मरणधर्मा जीव
मानव के इस शरीर का स्वभाव मरणशील है। यह संसार ही मरणधर्मा कहलाता है। मरणधर्मा का अर्थ है कि जिसका जन्म इस पृथ्वी पर हुआ है उसे इस संसार से विदा लेनी पड़ती है अर्थात् उसका अन्त निश्चित है। इसीलिए इस पृथ्वी को मृत्युलोक कहते हैं। इस मृत्युलोक में जो जन्म लेता है चाहे वह मनुष्य है, पशु-पक्षी है, पेड़-पौधे हैं यानि की सम्पूर्ण चराचर जगत अपना-अपना समय पूरा करके इस संसार से विदा ले लेता है। अपना समय से तात्पर्य यह है कि अपने कर्मों के अनुसार ईश्वर जो आयु निर्धारित करके धरा पर भेजता है वही उसका अपना समय कहलाता है।
इसीलिए इस संसार को असार भी कहते हैं। नारायण पण्डित ने 'हितोपदेश' ग्रन्थ के निम्न श्लोक में बताया है -
काय: सन्निहितापाय: सम्पद: पदमापदाम्।
समागमा: सापगमा: सर्वमुत्पदि भङ्गुरम्॥
अर्थात् शरीर का स्वभाव विनाश है। सम्पत्तियों और आपत्तियों का स्थान हैं। संयोग-वियोग वाले हैं और सम्पूर्ण उत्पन्न पदार्थ क्षणभंगुर हैं।
इस श्लोक में कवि का कथन है कि शरीर का स्वभाव विनाश है। मनुष्य परिश्रम करके सम्पत्तियाँ जुटाता है। फिर उन एकत्रित किए गए ऐश्वर्यो का भोग करता है। उसके जीवन में क्रमानुसार विपत्तियाँ आती हैं जो उसे दुखों के भंवर में छोड़ देती हैं। उनसे त्रस्त मनुष्य को कहीं ठौर नही मिलता। उस कष्टकारी समय को बिताने में उसे नानी याद आ जाती है। उस समय उसके अपने भी उससे किनारा कर लेते हैं। तब वह इस संसार सागर में निपट अकेला रह जाता है।
इस असार संसार से विदा लेने का कोई-न-कोई बहाना बन जाता है। उसे हम बीमारी, दुर्घटना, हार्टफेल आदि कुछ भी नाम दे सकते हैं। इनके अतिरिक्त कभी-कभी प्राकृतिक आपदाएँ तूफान, बाढ़, भूकम्प आदि भी जीव की मृत्यु के कारण बन जाते हैं।
अपने बन्धु-बान्धवों से उसका संयोग होता है और कुछ समय पश्चात उनसे वियोग हो जाता है। उसका कोई-न-कोई प्रियजन इस असार संसार में पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार अपनी आयु भोगकर सदा के लिए यहाँ से विदा ले लेता है। इस प्रकार इस ब्रह्माण्ड में उत्पन्न सभी जीव क्षणभंगुर कहलाते हैं।
इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आचार्य चाणक्य के इस कथन पर विचार करते हैं -
नासातो निर्गमस्यापि श्वासस्य च महामुने।
प्रवेशे प्रत्ययो नास्ति प्रातरागमनं कुत:॥
अर्थात् हे महामुने! नाक से निकला श्वास पुन: प्रवेश कर पाएगा या नहीं, इसका भी भरोसा नहीं है। तब प्रात:काल के आने की बात ही क्या? यानी अभी जो श्वास लिया है उसके बाद का श्वास हमें लेने के लिए मिलेगा अथवा नहीं, हमें कुछ भी पता नहीं। यह सब भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। इस विषय में उस ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।
इस पृथ्वी पर आने वाले हर मनुष्य के कुछ सपने होते हैं। वह अपने घर-परिवार, अपने माता-पिता व पत्नी-बच्चों के लिए सपने देखता है जिन्हें जी जान लगाकर वह पूरा करने का यत्न करता है। बहुत से सपनों को वह अपने जीवन में पूरा भी कर लेता है। पर जो सपने अधूरे रह जाते हैं उनके लिए उसके मन में मलाल रहता है। इसलिए वह जुगत भिड़ाने की फिराक में रहता है।
इस संसार में जन्म लेने के पश्चात से ही जीव धीरे-धीरे पल-पल करके मृत्यु की ओर बढ़ता रहता है। फिर भी इस सत्य से वह अंजान बना रहना चाहता है कि एक दिन उसे इस संसार को छोड़कर जाना पड़ेगा। यदि वह मृत्यु को सदा याद रखे तो दूसरों पर अत्याचार और अनाचार कभी न करे। चौरी, डकैती, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार आदि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त न हों।
यह संसार जीव की कर्मभूमि है। यहाँ मनुष्य के रूप में जन्म लेकर वह अपने कर्मों को बीजरूप में बोता है और जन्म-जन्मान्तर तक उसके कड़वे-मीठे फल खाता रहता है। चौरासी लाख कही जाने वाली योनियों में केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि कहलाती है, शेष अन्य योनियाँ भोगयोनि कहलाती हैं। वहाँ जीव मात्र अपने कर्मों का फल भोगता है, कर्म कर नहीं सकता।
मनीषियों का मानना है कि जीव संसार में रहते हुए यदि घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के बनाए नियमों के अनुसार कर्म करता है तो वे श्रेष्ठ कर्म करता है। इसके विपरीत किए गए कर्म निम्न कहलाते हैं। शुभकर्मों का फल उसे इस जन्म में और आगामी जन्म में सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य देते हैं। उसके दुष्कर्म उसे इहलोक और परलोक में महान् कष्ट और परेशानियाँ देते हैँ।
मनुष्य हर क्षण मृत्यु की ओर कदम बढ़ाता जाता है। बीमारियों, परेशानियों या दुखों के आने पर वह तिल-तिल करके मरता रहता है। पर फिर भी उसकी जीने की इच्छा (जिजीविषा) बलवती रहती है। वास्तव में मनुष्य की मृत्यु उसी दिन हो जाती है जब उसके मन में किसी भी कारण से जिजीविषा समाप्त हो जाती है अथवा जिस दिन उसकी उम्मीदें व सपने मर जाते हैं। उसका स्वयं पर विश्वास नहीं रहता अर्थात उसका आत्मविश्वास क्षीण हो जाता है।
जब तक आयु शेष हैं तब तक अपने सभी आवश्यक कार्यों को पूर्ण करने का यत्न करना चाहिए। अन्यथा जब मृत्यु समक्ष होगी या अन्तिम समय आएगा तब अपनी असफलताओं पर दुख होगा। फिर पश्चाताप करने का समय भी नहीं होगा। ईश्वर से क्षमा याचना करने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सकेंगे। तब अपने दायित्वों या सपनों को पूरा करने के लिए और थोड़े से समय की मोहलत भी उस मालिक से नहीं मिलेगी।
मनुष्य चाहे तो अपना लोक और परलोक दोनों सुधार कर उस मालिक का प्रिय बन सकता है अन्यथा वह जन्म-जन्मान्तरों तक अपने कर्मो का भुगतान कष्टों के रूप में करता रहेगा। यह संसार उसकी बपौती नहीं है यहाँ से उसकी विदाई पक्की है। इस क्षणभंगुर नश्वर शरीर से जो सत्कर्मों की वृद्धि करनी है कर लीजिए फिर यह समय हाथ नहीं आएगा। अन्तकाल में पश्चाताप भी कुछ सुधार नहीं कर सकेगा। अत: अपने साथ मित्रता निभाइए।
चन्द्र प्रभा सूद
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