गुरुवार, 14 अगस्त 2025

विश्वगुरु भारत

विश्वगुरु भारत 

हमारा भारत कुछ समय पूर्व तक विश्वगुरु कहलाता था। इसका अर्थ यही है कि हमारे भारत देश में कुछ तो विशेष था जो इसे संसार में अग्रणी बनाता था।इसका सम्पूर्ण श्रेय निश्चित ही हम अपनी विशाल ग्रन्थ परम्परा को दे सकते हैं। हमारे वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। हमारी महान विरासत हमें विश्व का सिरमौर बनाती है। हमारा सांस्कृतिक और वैचारिक दृष्टिकोण हमें अन्य संस्कृतियों से अलग करके विशेष बनाता है। उस समय दूर-दूर से छात्र हमारे देश में विद्या ग्रहण करने के लिए आते थे। यह हमारे लिए गौरव का विषय है।
              हमारे प्राचीन ग्रन्थ ज्ञान के अथाह सागर हैं। उनमें वर्णित जीवन मूल्यों की अनुपालना करने से हम इहलौकिक और पारलौकिक उन्नति कर सकते हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि उस विशाल सागर से हम मोती चुनकर लाते हैं या किनारे पड़ी हुई सीपियों से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। अपने ग्रन्थों का यदि हम निष्ठापूर्वक पारायण करेंगे अर्थात् श्रवण, मनन व निधिध्यासन नहीं करेंगे तो हमारा ग्रन्थ भण्डार हमारी किसी प्रकार की कोई सहायता नहीं करेगा। 
             कितना भी बड़ा पुस्तकालय हमारे पास एकत्रित किया गया हो, वह उस समय व्यर्थ हो जाता है यदि हम उन पुस्तकों का अध्ययन नहीं करते। विभिन्न पुस्तकों में संसार का सम्पूर्ण ज्ञान लिखा हुआ है। अतः हम अपना ज्ञान उसी को कह सकते हैं जिसको अध्ययन करके, साधना करके हम अपने अन्तस में समेटा है। हम अपने ऊपर कितना भी मान कर लें कि हमने अपने घर में पुस्तकों का संग्रह किया है पर यदि हम उन पुस्तकों को न पढ़ें तो वह सारा किताबी ज्ञान वहीं-का-वहीं धरा रह जाता है और हमारे काम कभी नहीं आता। विद्वानों के मध्य हमारी वही स्थिति होती है जैसे हंसो के बीच बगुले की होती है। किसी विद्वान ने सत्य कहा गया है- 
        माता शत्रु पिता वैरी येन बालो न पाठिता।
        न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।
अर्थात् वह माता शत्रु है और पिता वैरी है जो अपने बच्चे को नहीं पढ़ाते। वह बच्चा विद्वानों की सभा में उसी प्रकार सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों के बीच बगुला।
          इसी तरह हमारे पास जो धन है वही हमारा है शेष नहीं। हमारे पास मान लीजिए बहुत धन है और हम लेन-देन का कारोबार करते हैं या व्यापार का बहुत-सा धन हमारे डीलर्स के पास पड़ा है। उस धन को हम अपना नहीं कह सकते जब तक वह हमारे हाथ में नहीं आता। जब हमें उस धन की सुख या दुख में आवश्यकता होगी तो वह हमें समय रहते मिल जाएगा ऐसा कुछ निश्चित नहीं।
            आचार्य चाणक्य ने 'चाणक्यनीति:' में हमें चेतावनी देते हुए समझाया है-
     पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
    कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम्।।         
अर्थात् पुस्तक में लिखा ज्ञान और दूसरे को दिया हुआ धन दोनों ही मुसीबत के समय काम नहीं आते। हमारे उपयोग में वही धन आता है जिसे हम अपने पास सम्हाल कर रखते हैं। इसी तरह वही ज्ञान हमारा मार्गदर्शक बनता है जिसे हमने अपने जीवन में साधना करके ढाला है।
              मैं अपने सभी साथियों से आग्रह करती हूँ कि अधिक-से-अधिक ज्ञानार्जन करें ताकि समय आने पर उपहास का पात्र न बनना पड़े। इसी तरह अपने खून-पसीने से कमाए हुए धन को भी यथासम्भव हमेशा संग्रहित करके रखना चाहिए ताकि समय आने पर किसी का मुँह न ताकना पड़े। दोनों ही धन (ज्ञान व धन) सदैव हमारे दो बाजू बनकर हमारी रक्षा करने के लिए तत्पर रहते हैं और समाज में हमें यथोचित स्थान दिला सकने में सफल होते हैं।
             अत: रास्ते में आने वाली कठिनाइयों से अपने अर्जित ज्ञान(विवेक) के कारण ही हम जूझने में समर्थ हो सकते हैं। अपने सफल प्रयासों की बदौलत प्रसन्नतापूर्वक अपने जीवन की नौका को संसार सागर से हम पार तैरा सकते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अपने देश भारत को पुनः विश्वगुरु के स्थान पर स्थापित करने के लिए ज्ञानार्जन करना और करवाना बहुत आवश्यक है।
चन्द्र प्रभा सूद

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