मंगलवार, 5 अगस्त 2025

स्वार्थों की पूर्ति करना

स्वार्थों की पूर्ति करना

हम मनुष्य अपने स्वार्थों की पूर्ति करने में इतना अधिक डूब जाते हैं कि दीन और दुनिया को ही भूल जाते हैं। दिन और रात के चौबीस घण्टे हमारे लिए कम पड़ने लगते हैं। उस समय हम यह सोचने लगते हैं कि काश समय को भी रबर की तरह खींचकर बड़ा कर सकते। परन्तु अफसोस इस बात का है कि न तो हम समय के साथ छेड़- छाड़ कर सकते हैं और न ही दिन के घण्टे बढ़ा सकते हैं। चौबीसों घण्टे कोल्हू के बैल की तरह हम जुटे रहते हैं। बहुत दुख का विषय है कि हमारे ये स्वार्थ फिर भी समाप्त होने का नाम नहीं लेते। 
              आज हम मैं और मेरा परिवार यानी हम पति-पत्नी और हमारे बच्चे तक सीमित होते जा रहे हैं। इस परिवार में माता-पिता का स्थान भी लुप्त होता जा रहा है। जितना अधिक हमारा दृष्टिकोण संकुचित होता जा रहा है, उतना ही स्वार्थ हम पर हावी होता जा रहा है। अपने धन-वैभव का प्रदर्शन तो हम बहुत करते हैं। अपने परिवारी जनों अथवा बन्धु-बान्धवों की तो छोड़ो, हम अपने भाई-बहन तक को उसकी हवा नहीं लगने देते। माता-पिता जिनका ऋण हम आयुपर्यन्त सेवा करके भी नहीं चुका सकते, उनसे कुछ भी साझा नहीं करना चाहते।
              ईश्वर हमें बिन माँगे बहुत कुछ देता है। वह हमसे कोई अपेक्षा नहीं रखता। उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करना हमारा दायित्व बनता है। उसका धन्यवाद करना हम अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। ईश्वर प्रदत्त नेमतों पर हम अपना पूर्ण अधिकार जमाना जानते हैं। जिन वस्तुओं पर दूसरों का हक है, वह भी हम छीन लेना चाहते हैं। जिनके प्रति हमें अपने सभी दायित्व निभाने चाहिए, हम स्वार्थवश उन लोगों से किनारा करते जा रहे हैं। यह वास्तव में बहुत दुखद स्थिति है।
              हम यह भूल जाते हैं कि जो अमानत ईश्वर ने हमें सौंपी है, वह केवल हमारे लिए नहीं है बल्कि घर-परिवार, भाई-बन्धुओं, समाज व देश का भी उसमें अंश है। जब हम अमानत में खयानत करते हैं तो भूल जाते हैं कि जो हम कर रहे हैं वह एक अपराध है। भौतिक जगत में अमानत में खयानत करने वाले को कभी माफी नहीं मिलती बल्कि उसे सजा मिलती है। तो फिर उस मालिक से हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि वह हमें इस अपराध के लिए क्षमा कर देगा। अपने कर्म का फल हमें भोगना पड़ता है।
            मनीषी कहते हैं और हम सुनते हैं -  'ईश्वर की लाठी में आवाज नहीं होती। जब पड़ती है तो अच्छे-अच्छों की नानी याद दिला देती है।'
           पता भी नहीं चल पाता और बहुत ही कठोर दण्ड हमें मिल जाता है। फिर उस समय हम बहुत दुखी होते हैं और सारी दुनिया में अपने कष्टों को गाते फिरते हैं। सुख में चाहे किसी को पूछा हो या न पूछा हो पर दुख में बेगानों को अपना बनाना चाहते हैं। ईश्वर को उलाहना देते हैं और कोसते हैं। उस पर पक्षपात करने का आरोप लगाते हैं। वह तो परम न्यायकारी है, वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। फिर भी हम अपने को बचाने के लिए उसे कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूकते। परन्तु फिर भी न तो अपने गिरहबान में झाँककर देखते हैं और न ही हम कभी आत्मविश्लेषण करने की आवश्यकता समझते हैं।
             हमारी स्वार्थी प्रवृत्ति हमें कहीं का भी नहीं छोड़ती। इन स्वार्थों को पूरा करते हुए बहुधा लोग गलत रास्ते पर चलने लगते हैं। कुमार्गगामी होकर वे देश व समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने लगते हैं। यह स्वार्थ जब हमारे सिर पर चढ़कर बोलने लगता है तब पारिवारिक विघटन तक की स्थिति बन जाती है। उसका परिणाम घर-परिवार के सदस्य तो भोगते ही हैं, मनुष्य स्वयं भी भोगते हैं परन्तु वे बच्चे इस सबसे बहुत अधिक प्रभावित होते हैं जिनका कोई दोष नहीं होता।
              हमें सदा ही उस प्रभु का धन्यवाद करना चाहिए जिसने हमें अपार खजाने दिए हैं। हमें जीवन जीने के लिए ईश्वर ने हमारी सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध करवाए हैं। यदि वह भी हमारी ही तरह स्वार्थी हो जाए तो कल्पना कीजिए हमारी कैसी दुर्दशा होगी? हम हर वस्तु के लिए तरस जाऍंगे। ईश्वर तथा प्रकृति की भाँति हम मनुष्यों को भी उदारहृदय बनना चाहिए। जीवन में अपने सभी बन्धु-बान्धवों के साथ मिलकर आनन्द का उपभोग करना चाहिए, अकेले नहीं।
             इस स्वार्थ वृत्ति से किसी भी मनुष्य का भला नहीं होता। इसलिए जब स्वार्थी प्रवृत्ति से ऊपर उठकर जब हम मनुष्य परमार्थ के विषय में सोचने लगेंगे तब बहुत-सी समस्याएँ स्वतः ही हल हो जाएँगी। दिग्दिशाओं में हमारा यश फैलेगा सो अलग। इसलिए मित्रो, स्वार्थपरता रूपी घाटे का सौदा करना छोड़ दीजिए। अच्छा यही होगा कि हमें उदारहृदय बनकर सभी के दिलों पर राज करने के विषय में सोचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद

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