोसते हैं।
           सपने देखना बहुत आवश्यक है। यदि हम सपने नहीं देखते तो अपने जीवन में उन्नति नहीं कर सकते। सपने देखकर यथोचित प्रयास करके हम उन्हें पूरा कर सकते हैं। विश्व में जितनी उन्नति हुई है, जितने अविष्कार हुए हैं वे सभी किसी-न-किसी के सपनों का ही तो फल है। आकाश में उड़ना,  सागर का सीना चीरकर मोती निकाल लाना, ऊँचे पर्वतों पर चढ़ाई करना आदि सभी ही तो सपनों का प्रतिफल हैं।
             कई बार हम ऐसे सपने देखते हैं जो हमें भविष्य का संकेत देते हैं। वे हमारे जीवन की दिशा व दशा बदल देते हैं। हमें सफलता की ऊँचाइयों पर ले जाते हैं। ऐसे सपनों को व्यर्थ मानकर कूड़े में नहीं फैंकना चाहिए। इस प्रकार सपने सितारों की तरह होते हैं, उन्हें हम कदापि छू नहीं सकते। वे हमें हमारे भविष्य की ओर अग्रसर करते हैं अर्थात् हमारा मार्गदर्शन करते हैं। उन्हें समझकर हम अपने भविष्य को सुरक्षित कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 14 अगस्त 2025

विश्वगुरु भारत

विश्वगुरु भारत 

हमारा भारत कुछ समय पूर्व तक विश्वगुरु कहलाता था। इसका अर्थ यही है कि हमारे भारत देश में कुछ तो विशेष था जो इसे संसार में अग्रणी बनाता था।इसका सम्पूर्ण श्रेय निश्चित ही हम अपनी विशाल ग्रन्थ परम्परा को दे सकते हैं। हमारे वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। हमारी महान विरासत हमें विश्व का सिरमौर बनाती है। हमारा सांस्कृतिक और वैचारिक दृष्टिकोण हमें अन्य संस्कृतियों से अलग करके विशेष बनाता है। उस समय दूर-दूर से छात्र हमारे देश में विद्या ग्रहण करने के लिए आते थे। यह हमारे लिए गौरव का विषय है।
              हमारे प्राचीन ग्रन्थ ज्ञान के अथाह सागर हैं। उनमें वर्णित जीवन मूल्यों की अनुपालना करने से हम इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति कर सकते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि उस विशाल सागर से हम मोती चुनकर लाते हैं या किनारे पड़ी हुई सीपियों से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। अपने ग्रन्थों का यदि हम निष्ठापूर्वक पारायण करेंगे अर्थात् श्रवण, मनन व निधिध्यासन नहीं करेंगे तो हमारा ग्रन्थ भण्डार हमारी किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं करेगा। 
             कितना भी बड़ा पुस्तकालय हमारे पास एकत्रित किया गया हो, वह उस समय व्यर्थ हो जाता है यदि हम उन पुस्तकों का अध्ययन नहीं करते। विभिन्न पुस्तकों में संसार का सम्पूर्ण ज्ञान लिखा हुआ है। अतः हम अपना ज्ञान उसी को कह सकते हैं जिसको अध्ययन करके, साधना करके हम अपने अन्तस में समेटा है। हम अपने ऊपर कितना भी मान कर लें कि हमने अपने घर में पुस्तकों का संग्रह किया है पर यदि हम उन पुस्तकों को न पढ़ें तो वह सारा किताबी ज्ञान वहीं-का-वहीं धरा रह जाता है और हमारे काम कभी नहीं आता। विद्वानों के मध्य हमारी वही स्थिति होती है जैसे हंसो के बीच बगुले की होती है। किसी विद्वान ने सत्य कहा गया है- 
        माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठिता।
        न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।
अर्थात् वह माता शत्रु है और पिता वैरी है जो अपने बच्चे को नहीं पढ़ाते। वह बच्चा विद्वानों की सभा में उसी प्रकार सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों के बीच बगुला।
          इसी तरह हमारे पास जो धन है वही हमारा है शेष नहीं। हमारे पास मान लीजिए बहुत धन है और हम लेन-देन का कारोबार करते हैं या व्यापार का बहुत-सा धन हमारे डीलर्स के पास पड़ा है। उस धन को हम अपना नहीं कह सकते जब तक वह हमारे हाथ में नहीं आता। जब हमें उस धन की सुख या दुख में आवश्यकता होगी तो वह हमें समय रहते मिल जाएगा ऐसा कुछ निश्चित नहीं।
            आचार्य चाणक्य ने 'चाणक्यनीति:' में हमें चेतावनी देते हुए समझाया है-
     पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
    कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम्।।         
अर्थात् पुस्तक में लिखा ज्ञान और दूसरे को दिया हुआ धन दोनों ही मुसीबत के समय काम नहीं आते। हमारे उपयोग में वही धन आता है जिसे हम अपने पास सम्हाल कर रखते हैं। इसी तरह वही ज्ञान हमारा मार्गदर्शक बनता है जिसे हमने अपने जीवन में साधना करके ढाला है।
              मैं अपने सभी साथियों से आग्रह करती हूँ कि अधिक-से-अधिक ज्ञानार्जन करें ताकि समय आने पर उपहास का पात्र न बनना पड़े। इसी तरह अपने खून-पसीने से कमाए हुए धन को भी यथासम्भव हमेशा संग्रहित करके रखना चाहिए ताकि समय आने पर किसी का मुँह न ताकना पड़े। दोनों ही धन (ज्ञान व धन) सदैव हमारे दो बाजू बनकर हमारी रक्षा करने के लिए तत्पर रहते हैं और समाज में हमें यथोचित स्थान दिला सकने में सफल होते हैं।
             अत: रास्ते में आने वाली कठिनाइयों से अपने अर्जित ज्ञान(विवेक) के कारण ही हम जूझने में समर्थ हो सकते हैं। अपने सफल प्रयासों की बदौलत प्रसन्नतापूर्वक अपने जीवन की नौका को संसार सागर से हम पार तैरा सकते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अपने देश भारत को पुनः विश्वगुरु के स्थान पर स्थापित करने के लिए ज्ञानार्जन करना और करवाना बहुत आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद

