निन्दा रस
दूसरों की निन्दा करने में हम सबको बड़ा ही रस मिलता है। इस रस को कहते हैं बतरस। दूसरों के राई जितने दोषों को हम बढ़ा-चढ़ाकर, नमक-मिर्च लगाकर पहाड़ जितना बड़ा बना देते हैं। इस निन्दा पुराण का वाचक महोदय तो आनन्दित होता ही हैं, उसके साथ-साथ श्रोतागण भी आनन्दित होते हैं। दोनों ही पक्ष चटखारे लेकर इस रस का मजा लूटते हैं। लोटपोट होकर वे ताली बजाते हैं।
विद्वानों का कथन है कि दूसरों की निन्दा करने से बढ़कर कोई और अवगुण नहीं है। जितनी अधिक दूसरों की निन्दा करते हैं, उतने ही हम अपने दोष या पाप बढ़ाते हैं। अर्थात् अपने पापों की गठरी उतनी अधिक बड़ी करते रहते हैं। जिसकी निन्दा करते हैं, उस बेचारे को तो पता ही नहीं होता कि उसकी पीठ पीछे हो क्या रहा है। वह तो अपने जीवन के दैनन्दिन दायित्वों को पूर्ण करने में व्यस्त रहता है और हम अकारण ही अपने दोषों के बोझ को बढ़ाते हैं।
मनीषी हमें समझाते हुए कहते हैं कि निन्दा रस शराब जैसे नशों से भी अधिक भयावह होता है। यह व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है और उसे नकारात्मकता की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि निन्दा रस एक ऐसा कुटेव है, इससे हमें बचना चाहिए। दूसरों की अच्छाइयों को देखना चाहिए और उनसे सीखकर अपने जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिए।
निन्दक प्रायः अपनी कमियों को छुपाने या स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं। इससे उनकी हीनता की भावना झलकती है। निन्दा रस रिश्तों में दरार पैदा करता है। लोगों में परस्पर अविश्वास और शत्रुता बढ़ाता है। दूसरों की निन्दा करने अथवा सुनने में रस लेना, एक ऐसी दुष्प्रवृत्ति है जिसमें लोग दूसरों की कमियों, गलतियों या बुरे कार्यों की चर्चा करने में समय का दुरुपयोग करते हैं।
हम अपने सारे आवश्यक कार्यों को तिलांजलि देकर बस इस क्षुद्र कार्य में व्यस्त होकर जीवन की रेस में पिछड़ते रहते हैं। अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से न निभा पाने के लिए घर-बाहर, कार्यालय आदि में हर ओर से तिरस्कृत होते हैं। हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी ने अपने व्यंग्य निबन्ध 'निन्दा रस' में इस प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है। उनका कथन है कि कुछ लोग दूसरों की निन्दा करके ही अपना जीवन यापन करते हैं।
विचारणीय बात यह है कि इस निन्दा पुराण की मण्डली में निन्दक धीरे-धीरे अपना विश्वास खो बैठता है। उसके साथी सोचने लगते हैं कि आज यह दूसरों की निन्दा हमारे सामने कर रहा है तो निश्चित ही हमारी निन्दा औरों के सामने करता होगा। चाहे उनकी निन्दा करने का कोई कारण हो या न हो पर आदत से लाचार वह कोई-न-कोई अपने मतलब की बात निकाल ही लेगा और इससे उनकी बदनामी होती रहेगी। धीरे-धीरे यह बात सबकी समझ में आने लगती है।
उसके वे प्रिय संगी-साथी तब धीरे-धीरे उससे किनारा करने लगते हैं। वह अकेला होते हुए सोचने लगता है कि उसके ऐसे किस दोष के कारण उसकी मित्रता में दरार आ गई है। उसके मित्रों ने उसे अकेला छोड़ दिया। वे उससे कन्नी काटने लगे हैं। वह अपनी निन्दा करने की इस आदत में इतना अधिक रच-बस जाता है कि उसे अपनी गलती समझ ही नहीं आती। अपने इस घृणित कार्य में उसे कोई दोष नहीं दिखाई देता।
सबसे मजे की बात यह है कि पहले दूसरों की निन्दा करने में अमूल्य समय को नष्ट करने वाले साथी अन्त में यह कहकर एक-दूसरे से विदा लेते हैं- 'किसी को यह बताना मत। हमें क्या लेना-देना दूसरों की फिजूल बातों से। हमने तो बस प्रसंगवश यह चर्चा कर ली है। अब यह बात हम तक सभी तक सीमित रहनी चाहिए।'
होता यह है कि जिसकी बुराइयों के पहाड़ बना दिए जाते हैं उसके पास ये सभी बातें कभी-न-कभी तोड़-मरोड़कर पहुँच ही जाती हैं। उस समय चुगलखोर बगलें झाँकने लगता है और व्यर्थ सफाइयाँ देने में जुट जाता है। तब उसकी बहुत किरकिरी होती है। फिर वह महाशय अपना मुँह छिपाते फिरते हैं। सोचिए क्या लाभ हुआ अपना समय व्यर्थ गॅंवाने का और अपने दोस्तों में बदनाम होने का?
सदा दूसरों की आलोचना या टीका-टिप्पणी करने में जो अपना बहुमूल्य समय हम बर्बाद करते हैं, उसके स्थान पर कुछ सकारात्मक कार्य करके आत्मोत्थान कर सकते हैं। निन्दा करने में समय बर्बाद करने से अच्छा यही है कि हम दूसरों की अच्छाइयों को देखें और उनसे शिक्षा ग्रहण करें।आत्मविश्लेषण करके हम उस समय का सदुपयोग कर सकते हैं। दूसरों की निन्दा-चुगली करने के स्थान पर हम अपनी कमियों को ढूँढ-ढूँढ कर दूर कर सकते हैं। अपने इस मानव जीवन को व्यर्थ गॅंवाने के दंश से हम मुक्त होने का एक सफल प्रयास कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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