लिव इन रिलेशनशिप
लिव इन रिलेशनशिप के बारे में लिखने के लिए बहुत आग्रह है आप मित्रों का। अतः इस विषय पर अपने विचार लिख रही हूँ।
भारतीय संस्कृति के अनुसार लिव इन रिलेशनशिप जैसे सम्बन्ध को कदापि स्वीकृति नहीं दी जा सकती। यह विदेशी सभ्यता (कल्चर) में होता है जहाँ पारिवारिक मूल्य बिखर गए हैं। हमारे संस्कारों में यह सम्बन्ध अनैतिक सम्बन्धों की श्रेणी में गिना जाता है। वैवाहिक संस्था की परम्परा हमारी भारतीय सांस्कृति की रीढ़ है। उसे किसी भी मूल्य पर दूषित नहीं किया जा सकता। अपवाद उपलब्ध हो सकते हैं परन्तु उनके विषय में हम यहॉं चर्चा नहीं कर रहे।
हम इस बात से कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि दो व्यक्तियों का सम्बन्ध निश्चित ही समाज को प्रभावित करता है। ऐसा कोई नियम तो है नहीं कि लिव इन दो अविवाहितों में ही होगा। यदि रिश्तों की मर्यादा को तोड़ते हुए भी यह सम्बन्ध बनने लगेंगे तब क्या समाज को स्वीकार्य होगा? यानी कि किसी युवक या युवती को पता चले कि उनके माता, पिता, भाई, बहन या कोई अन्य प्रिय सम्बन्धी उन्हीं के किसी अन्य सम्बन्धी के साथ अपने पार्टनर को छोड़कर लिव इन में रह रहा है तो सोचिए इस विषय में कि उनकी मानसिक स्थिति क्या होगा। जो बड़े-बड़े भाषण इसके पक्ष में दे रहे हैं तो शायद वे भी अपने किसी प्रियजन के इस सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करेंगे।
हाँ, इसके पक्षधर कह सकते हैं कि अपना जीवन जीने स्वतन्त्रता है सबको है। मैं भी कहूॅंगी कि अपना जीवन जीने की आजादी सबको है। परन्तु सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने का अधिकार समाज किसी को नहीं देता। इस स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छ्रंखलता तो कदापि नहीं हो सकता है। मेरे विचार में ऐसे सम्बन्ध में रहने वाले माता-पिता भी अपने बच्चों को स्वीकृति नहीं देंगे। स्वयं लिव इन में रहने वाले युवा भी अपने भाई-बहन को इस सम्बन्ध में नहीं बॅंधने देंगे।
माता-पिता अपने बच्चों के अतिमोह में पढ़कर बचपन में ही उन्हें बिगाड़ देते हैं। वे उन्हें समझा नहीं पाते तो उन्हें ईश्वर के भरोसे भी नहीं छोड़ सकते। न ही उनको संस्कारों या मानव जीवन की नयी परिभाषा लिखने की अनुमति दी जा सकती है। कुछ मुट्ठी भर सिरफिरों के कारण रिश्तों की पवित्रता को समाप्त नहीं किया जा सकता। अपनी जिम्मेदारियों से भागने का इन भगोड़ों ने बड़ा अच्छा रास्ता ढूँढ लिया हैं लिव इन समर्थकों ने। दोनों ही साथियों को एक-दूसरे के प्रति समर्पण की कोई आवश्यकता नहीं होती।
यह बात समझने वाली है कि न तो सभी महिलाएँ धोखेबाज होती हैं और न ही सभी पुरुष। विवाहेत्तर सम्बन्धों को अब लिव इन का नया नाम दे दिया गया है जिसे मात्र दैहिक आकर्षण व शोषण कहा जा सकता है। यह तो बहुत सुविधाजनक सम्बन्ध है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक पुरुष व महिला जब तक एक-दूसरे को सहन करेंगे तब तक साथ रहेंगे। जब उनकी एक-दूसरे को सहन करने की सीमा समाप्त हो जाएगी तब वे दूसरे साथी का चुनाव करेंगे। और फिर वहाँ भी पटरी न बैठी तो फिर अगले साथी की तालाश होगी। यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा? इसे तो हम केवल खुल्लमखुला व्यभिचार ही कह सकते है। यही सब लिव इन के नाम पर हो रहा है और कुछ भी नहीं।
दो लोग जब साथ रहते हैं तो आने वाले बच्चों की समस्या से भी मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। लिव इन में सिर्फ स्वछन्दता होती है या मनमाना रवैया। वहाँ किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं होती और तब भी यदि चूक हो जाए तो उसका अन्त भी शादी ही होगा। समस्या वही होती है कि बिना शादी के बच्चे को हम क्या बतायेंगे? हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि जब उनका रिश्ता ही नहीं तो उनमें माता-पिता का रिश्ता भी नहीं बन सकता है। लिव इन रिलेशनशिप से जो बच्चे पैदा होंगे तो उनके तथाकथित माता-पिता उनके लिए किस प्रकार आदर्श व प्रेरणास्रोत बन सकेंगे? जैसा कि आम जीवन में होते हैं। सोचिए हम अपने बच्चों से बुढ़ापे में लाठी बनने की कल्पना करते हैं क्या उन बच्चों के बारे में वे लोग ऐसा सोच सकेंगे?
बहुत बार हम ऐसे बच्चों को देखते हैं जिन्हें अविवाहित माताएँ जन्म देते ही छोड़ देती हैं। उन बच्चों को अनाथालयों में अपना जीवन जीना पड़ता है। महाभारत काल के कुन्ती पुत्र कर्ण से बड़ा इसका उदाहरण नहीं हो सकता। राज परिवार में जन्म लेने के पश्चात भी कर्ण सारी आयु अपनी पहचान के लिए व्याकुल रहा। आज भी यहाँ-वहाँ पड़े हुए बच्चे मिल जाते हैं जो लिव इन का परिणाम होते हैं।
माननीय सुप्रीम कोर्ट ने यद्यपि इस सम्बन्ध को मान्यता दे दी है। परन्तु धर्म एवं समाज इस सम्बन्ध को कदापि स्वीकार नहीं करते, यही सत्य है।
चन्द्र प्रभा सूद
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