बुधवार, 13 अगस्त 2025

प्रतिशोध लेना अनुचित

प्रतिशोध लेना अनुचित

बदला अथवा प्रतिशोध लेने से कभी किसी का भला नहीं होता। बदला लेने की भावना मनुष्य को कहीं का नहीं छोड़ती। यह एक ऐसा नकारात्मक भाव है जो सदैव हमारे सन्ताप का कारण बनता है। दूसरे को हानि तो पहुँचते-पहुँचते पहुँचेगी परन्तु अपना नुकसान हम पहले कर लेते हैं। आप कहेंगे कि क्या हम बेवकूफ हैं जो अपना नुकसान करेंगे? 
          यद्यपि यह विश्वास करने योग्य बात नहीं है पर सत्य है। मान लीजिए हमें पता चला कि किसी ने हमें भला-बुरा कहा या हमारा नुकसान कर दिया। अब हम उसे छोड़ने वाले नहीं हैं। हम अपने मन में अनेक बार उसे कोसने या गाली देने का अभ्यास करते हैं। उस व्यक्ति को तो एक बार भला-बुरा कहा पर अपने मन में अनेक बार। अब कहिए स्वयं को कितनी बार उत्तेजित किया, कितनी बार दूसरे के असभ्य व्यवहार पर अपनेआप को पीड़ित किया। हम यह क्रियाएँ दोहरा रहे हैं और जिसके लिए सब कर रहे हैं उसको तो कुछ भी पता ही नहीं। वह तो इस सबसे अनजान है। इस प्रकार हम अपने साथ अनजाने में न चाहते हुए भी अन्याय कर बैठते हैं। यह प्रक्रिया हमारे जीवन में अनायास सतत चलती रहती है।
          इसलिए हमें दूसरे को क्षमा कर देने का यत्न करना चाहिए। छोटी-छोटी बातों का पिष्टपेषण करते रहने या बाल की खाल निकालने से अपनी ही हानि होती है। और न सही पर अपने लाभ के लिए ही दूसरों को माफ कर दें। जो दूसरों को क्षमा नहीं कर सकता वह व्यक्ति अहंकारी कहलाता है। उससे सभी किनारा कर लेते हैं। न तो कोई उसकी प्रशंसा करता है और न कोई उससे मित्रता करना चाहता है। ऐसा व्यक्ति किसी के मन में अपना स्थान नहीं बना सकता। इसके विपरीत क्षमाशील मनुष्य सबका प्रिय बन जाता है। सबके हृदय का सम्राट बनकर उनका अपना बन जाता है।  
            ईश्वर ने मनुष्य को विवेक शक्ति दी है। यदि हम अपने विवेक के परामर्श पर चलेंगे तो हमेशा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ेंगे। अन्यथा जीवन की दौड़ में पिछड़ जाते हैं।
            हम कह सकते हैं कि बदला लेना पशु प्रवृत्ति हैं। साँप-बिच्छु जैसा व्यवहार नहीं करना है। इससे बचने का प्रयास करना चाहिए। यह वृत्ति मनुष्य को स्वार्थी व अहंकारी बना देती है। मनुष्य अपने धन-वैभव, विद्या, सौन्दर्य, पद आदि किसी के भी घमण्ड में हर किसी को देख लेने की धमकी देता रहता है। यह भी तो बदला लेने का ही रूप है। मनुष्य यह भूल जाता है सृष्टि का नियम है कि कभी-न-कभी सेर को सवा सेर मिल ही जाता है। तब ऐसी स्थिति की कल्पना कीजिए।
           अपनी सोच का दायरा संकुचित कर लेने से हृदय में संकीर्णता बढ़ती है। हम छोटे मन वाले होते जाते हैं। यह तो हमारे व्यक्तित्व के साथ मेल नहीं खाता। अपने हृदय को थोड़ा विशाल कर लेने से बदला लेने जैसा विचार खुद-ब-खुद निकल जाता है। ऐसा नहीं है कि लोग हमें मूर्ख समझेंगे और कहेंगे कि यह तो किसी को कुछ कहता ही नहीं। ऐसे व्यक्ति समाज में निस्सन्देह पूजनीय होते हैं। उनकी पीठ पीछे शत्रु भी उनके व्यवहार की प्रशंसा ही करते है।
        शत्रु तो हमारे होते ही हैं परन्तु बदला लेने की आदत बना लेने से मित्र भी हमारे शत्रु बन जाते हैं। इस प्रकार बदला लेने की तुच्छ सोच हमें अपने भाई-बन्धुओं, परिवारी जनों व मित्रों से दूर कर देती है। हम अलग-थलग होने लगते हैं। मेरा मानना है कि अपने सच्चे मित्रों व बन्धुओं को कभी खोना हम नहीं चाहेंगे। हमें यथासम्भव इन स्थितियों से बचना चाहिए। दण्ड देने का कार्य उस प्रभु का है, हमारा नहीं। यह सोच मन में विकसित करनी चाहिए। तब हमारा मन कभी अशान्त नहीं होगा और बदला लेने की प्रवृत्ति मन में घर नहीं करेगी।
चन्द्र प्रभा सूद

