शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

बलिवैश्वदेव यज्ञ

बलिवैश्वदेव यज्ञ

 बलिवैश्वदेव यज्ञ पञ्च महाभूतों में पाँचवाँ  व अन्तिम यज्ञ है। इस यज्ञ के नाम में बलि शब्द आया है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि किसी जीव की बलि देना या हत्या करना है। शास्त्रों ने ईश्वर व अन्य देवताओं को कृतज्ञता ज्ञापन करने के लिए हमें पहले दो यज्ञों में समझाया है। तीसरे महायज्ञ में शास्त्रों ने हमें अपने जन्मदाता माता-पिता के प्रति कर्त्तव्यों को निभाने का आदेश दिया है। फिर चौथे महायज्ञ यानी भूतयज्ञ में अतिथि सत्कार जैसे सामाजिक दायित्व के निर्वहण के प्रति हमें सजग किया है।
              अब इस अन्तिम यज्ञ में अन्य जीवों के पोषण हेतु सजग किया गया है जिनके विषय में हमारे ध्यान में कभी आता ही नहीं। शास्त्र कहते हैं कि घर में जो भी भोजन बने उसमें से नमकीन, तीखा व क्षार अन्न को छोड़कर, शेष अन्न में घी व मिष्टान्न मिला लें। फिर भोजन बनाते समय चूल्हे से अग्नि लेकर उपरोक्त मिश्रण की आहुतियाँ मनुस्मृति के अनुसार निम्न मन्त्रों से दीजिए-
      ऊँ अग्नये स्वाहा। सोमाय स्वाहा।अग्नीसोमाभ्यां स्वाहा। विश्वेभ्यो देवेभ्य: स्वाहा। धन्वन्तरये स्वाहा। कुह्वै स्वाहा। अनुमत्यै स्वाहा। प्रजापत्ये स्वाहा। सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा। स्विष्टकृते स्वाहा।
इस विधि से आहुति देने के साथ लवण(नमक) वाले अन्न के पन्द्रह भाग करें। इनमें एक भाग कुत्ते का, दूसरा पापी का, तीसरा चाण्डाल का, चौथा भाग रोगी का, पाँचवाँ भाग कौवे का, छटा भाग कृमि(कीड़े) का भाग रखकर कुत्ते आदि को दें। उन भागों को किसी अतिथि को भी दे सकते हैं जो वहाँ उपस्थित हो अन्यथा उन्हें अग्नि को समर्पित कर देना चाहिए।
           यद्यपि आज घरों में चूल्हा नहीं जलता अतः चूल्हे से अग्नि लेकर आहुति देना कठिन है। फिर आज के इस युग की आपाधापी वाले जीवन में समयाभाव में सम्पूर्ण प्रक्रिया करना नामुकिन नहीं कठिन अवश्य है। ऐसी स्थिति में उन जीवों को हम उनका अंश दे सकते हैं। जैसे गाय को, कुत्ते को, कौवे को, चिड़ियों को, कबूतरों को, चींटियों आदि को उनका भोज्य दे सकते हैं।
             इस प्रकार आहुति देने से घर की वायु शुद्ध होती है। जो अदृश्य जीवों की हत्या होती है, उसका प्रत्युपकार होता है। इतनी सुन्दर परिकल्पना हमारी ही भारतीय संस्कृति में मिलती है जहाँ पर कृमि-कीटों तक को उनका अंश देने का आदेश हमें शास्त्र देते हैं।
             इसका सीधा व सरल अर्थ यही है कि हम स्वार्थी न बनें अपितु हर जीव-जन्तु को उसका यथोचित अंश प्रदान करें। यह भी दान का ही एक रूप है। संसार के सभी जीवों को भोजन का अधिकार है। हम उन्हें नहीं खिलाते बल्कि हम मात्र माध्यम हैं। ईश्वर ने हमें इतना समर्थ बनाया है कि हम सृष्टि के अन्य जीवों के लिए कुछ कर सकते हैं। ऐसी भावना मन में रखने से अहं नहीं जागता अपितु कर्त्तव्यबोध होता है।
             हम में से बहुत लोग ऐसे हैं जो खाना बनाते समय पहले एक रोटी ऐसी बनाते हैं जिसे गाय या कुत्ते को खाने के लिए डाल देते हैं। इसी प्रकार लोग चींटियों, चिड़ियों, कबूतरों, मछलियों आदि को भी उनका भोज्य खिलाते हैं। इस प्रकार प्रकृति में सामंजस्य बना रहता है। हमारी कमाई का कुछ अंश परोपकार के सद्कार्यों में खर्च होता है और हमारा लोक व परलोक सुधरता है।
            एवंविध सभी जीवों को उनका भोज्य मिलता रहता है तो प्राणिमात्र का भला होता है। वे सुखपूर्वक रह सकते हैं। हमें भी यह सन्तोष होता है कि हम अपने दायित्वों का निर्वहण भली भाँति कर रहे हैं। इससे बड़ा कोई और सुख मनुष्य के लिए नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद

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