धारा के विपरीत चलना
धारा के साथ तो सभी चलते हैं। यह आसन-सा रास्ता होता है। इसमें प्राय: खतरे की सम्भावना कम होती है। जीवन एक निश्चित ढर्रे पर चलता रहता है। परन्तु धारा के विपरीत चलना बहुत कठिन होता है। इस राह पर चलने वाला वास्तव में महान होता है। इस मार्ग में पल-पल पर चुनौतियॉं मुॅंह बाए खड़ी रहती हैं। धारा के विपरीत चलने वाले ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। जिनके लिए उनके सामने और उनके पीछे हम आम भाषा में कुछ विशेष विशेषणों का प्रयोग करते हैं- सिरफिरा, पागल, जनूनी, खपती आदि।
इन सम्बोधनों का उन लोगों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि वे इन फब्तियों की परवाह करने लगें तो अपना मनचाहा कार्य कर ही नहीं सकते। वे इन सभी बातों को एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं। अपनी ही धुन के पक्के ये लोग दुनिया की फब्तियों को अपना अस्त्र बना लेते हैं। एक बार जो मार्ग अपने लिए निर्धारित कर लेते हैं तो फिर उस मार्ग से वे नहीं भटकते। निष्ठापूर्वक आगे बढ़ते हुए अपने लक्ष्य का सन्धान करके ही साँस लेते हैं।
ऐसे संकल्पित लोग इस बात की तनिक भी परवाह नहीं करते कि भीड़ उनके साथ चल रही है अथवा उनके पीछे चल रही है या उनके साथ कोई नहीं है। कोई व्यक्ति उनका साथ देगा या नहीं? कहीं वे इस संसार में अकेले तो नहीं रह जाएँगे? इस सोच से परे वे अपनी धुन में अकेले ही मस्ती से चलते रहते हैं। वे उस शेर की तरह अकेले चलते हैं जो जंगल का राजा है। सभी पशु उसके पीछे-पीछे लगे रहते हैं। वैसे झुण्ड में तो भेड़ और बकरियाँ चलती हैं, शेर कभी नहीं चलते हैं। कहते भी हैं -
लीक लीक गाड़ी चले, लीकहीं चले कपूत।
बिना लीक तीनों चलें,शायर, सिंह,सपूत।।
धारा के प्रवाह में वही बहते हैं जो लकीर के फकीर होते हैं। बिना अधिक श्रम किए सब कुछ पा लेना चाहते हैं। ऐसे लोगों की संख्या अधिक है। धारा के विपरीत जो चलने वाले मुट्ठी भर लोग होते हैं। इन्हीं लोगों के परिश्रम के परिणाम स्वरूप हम भौतिक सुख-सुविधाओं का भोग कर रहे हैं। यदि सभी लोगों की तरह ये भी अपनी जिन्दगी जीते तो कदाचित हम वैज्ञानिक चमत्कारों से आज वंचित होते। इतने ऐशो आराम से न जी रहे होते।
ऐसे ही सिरफिरे नौजवानों के बलिदान का परिणाम है हमारे देश भारत की स्वतन्त्रता। हम इन महाविभूतियों की बदौलत ही अपने देश में और विश्व में शान से सिर उठाकर चल रहे हैं। अब हमें अपना सिर झुकाकर शर्मिन्दा होने की आवश्यकता नहीं है। उन स्वतन्त्रता सैनानियों ने यदि लीक से हटकर देश को स्वतन्त्र करवाने का बीड़ा न उठाया होता तो शायद हम आज भी पराधीन होते। विदेशों में भी आज हमारा देश अपना एक स्थान रखता है। विश्व में हमारे भारत ने अपनी एक विशेष पहचान बनाई है।
हमारे सुप्रसिद्ध समाज सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, राजाराम मोहन राय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुले, बाबा आम्टे, विनोबा भावे, डॉ भीमराव अम्बेडकर आदि महापुरुष इसी श्रेणी में आते हैं जो किसी की परवाह किए बिना ही समाज में फैले अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का विरोध करते रहे हैं। कुछ सीमा तक हम कई कुरीतियों से मुक्त भी हुए हैं। समाज को दिशा देने का कार्य करते हुए ये जहर तक हंसते हुए पी लेते हैं।
ये सभी महापुरुष अपने-अपने घर में सुखपूर्वक अपनों की छत्रछाया में रह सकते थे। इनका भी हमारी तरह इनके माता-पिता ने बड़े प्यार से पालन-पोषण किया था। परन्तु समाज के हित को इन महापुरुषों ने आगे रखा। अपने विषय में, अपने आराम के बारे में इन लोगों ने नहीं सोचा। इन लोगों में कुछ कर गुजरने के जनून ने ही इनको धारा के विपरीत चलने के लिए विवश किया। मन से विचार कर ही इन महानुभावों ने कॉंटों भरे मार्ग पर चलने का संकल्प लिया।
ये सभी समाज सुधारक फूलों की सेज पर नहीं रहते थे बल्कि समाज के प्रहार एवं विरोध के बावजूद उसकी दशा व दिशा सुधारने के संकल्प को पूर्ण करने में ईमानदारी से जुटे रहे। इन्हें कोई लालच, कोई आकर्षण, कोई धमकी अथवा कोई डर उन्हें अपने निर्धारित मार्ग से डिगा नहीं सका। इसीलिए ये लोग समान हैं। इनका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाता है। हम सभी श्रद्धा से इनका नाम लेते हैं।
यह कदापि नहीं सोचना चाहिए कि हम समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होकर ही धारा के विपरीत चलेंगे। मेरे विचार में ऐसा करना सर्वथा अनुचित है। ऐसे कुमार्ग पर चलने वाले तो न्याय व्यवस्था के दोषी होते हैं। ऐसे लोग डर-डरकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं। ये लोग समाज, देश और घर-परिवार के लिए शत्रु का कार्य करते हैं। स्वयं तो सलाखों के पीछे रहते ही हैं और अपनों के विषाद का कारण भी बनते हैं। इन लोगों को हम पथप्रदर्शक नहीं कहते वे तो सबके लिए शत्रु ही कहलाते हैं।
नदी में नाव को उसके बहाव के साथ नाविक आसानी से चला लेता है परन्तु नदी की धारा के विपरीत चलाने में उसे बहुत कठिनाई का सामना उसे करना पड़ता है। उसी प्रकार धारा के विपरीत चलने वाले कृतसंकल्पी लोग ही देश, समाज व विश्व के सिर पर ताज के समान होते हैं। मानवजाति के कण्ठ के हार होते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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