मंगलवार, 12 अगस्त 2025

झूठ सच नहीं बनता

झूठ सच नहीं बनता 

झूठ यदि बारबार बोला जाए तो वह सच नहीं बन जाता। उसे कितना ही जोर देकर सच बनाने का प्रयत्न किया जाए या चिल्लाकर सुनाया जाए पर अन्तत: कभी न कभी उसकी पोल खुल ही जाती है। कहते हैं न- 
             झूठ के पाँव नहीं होते।
         कुछ समय के लिए झूठ बोलने वाले उस व्यक्ति विशेष पर लोग विश्वास कर लेते हैं पर शीघ्र ही उसकी सच्चाई सबके सामने आ जाती है। इसका विशेष कारण यह है कि जितनी बार उससे चर्चा करेंगे उतनी बार उसके कथन में अन्तर होगा। जो व्यक्ति झूठ का सहारा लेता है उसकी बात में वजन नहीं होता। जितनी बार वह अपनी अकड़ दिखाने के लिए दूसरों को अपना किस्सा सुनाएगा उतनी ही बार उसके बयान का अन्तर स्पष्ट समझ में आ जाएगा। इसी से सबको पता चल जाता है कि वह झूठ बोल रहा है।
            'ईशोपनिषद्' का यह मन्त्रॉंश हमें सत्य के विषय में समझाता है-
       हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
अर्थात् स्वर्णिम पात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है। यह सर्वथा सत्य है। पर विचारणीय है कि जब वह स्वर्णिम पात्र हट जाएगा तो चमकता हुआ सत्य सबके समक्ष उपस्थित हो जाएगा। तब वही स्थिति होगी- 
        सच्चे का बोलबाला झूठे का मुँह काला।
              जब मनुष्य की सच्चाई सबके सामने आती है तब उसे सबके सामने शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता है। उसे अपनी नजरें झुकानी पड़ती हैं और अकड़ छोड़कर क्षमा याचना करनी पड़ जाती है। कई बार उस झूठ का मूल्य उसे अपने रिश्तों से चुकाना पड़ सकता है। सारा जीवन उसे अपने इस झूठ का व्यवहार करने का मलाल रहता है। कभी-कभी उसे झूठ के व्यापार के लिए अनचाही स्थितियों का सामना भी करना पड़ता है।
              बहुधा व्यापारी उचन्ती (जबानी, बिना लिखा-पढ़ी) में व्यापार करते हैं। यदि वहॉं बेइमानी होने लगे तो व्यापार ही नहीं हो सकता। इसी प्रकार चोरी-डकैती, स्मलिंग आदि जो गलत रास्ते हैं, वहॉं भी ईमानदारी बरती जाती है। यदि कहीं किसी का मन डोल जाए तो उसे सीधी मौत दे दी जाती है, अन्य कोई सजा नहीं।
          ‌असत्यवादी को कोई भी व्यक्ति पसन्द नहीं करता। उसकी बातों को चटकारे लेकर सभी सुनते हैं पर पीठ पीछे जमकर बुराई करते हैं और उसकी खिल्ली उड़ाते हैं। स्वयं असत्य का पल्लू पकड़ने वाले लोग भी सत्य के ही पक्षधर होते हैं। किसी दूसरे के मुॅंह से झूठ सुनना उन्हें बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। दूसरे के झूठ से उन्हें नफरत होती है। उस झूठे इन्सान से अपना नाता तोड़ने के लिए लोग तैयार हो जाते हैं।
            हमारा महान ग्रन्थ 'मुण्डकोपनिषद' हमें इसीलिए चेतावनी देते हैं कि-  
         सत्यमेव जयते नानृतं 
        सत्येन देवयानः पन्थाः विततः। 
       येन आप्तकामाः ऋषयः आक्रमन्ति हि 
       यत्र सत्यस्य तत् परमं निधानमस्ति॥
अर्थात् सत्य की ही विजय होती है असत्य की नहीं। सत्य के द्वारा ही देवों का यात्रा-पथ विस्तीर्ण हुआ जिसके द्वारा आप्तकाम ऋषिगण वहां आरोहण करते हैं जहाँ सत्य का परम धाम है। जब यह सार्वभौमिक सत्य है तो हम इसे कैसे झुठला सकते हैं?
            इस विषय पर भी मनन करना आवश्यक है कि जब हम दूसरों के साथ प्रसन्नता से असत्य का व्यवहार करना चाहते हैं पर सबसे अपने लिए सत्य का व्यापार क्योंकर चाहते हैं? यह विरोधी स्वभाव किसलिए? 
           हमारे बच्चे, घर-परिवारी जन, बन्धु-बान्धव अथवा अधीनस्थ यदि हमारे साथ असत्य बोलते हैं या व्यवहार करते हैं तो हम उन्हें भलाबुरा कहते हैं, कोसते हैं और उन्हें अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। उनसे अपना सम्बन्ध विच्छेद करने तक के लिए तैयार हो जाते हैं। पर तब भी हम अपने गिरेबान में झाँकने का जरा भी कष्ट नहीं करते।
            यदि सब लोग यह समझ पाएँ कि हमें वही काटने को मिलेगा जो हम बोएँगे तो सभी लोगों के आचरण में बदलाव की कल्पना हम कर सकेंगे। यानी कि असत्य के स्थान पर सत्य अथवा झूठ के बजाय सच का साम्राज्य सर्वत्र स्थापित हो जाएगा। इस प्रकार सत्य कथन से बहुत-सी बुराइयों का स्वत: अन्त भी हो जाएगा।
            यह एक कठोर सत्य है कि सत्य का मार्ग बहुत कठिन होता है, कॉंटों से भरा हुआ होता है।असत्य का मार्ग बहुत आकर्षक होता है। उसका अन्त बहुत कष्टप्रद होता है। सत्य के मार्ग पर चलने से पग-पग पर परेशानियों का सामना करना पड़ता है परन्तु फिर भी इसी मार्ग पर चलना सदा ही श्रेयस्कर होता है। सत्य पर चलने का परिणाम सुखद होता है। इसलिए यथासम्भव सत्य के मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

