शनिवार, 2 अगस्त 2025

परमात्मा से एकाकार

परमात्मा से एकाकार 

सन्त कबीरदास जी का एक दोहा मुझे स्मरण हो  रहा है -
     जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहि।
     अन्धियारा मिट गया दीपक रेखा माहि॥
अर्थात् जब तक मनुष्य में अहंकार रहता है तब तक उसे ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। जब उसके अहंकार का नाश हो जाता है तब ईश्वर का प्रकाश मनुष्य के हृदय में प्रकाशित होने लगता है। 
             इस दोहे को पढ़कर मन भाव विभोर हो उठा है। मन यह सोचने के लिए विवश हो जाता है कि मेरी ऐसी स्थिति कब आएगी? जब उस मैं परमात्मा के साथ एकाकार हो पाऊँ। मुझमें और उसमें किसी प्रकार का कोई भेद न रहे। हम दो नहीं एक हो जाएँ। 
            किसी अन्धेरे कक्ष में जब एक छोटा-सा दीपक हम जलाते हैं तो तब उस अन्धियारे का नामोनिशान तक मिट जाता है। फिर वह अन्धकार प्रकाश का रूप होकर उजाला करने लगता है। हम उस समय समझ ही नहीं पाते कि कभी वहाँ उस कक्ष में अन्धेरा था।
              इसी प्रकार प्रभु की निष्काम उपासना करते-करते जब उससे लौ लग जाती है तब हम उसी का रूप हो जाने के लिए व्याकुल  हो जाते हैं। दिन-रात उसी के विषय में ही सोचते रहते हैं। हमारे सम्पूर्ण क्रियाकलाप उसी के निमित्त होने लगते हैं। हमारा अपना स्वयं का कुछ नहीं रहता। उस समय हम कबीरदास जी के शब्दों में कह उठते हैं-
        मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सब तोर। 
        तेरा  तुझको  सौंपते, क्या  लागत है मोर॥
अर्थात् मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-सम्पत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारा ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या बिगड़ता है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?
           जब हम इस दुनिया में मोहमाया के बन्धन में फॅंसे हुए चौरासी लाख योनियों में ही भटकते रहते हैं तब ईश्वर की दी हुई सारी नेमते मात्र केवल हमारी होती हैं। उनसे जुदाई के बारे में हम सोच भी नहीं सकते। यदि उनसे विमुख होना पड़े तो हमारे लिए बहुत कठिनाई हो जाती है। अपनी कमियों एवं हानियों का ठीकरा उस प्रभु के सिर पर फोड़ते हैं। इतने पर भी मन नहीं भरता तो उस समय हम रोते हैं व चीखते-चिल्लाते हैं। सबके साथ ईश्वर को भी बुरा-भला कहते हैं और पानी पी-पीकर उसको कोसते हैं। 
           जब हमारे जीवन में कठिन समय आता है तब हम अपना आपा खो देते हैं। हम बहुत स्वार्थी हो जाते हैं। हम बस यही चाहते हैं कि सारी दुनिया को छोड़कर ईश्वर सिर्फ और सिर्फ हमारी सुने। वह हमारे सभी दुखों और कष्टों को दूर करे। उस असहाय अवस्था में हम उसकी पूजा-अर्चना करने लगते हैं। हमारा उद्देश्य तब केवल अपना वर्तमान सुधारना होता है। यदि हम हर स्थिति में प्रभु का स्मरण करें तो हमें आत्मिक बल मिलता है। हमारे कष्ट दूर तो नहीं होते परन्तु उन्हें सहन करने की शक्ति मिलती है।
            इसके विपरीत जब सुख-समृद्धि का समय आता है तब हम अहंकारी होने लगते हैं। यह भी हम भूल जाते हैं कि उस पिता ने हमें इस संसार में भेजा है। वह चाहता है कि हम जन्म-मरण के इस कष्टप्रद चक्र से मुक्त होकर अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुँचने में सफल हो जाएँ। सत्य यही है कि सुख का समय आने पर हम हर सफलता का श्रेय ईश्वर को न देकर स्वयं को देते हैं। शायद उस समय हम अपने आप को मालिक से भी अधिक बुद्धिमान और सर्वगुण सम्पन्न समझने लगते है।
           हमारा अहं हमें उस प्रभु से दूर कर देता है। जब तक हम अपने घमण्ड में रहते हैं तब किसी को कुछ नहीं समझते। ईश्वर तक की हस्ती को मानने से इन्कार कर देते हैं। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि न जाने कितने ही अहंकारियों के उदाहरणों से इतिहास भरा हुआ है। इस बात को अपने मन में अच्छे से आत्मसात कर लेना चाहिए कि घमण्डी का सिर हमेशा नीचा होता है। उसका अन्त बिल्कुल अच्छा नहीं होता।
            इसीलिए जब हम अपने अहं में डूब जाते हैं तो वह प्रभु हमसे दूर हो जाता है। अपने परिवारी जनों और बन्धु-बान्धवों के होते हुए भी हम इस दुनिया में निपट अकेले रह जाते हैं। परन्तु जब संसार की असारता को जानकर उस मालिक से हम अपनी लौ लगा लेते हैं तब उसे पाने की तड़प हमें उसके करीब ले जाती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ईश्वर के साथ एकाकार होने के लिए अहं का त्याग करना पड़ता है व सच्चे भाव से उसकी शरण में जाना होता है। 
              हमारा अहं उससे अनावश्यक ही दूरी बना लेता है। अहं का त्याग करते ही हम उसके हो जाते हैं और वह हमारा हो जाता है। उपर्युक्त दोहे में यही कहा गया है कि जब मैं(अहं) था तब ईश्वर मेरे पास नहीं था, वह मुझसे बहुत दूर था। जब मैंने अपने अहं को तिलांजलि दे दी तो वह हरि मेरे पास है। तब हमारे मन का सारा अन्धकार दूर हो जाता है, हम भी परमात्मा की तरह प्रकाशमय हो जाते हैं। उस स्थिति में तेरे और मेरे का भेद सदा के लिए समाप्त हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद

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