सोमवार, 11 अगस्त 2025

जल में कमल की तरह रहना

जल में कमल की तरह रहना 

 मनीषी हमें समझाते हुए कहते हैं कि इस संसार में जल में कमल की तरह रहना चाहिए। हम सभी जानते हैं कि कमल का फूल कीचड़ में जन्म लेता है। परन्तु फिर भी तालाब के कीचड़ वाले जल का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह उसमें रहते हुए भी वह उससे निर्लिप्त रहता है। तालाब का जल और कीचड़ दोनों उसे छू भी नहीं सकते। यहॉं पर हम कह सकते हैं कि तालाब का जल इस संसार का प्रतीक है और मनुष्य कमल का।
              जल में कमल की भाँति रहने का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम अपना सब कुछ छोड़-छाड़कर इस दुनिया से विदा लेकर साधु-सन्यासी बनकर जंगलों में शरण ले लें। वहाँ पर तपस्या करते हुए गुमनाम रहकर अपने इस भौतिक जीवन की इहलीला को समाप्त करके परलोक गमन कर जाऍं। आजकल न तो वह माहौल ही रह गया है और न ही कोई ऐसा करना चाहता है।
            अपने सभी कार्यकलापों को करते हुए और अपने दायित्वों को भलीभाँति निभाते हुए, उनसे निर्लिप्त रहकर हमें दुनिया में रहना चाहिए। हम यदि ऐसा कर सकें तो दुनिया के सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय, दिन-रात, सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्व कष्ट नहीं देते। मोह-माया के बन्धन हम पर हावी नहीं हो सकते। इसलिए निर्द्वन्द्व होकर दुनिया में रहने से हम सबके प्रिय हो जाते हैं। कमल के फूल की तरह चारों दिशाओं में अपना जलवा बिखेर सकते हैं। समाज में अपना एक स्थान बना सकते हैं।
              'श्रीमद्भवद्गीता' में भगवान श्रीकृष्ण इस अवस्था को स्थितप्रज्ञ की संज्ञा देते हैं। महाराज जनक राज्य के सभी कार्यों को करते हुए, अपने घर-परिवार के दायित्वों का निर्वहण करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते थे। इसीलिए उन्हें विदेहराज जनक कहा जाता है। महाराज जनक की भॉंति अपने सभी दायित्वों का निर्वहण करते हुए हम अपना जीवन व्यतीत करें। भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण आदि महामानव भी अपने इहलौकिक दायित्वों का पालन करते हुए ही इस पृथ्वी पर हमारे आदर्श बने। उनकी हम पूजा-अर्चना करते उ।
               हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि भी अपने-अपने गृहस्थाश्रम का पालन करते हुए संसार में निर्लिप्त होकर रहते थे। ईश्वर की उपासना करते हुए वे अपने लक्ष्य मोक्ष की ओर कदम बढ़ाते थे। 
            विशेष अनुष्ठान करते समय कमल के फूलों को अर्पित किया जाता है, हर पूजा में नहीं। इसी से इस फूल का महत्त्व समझ में आ जाता है। इसी प्रकार संसार में कमल के फूल की तरह रहने वाले मनुष्य भी विशेष होते हैं। वे दुनिया की भेड़चाल में नहीं रहते बल्कि अपनी एक अलग पहचान रखते है। इससे ही उनके महत्त्व को हम समझ सकते हैं। वे जन साधारण की सोच से परे होते हैं। उनके साथ स्पर्धा करना हर किसी के बस की बात नहीं होती। वे असाधारण प्रतिभा सम्पन्न, दयालु, परोपकारी सज्जन व्यक्ति अपने दिव्य गुणों के कारण ही युगों-युगों तक स्मरणीय होते हैं।
            इस श्रेणी में हम उन विभूतियों को स्मरण कर सकते हैं जिन्होंने अपने जीवन की परवाह किए बिना देश, धर्म, जाति व समाज के आत्मोत्सर्ग किया। कितने ही युवाओं ने अंग्रेजों से लोहा लेते हुए अपने प्राणों का बलिदान किया। ऐसे ही महापुरुष इतिहास के रचने वाले होते हैं। उनके उन निस्वार्थ बलिदानों को युगों-युगों तक आने वाली पीढ़ियाँ श्रद्धावनत होकर याद करती रहती हैं।
            जल में कमल की तरह रहना ही इस संसार का सार है। जिसने इस असार संसार के सार को समझ लिया मान लीजिए उसका बेड़ा पार हो गया। जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर, चौरासी लाख योनियों के फेर से वह मनुष्य स्वतन्त्र हो जाता है। फिर वह अपने परम लक्ष्य मोक्ष को निश्चित ही प्राप्त कर लेता है। ऐसा ही व्यक्ति संसार में सबका अपना बनकर महान हो जाता है और ईश्वर का प्रिय बन जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

रविवार, 10 अगस्त 2025

विचारों का जंगल

विचारों का जंगल 

हमारे अन्तस में विचारों का एक घना जंगल है। हम यदि वन में विचरण करने के लिए जाते हैं तो वहाँ की निराली छटा, प्राकृतिक सौन्दर्य हमारा मन मोह लेता है। इस आलेख में हम प्राकृतिक वन की तुलना अपने अन्दर पैठे हुए विचारों के जंगल से करने का प्रयास करेंगे। हमारे अन्तस में विद्यमान इस अरण्य में न तो पूर्णरूप से अन्धेरा होता है और न ही पूरी तरह उजाला होता है। यहाँ पर प्रकाश घने पेड़ों से छन-छनकर आता है। इसलिए हमें इन विचारों की उठापटक सदा झिंझोड़ती रहती है। 
            अन्धेरे विचारों को हम नकारात्मक कह सकते हैं ये विचार हमें सबसे दूर करने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं। इन विचारों के कारण हम अपने जीवन में कभी शान्ति प्राप्त नहीं कर पाते। हम स्वयं तो परेशान रहते ही हैं, साथ-साथ अपनों के दुख का कारण भी बन जाते हैं। यह स्थिति वास्तव में सबके लिए बहुत कष्टकारी होती है। इन विचारों से यद्यपि मन में कलुषता ही उत्पन्न होती है। बार-बार मनुष्य इस विषय में सोचते हुए पिष्टपेषण करता रहता है।इस कारण मनुष्य सदैव भटकता रहता है।
             इसके विपरीत हमारे मन के उजले विचार सकारात्मकता के प्रतीक होते हैं जो हमें सबसे जोड़कर रखते हैं। हम एक इकाई के रूप में रहना पसन्द करते हैं। इन विचारों की बदौलत हम चारों ओर खुशियॉं बॉंटते हैं और स्वयं भी प्रसन्न रहते हैं। हमारे साथ जुड़ने वाले सभी लोग स्वयं को हमसे दूर नहीं करना चाहते। हमारे सद् प्रयासों से घर-परिवार के लोग, बन्धु-बान्धव अच्छी सोच वाले बनते हैं। हमें अपने चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश दिखाई देता है जो आशा का ही एक रूप है।
                इस जंगल में झाड़-झॉंखड़ और कंटीली झाड़ियों जैसे विचार हैं। ये‌विचार  हमारे जीवन में सदा उथल-पुथल मचाते रहते हैं। ऐसे रूखे व कठोर विचार सदा हमें कचोटते रहते हैं। अनायास ही मन में उठ आए ये विचार हमारे सरल मार्ग को कठिन बनाकर हमारे लिए रुकावटें उत्पन्न करते हैं। जैसे खेत से किसान खर-पतवार को उखाड़कर इन्हें फैंक देता है , उसी प्रकार इन्हें अपने मन से उखाड़ फैंकने में ही भलाई होती है अन्यथा ये हमारे लिए कष्टदायी हो जाते हैं। 
            यहाँ छायादार घने और फलवाले पेड़ जैसे विचार भी हैं जो सभी घर-परिवारी जनों और बन्धु-बान्धवों को शीतल छाया एवं सफलता देते हैं। ऐसे सुविचारी लोगों के सम्पर्क में आने वाले सभी धन्य हो जाते हैं। छतनार वृक्ष की भाँति विचारशील ये परोपकारी लोग समाज के दिग्दर्शक बनते हैं। ये देश, धर्म, परिवार और समाज के लिए ईश्वर के लिए हुए वरदान की तरह होते हैं। इन दैवीय गुणों से युक्त सज्जन मनुष्यों का साथ जीवन में कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
              खूशबू फैलाने वाले पेड़ जैसे विचार हैं, वे अपनी सुगन्ध से सभी दिशाओं को सुबासित कर देते हैं। जिस ओर ये लोग निकल जाते हैं, इनकी खुशबू उनसे पहले पहुँच जाती है। जन साधारण के प्रिय बन जाने वाले ये सम्माननीय सभी को खुशियाँ व सुगन्ध से सराबोर कर देते हैं।
            कौवों की कॉंव-कॉंंव जैसे कर्कश या कठोर विचारों का होना हमारे लिए कभी अच्छा नहीं होता। किसी के घर की मुॅंडेर पर कॉंव-कॉंव करने वाले कौवे को लोग पसन्द नहीं करते बल्कि उसे कंकर मारकर उड़ा देते हैं। उसी प्रकार ऐसे लोगों की कोई भी परवाह नहीं करता। कोई उनका साथ नहीं देता है। सभी उनसे दूरी बनाकर रहना चाहते हैं।
              हमारे विचारों में शेर की-सी हिंस्र प्रवृति भी विद्यमान रहती है। इसके कारण होता है मन में क्रूरतापूर्ण विचारों का आना। इन हिंसक विचारों के मन में आने पर ये लोग हत्या, बलात्कार, किसी का गला काटना, चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार आदि जैसे घृणित कार्य करने लगते हैं। इस प्रकार ही यह  परिणाम विध्वंस के रूप में सबके समक्ष आता है। ऐसे विचार वाले लोग समाज के शत्रु कहलाते हैं। न्याय व्यवस्था के दोषी बनकर ये सबसे कटकर रहते हैं व दण्ड पाते हैं।
             इन सबके अतिरिक्त पक्षियों के समान कलरव करते विचार मोहिनी शक्ति रखते हैं। सभी लोग इनके मधुर व्यवहार से प्रसन्न रहते हैं इनका संसर्ग करने के लिए लालायित रहते हैं। नदी झरनों की कलकल वाले विचार शान्त, ठहराव वाले व दूसरों के लिए पूर्णतः समर्पित रहते हैं। कभी-कभी नदी की तरह तूफान का भी सामना करते हैं पर प्रायः अपना सर्वस्व समाज के लिए बलिदान करने में नहीं हिचकिचाते।
              समुद्र-सी गहराई वाले विचारों का भी उदय होता है। ये अपने में असीम शक्तियाँ समेटे गहन गम्भीर होते हैं। इनकी थाह पाना सम्भव नहीं होता। ऊपर से कड़वे प्रतीत होने वाले ये विचारवान लोग समाज के रत्न हैं। इनकी चमक के समक्ष सब कुछ फीका रह जाता है। ये समाज के लिए हीरे के समान मूल्यवान होते हैं।
             विचारों के मकड़जाल में घिरे  हुए हम लोग हमेशा उलझे ही रहते हैं। जितना हम उससे बाहर निकलने के लिए हाथ-पाँव मारते हैं, उतना ही गहरे फंस जाते हैं। इसलिए हमें अपने विचारों को उचित मार्गदर्शन देते हुए ईश्वर से सद् बुद्धि की प्रार्थना बारम्बार करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 9 अगस्त 2025

धारा के विपरीत चलना

धारा के विपरीत चलना

धारा के साथ तो सभी चलते हैं। यह आसन-सा रास्ता होता है। इसमें प्राय: खतरे की सम्भावना कम होती है। जीवन एक निश्चित ढर्रे पर चलता रहता है। परन्तु धारा के विपरीत चलना बहुत कठिन होता है। इस राह पर चलने वाला वास्तव में महान होता है। इस मार्ग में पल-पल पर चुनौतियॉं मुॅंह बाए‌ खड़ी रहती हैं। धारा के विपरीत चलने वाले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। जिनके लिए उनके सामने और उनके पीछे हम आम भाषा में कुछ विशेष विशेषणों का प्रयोग करते हैं- सिरफिरा, पागल, जनूनी, खपती आदि। 
               इन सम्बोधनों का उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे इन फब्तियों की परवाह करने लगें तो अपना मनचाहा कार्य कर ही नहीं सकते। वे इन सभी बातों को एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं। अपनी ही धुन के पक्के ये लोग दुनिया की फब्तियों को अपना अस्त्र बना लेते हैं। एक बार जो मार्ग अपने लिए निर्धारित कर लेते हैं तो फिर उस मार्ग से वे नहीं भटकते। निष्ठापूर्वक आगे बढ़ते हुए अपने लक्ष्य का सन्धान करके ही साँस लेते हैं।
              ऐसे संकल्पित लोग इस बात की तनिक भी परवाह नहीं करते कि भीड़ उनके साथ चल रही है अथवा उनके पीछे चल रही है या उनके साथ कोई नहीं है। कोई व्यक्ति उनका साथ देगा या नहीं? कहीं वे इस संसार में अकेले तो नहीं रह जाएँगे? इस सोच से परे वे अपनी धुन में अकेले ही मस्ती से चलते रहते हैं। वे उस शेर की तरह अकेले चलते हैं जो जंगल का राजा है। सभी पशु उसके पीछे-पीछे लगे रहते हैं। वैसे झुण्ड में तो भेड़ और बकरियाँ चलती हैं, शेर कभी नहीं चलते हैं। कहते भी हैं -
   लीक लीक गाड़ी चले, लीकहीं चले कपूत।
   बिना लीक तीनों चलें,शायर, सिंह,सपूत।।
        धारा के प्रवाह में वही बहते हैं जो लकीर के फकीर होते हैं। बिना अधिक श्रम किए सब कुछ पा लेना चाहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या अधिक है। धारा के विपरीत जो चलने वाले मुट्ठी भर लोग होते हैं। इन्हीं लोगों के परिश्रम के परिणाम स्वरूप हम भौतिक सुख-सुविधाओं का भोग कर रहे हैं। यदि सभी लोगों की तरह ये भी अपनी जिन्दगी जीते तो कदाचित हम वैज्ञानिक चमत्कारों से आज वंचित होते। इतने ऐशो आराम से न जी रहे होते।
              ऐसे ही सिरफिरे नौजवानों के बलिदान का परिणाम है हमारे देश भारत की स्वतन्त्रता। हम इन महाविभूतियों की बदौलत ही अपने देश में और विश्व में शान से सिर उठाकर चल रहे हैं। अब हमें अपना सिर झुकाकर शर्मिन्दा होने की आवश्यकता नहीं है। उन स्वतन्त्रता सैनानियों ने यदि लीक से हटकर देश को स्वतन्त्र करवाने का बीड़ा न उठाया होता तो शायद हम आज भी पराधीन होते। विदेशों में भी आज हमारा देश अपना एक स्थान रखता है। विश्व में हमारे भारत ने अपनी एक विशेष पहचान बनाई है।
              हमारे सुप्रसिद्ध समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले,  बाबा आम्टे, विनोबा भावे, डॉ भीमराव अम्बेडकर आदि महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं जो किसी की परवाह किए बिना ही समाज में फैले अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का विरोध करते रहे हैं। कुछ सीमा तक हम कई कुरीतियों से मुक्त भी हुए हैं। समाज को दिशा देने का कार्य करते हुए ये जहर तक हंसते हुए पी लेते हैं। 
             ये सभी महापुरुष अपने-अपने घर में सुखपूर्वक अपनों की छत्रछाया में रह सकते थे। इनका भी हमारी तरह इनके माता-पिता ने बड़े प्यार से पालन-पोषण किया था। परन्तु समाज के हित को इन महापुरुषों ने आगे रखा। अपने विषय में, अपने आराम के बारे में इन लोगों ने नहीं सोचा। इन लोगों में कुछ कर गुजरने के जनून ने ही इनको धारा के विपरीत चलने के लिए विवश किया। मन से विचार कर ही इन महानुभावों ने कॉंटों भरे मार्ग पर चलने का संकल्प लिया।
               ये सभी समाज सुधारक फूलों की सेज पर नहीं रहते थे बल्कि समाज के प्रहार एवं विरोध के बावजूद उसकी दशा व दिशा सुधारने के संकल्प को पूर्ण करने में ईमानदारी से जुटे रहे। इन्हें कोई लालच, कोई आकर्षण, कोई धमकी अथवा कोई डर उन्हें अपने निर्धारित मार्ग से डिगा नहीं सका। इसीलिए ये लोग समान हैं। इनका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाता है। हम सभी श्रद्धा से इनका नाम लेते हैं।
              यह कदापि नहीं सोचना चाहिए कि हम समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होकर ही धारा के विपरीत चलेंगे। मेरे विचार में ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। ऐसे कुमार्ग पर चलने वाले तो न्याय व्यवस्था के दोषी होते हैं। ऐसे लोग डर-डरकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ये लोग समाज, देश और घर-परिवार के लिए शत्रु का कार्य करते हैं। स्वयं तो सलाखों के पीछे रहते ही हैं और अपनों के विषाद का कारण भी बनते हैं। इन लोगों को हम पथप्रदर्शक नहीं कहते वे तो सबके लिए शत्रु ही कहलाते हैं।
              नदी में नाव को उसके बहाव के साथ नाविक आसानी से चला लेता है परन्तु नदी की धारा के विपरीत चलाने में उसे बहुत कठिनाई का सामना उसे करना पड़ता है। उसी प्रकार धारा के विपरीत चलने वाले कृतसंकल्पी लोग ही देश, समाज व विश्व के सिर पर ताज के समान होते हैं। मानवजाति के कण्ठ के हार होते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

शुक्रवार, 8 अगस्त 2025

भाई-बहन का प्यार

भाई-बहन का प्यार 

भाई-बहन का सम्बन्ध अटूट होता है। यह ईश्वर की ओर से दिया गया एक अनमोल उपहार है। एक घर तभी पूर्ण कहा जाता है जहॉं पर बेटी और बेटा दोनों होते हैं। ये दोनों अर्थात् भाई और बहन एक-दूसरे के पूरक होते हैं। भाई यदि घर की शान होता है तो बहन घर का मान होती है। बहन के लिए भाई का और भाई के लिए बहन का प्यार अमूल्य होता है। भाई-बहन का रिश्ता बहुत गहरा होता है। यह रिश्ता प्यार, देखभाल और कभी-कभी झगड़ों से भरा होता है। हमेशा एक-दूसरे के प्रति इन दोनों का एक मजबूत बन्धन होता है।
            भारतीय संस्कृति में भाई-बहन का बन्धन अनमोल माना जाता है। मृत्युपर्यन्त भाई इस रिश्ते को अपना कर्तव्य के समझकर, अपनी हैसियत के अनुसार भली-भाँति निभाता है। इसी रिश्ते के प्रतीक-स्वरूप रक्षाबन्धन व भैयादूज त्योहार मनाए जाने हैं। ये सामाजिक त्योहार भाई-बहन के प्रगाढ़ बन्धन के प्रतीक हैं। रक्षाबन्धन जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस त्योहार में बहन अपने भाई को राखी के रूप में रक्षाकवच बाँधती है और भाई उसे यथाशक्ति उपहार देकर आयुपर्यन्त रक्षा उसकी करने का वचन देता है। 
             भैयादूज पर बहन भाई के माथे पर तिलक लगाती है। भाई सामर्थ्यानुसार बहन को उपहार देता है। भाई चाहे छोटा हो या बड़ा हमेशा अपनी बहन का सहारा बनता है। बहन को भी अपने भाई पर मान होता है। माता-पिता के न रहने के पश्चात बहन का मायका भाई-भाभी से बना रहता है। भाई-बहन बड़े चाव से एक-दूसरे की खुशियों के साथी बनते हैं। भारतीय संस्कृति में बहन की जब शादी होती है तो भाई उसके हाथ में खील या लाजा डालता है। जब भाई का विवाह होता है तो बहन बड़ी हसरतों से उसके माथे पर सेहरा सजाती है। बहन के बच्चों की शादी में भाई मायरा देता है।
            इस प्रकार भाई-बहन का एक-दूसरे से अटूट प्यार और समर्थन उनकी पूॅंजी होती है। दोनों एक-दूसरे की परवाह करते हैं, देखभाल करते हैं। यह प्यार बचपन से ही शुरू होता है और जीवन भर बना रहता है। भाई-बहन एक-दूसरे के लिए सुरक्षा और समर्थन का स्रोत होते हैं। कठिनाई के समय वे एक-दूसरे की दिल से मदद करते हैं। कन्धे-से-कन्धा मिलाकर साथ खड़े रहते हैं। भाई-बहन के बीच कभी-कभी झगड़े भी होते हैं और प्रतिस्पर्धा भी होती है। यह सब उनके पवित्र प्यार का ही एक हिस्सा होता है।
         ‌   भाई-बहन एक-दूसरे के दोस्त और साथी भी होते हैं। ये दोनों हमराज होते हैं। एक-दूसरे के साथ ये समय बिताना पसन्द करते हैं। एक-दूसरे की कम्पनी का आनन्द लेते हैं। इन दोनों में रिश्ता जीवन भर बना रहता है। समय अथवा स्थान की दूरी इस रिश्ते में मायने नहीं रखती। एक-दूसरे से दोनों सामाजिक कौशल सीखते हैं। बातों, कामों या किन्हीं अन्य वस्तुओं को आपस में साझा करते हैं ।परस्पर एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। एक-दूसरे को अपने मम्मी-पापा के गुस्से से बचाने काम करते हैं। उस स्थिति में ये दोनों एक-दूसरे का रक्षा कवच बन जाते हैं।
              भाई-बहन को एक-दूसरे का भावनात्मक समर्थन प्राप्त होता हैं। परिवार में रहते वह उनके भावनात्मक विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है।‌ भाई-बहन एक-दूसरे को प्रोत्साहित करते रहते हैं और आत्मविश्वास बढ़ाते रहते हैं। भाई-बहन के साथ रहने के कारण वे अन्य रिश्तों को भली-भॉंति समझ पाते हैं। यद्यपि आज के भौतिकतावादी युग में ये सम्बन्ध भी अछूता नहीं रहा। कहीं-कहीं किन्हीं परिवारों में धन-संपत्ति को लेकर भाई-बहन के संबंधों में कुछ कड़वाहट अवश्य आ गई हैं। पर वे कुछ परिवार अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं।
            यहाँ मैं एक बात और स्पष्ट करना चाहती हूँ कि जिस धर्म में अपने रक्त सम्बन्धों में विवाह की अनुमति है, वहाँ भी सगे भाई-बहन में विवाह निषिद्ध है। इस कथन का यहॉं संकेत करने का यही तात्पर्य है कि भाई-बहन का सम्बन्ध बहुत ही पवित्र है इसे उन दोनों को ही सच्चे मन से निभाना चाहिए। यहाँ पर हम यह बात भी जोड़ सकते हैं कि भारतीय संस्कृति में यदि सगी बहन न होते हुए, किसी युवती को बहन मान लिया जाता है तो उसके साथ भी ताउम्र वैसा ही सम्बन्ध निभाया जाता है जैसा रिश्ता अपनी सगी बहन के साथ निभाया जाता है।
           आधुनिकता की अन्धी दौड़ और पाश्चात्य प्रभाव के कारण कुछ भाई और बहनों में विवाद होने लगा है। माता-पिता की धन-सम्पत्ति के बटवारे में कुछ बहनें अपना हिस्सा मॉंगने लगी हैं। यदि उनकी इस इच्छा को नहीं माना जाता तो मामला कोर्ट-कचहरी तक चला जाता है। ऐसे घरों में दोनों भाई-बहन में मन मुटाव हो जाता है। वहॉं आपसी सम्बन्ध समाप्त हो जाते हैं। उन दोनों में दूरियॉं इतनी बढ़ जाती हैं कि वे एक-दूसरे का मुॅंह तक नहीं देखना चाहते। आजकल वैधानिक तौर पर माता-पिता की सम्पत्ति में सभी भाई-बहनों का बराबर का अधिकार कहा गया है।
              कुछ अपवादों को छोड़कर अभी भी बहनें अपने माता-पिता की सम्पत्ति में अपना अधिकार भाई के लिए छोड़ देती हैं। ईश्वर से  प्रार्थना है कि भाई और बहन के इस अनमोल रिश्ते की पवित्रता को बनाए रखे।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 7 अगस्त 2025

मरणधर्मा जीव

मरणधर्मा जीव

मानव के इस शरीर का स्वभाव मरणशील है। यह संसार ही मरणधर्मा कहलाता है। मरणधर्मा का अर्थ है कि जिसका जन्म इस पृथ्वी पर हुआ है उसे इस संसार से विदा लेनी पड़ती है अर्थात् उसका अन्त निश्चित है। इसीलिए इस पृथ्वी को मृत्युलोक कहते हैं। इस मृत्युलोक में जो जन्म लेता है चाहे वह मनुष्य है, पशु-पक्षी है, पेड़-पौधे हैं यानि की सम्पूर्ण चराचर जगत अपना-अपना समय पूरा करके इस संसार से विदा ले लेता है। अपना समय से तात्पर्य यह है कि अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर जो आयु निर्धारित करके धरा पर भेजता है वही उसका अपना समय कहलाता है।
           इसीलिए इस संसार को असार भी कहते हैं। नारायण पण्डित ने 'हितोपदेश' ग्रन्थ के निम्न श्लोक में बताया है -
       काय: सन्निहितापाय: सम्पद: पदमापदाम्।
       समागमा: सापगमा: सर्वमुत्पदि भङ्गुरम्॥
अर्थात् शरीर का स्वभाव विनाश है। सम्पत्तियों और आपत्तियों का स्थान हैं। संयोग-वियोग वाले हैं और सम्पूर्ण उत्पन्न पदार्थ क्षणभंगुर हैं।
         इस श्लोक में कवि का कथन है कि शरीर का स्वभाव विनाश है। मनुष्य परिश्रम करके सम्पत्तियाँ जुटाता है। फिर उन एकत्रित किए गए ऐश्वर्यो का भोग करता है। उसके जीवन में क्रमानुसार विपत्तियाँ आती हैं जो उसे दुखों के भंवर में छोड़ देती हैं। उनसे त्रस्त मनुष्य को कहीं ठौर नही मिलता। उस कष्टकारी समय को बिताने में उसे नानी याद आ जाती है। उस समय उसके अपने भी उससे किनारा कर लेते हैं। तब वह इस संसार सागर में निपट अकेला रह जाता है।
             इस असार संसार से विदा लेने का कोई-न-कोई बहाना बन जाता है। उसे हम बीमारी, दुर्घटना, हार्टफेल आदि कुछ भी नाम दे सकते हैं। इनके अतिरिक्त कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ तूफान, बाढ़, भूकम्प आदि भी जीव की मृत्यु के कारण बन जाते हैं।
           अपने बन्धु-बान्धवों से उसका संयोग होता है और कुछ समय पश्चात उनसे वियोग हो जाता है। उसका कोई-न-कोई प्रियजन इस असार संसार में पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार अपनी आयु भोगकर सदा के लिए यहाँ से विदा ले लेता है। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न सभी जीव क्षणभंगुर कहलाते हैं।
          इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आचार्य चाणक्य के इस कथन पर विचार करते हैं -
       नासातो निर्गमस्यापि श्वासस्य च महामुने।
       प्रवेशे प्रत्ययो नास्ति प्रातरागमनं कुत:॥
अर्थात् हे महामुने! नाक से निकला श्वास पुन: प्रवेश कर पाएगा या नहीं, इसका भी भरोसा नहीं है। तब प्रात:काल के आने की बात ही क्या? यानी अभी जो श्वास लिया है उसके बाद का श्वास हमें लेने के लिए मिलेगा अथवा नहीं, हमें कुछ भी पता नहीं। यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। इस विषय में उस ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।
           इस पृथ्वी पर आने वाले हर मनुष्य के कुछ सपने होते हैं। वह अपने घर-परिवार, अपने माता-पिता व पत्नी-बच्चों के लिए सपने देखता है जिन्हें जी जान लगाकर वह पूरा करने का यत्न करता है। बहुत से सपनों को वह अपने जीवन में पूरा भी कर लेता है। पर जो सपने अधूरे रह जाते हैं उनके लिए उसके मन में मलाल रहता है। इसलिए वह जुगत भिड़ाने की फिराक में रहता है।
            इस संसार में जन्म लेने के पश्चात से ही जीव धीरे-धीरे पल-पल करके मृत्यु की ओर बढ़ता रहता है। फिर भी इस सत्य से वह अंजान बना रहना चाहता है कि एक दिन उसे इस संसार को छोड़कर जाना पड़ेगा। यदि वह मृत्यु को सदा याद रखे तो दूसरों पर अत्याचार और अनाचार कभी न करे। चौरी, डकैती, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त न हों।
          यह संसार जीव की कर्मभूमि है। यहाँ मनुष्य के रूप में जन्म लेकर वह अपने कर्मों को बीजरूप में बोता है और जन्म-जन्मान्तर तक उसके कड़वे-मीठे फल खाता रहता है। चौरासी लाख कही जाने वाली योनियों में केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि कहलाती है, शेष अन्य योनियाँ भोगयोनि कहलाती हैं। वहाँ जीव मात्र अपने कर्मों का फल भोगता है, कर्म कर नहीं सकता।
           मनीषियों का मानना है कि जीव संसार में रहते हुए यदि घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के बनाए नियमों के अनुसार कर्म करता है तो वे श्रेष्ठ कर्म करता है। इसके विपरीत किए गए कर्म निम्न कहलाते हैं। शुभकर्मों का फल उसे इस जन्म में और आगामी जन्म में सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य देते हैं। उसके दुष्कर्म उसे इहलोक और परलोक में महान् कष्ट और परेशानियाँ देते हैँ।
          मनुष्य हर क्षण मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता जाता है। बीमारियों, परेशानियों या दुखों के आने पर वह तिल-तिल करके मरता रहता है। पर फिर भी उसकी जीने की इच्छा (जिजीविषा) बलवती रहती है। वास्तव में मनुष्य की मृत्यु उसी दिन हो जाती है जब उसके मन में किसी भी कारण से जिजीविषा समाप्त हो जाती है अथवा जिस दिन उसकी उम्मीदें व सपने मर जाते हैं। उसका स्वयं पर विश्वास नहीं रहता अर्थात उसका आत्मविश्वास क्षीण हो जाता है।
      जब तक आयु शेष हैं तब तक अपने सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने का यत्न करना चाहिए। अन्यथा जब मृत्यु समक्ष होगी या अन्तिम समय आएगा तब अपनी असफलताओं पर दुख होगा। फिर पश्चाताप करने का समय भी नहीं होगा। ईश्वर से क्षमा याचना करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकेंगे। तब अपने दायित्वों या सपनों को पूरा करने के लिए और थोड़े से समय की मोहलत भी उस मालिक से नहीं मिलेगी।
            मनुष्य चाहे तो अपना लोक और परलोक दोनों सुधार कर उस मालिक का प्रिय बन सकता है अन्यथा वह जन्म-जन्मान्तरों तक अपने कर्मो का भुगतान कष्टों के रूप में करता रहेगा। यह संसार उसकी बपौती नहीं है यहाँ से उसकी विदाई पक्की है। इस क्षणभंगुर नश्वर शरीर से जो सत्कर्मों की वृद्धि करनी है कर लीजिए फिर यह समय हाथ नहीं आएगा। अन्तकाल में पश्चाताप भी कुछ सुधार नहीं कर सकेगा। अत: अपने साथ मित्रता निभाइए।
चन्द्र प्रभा सूद