बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

ईश्वर से रिश्ता

ईश्वर से रिश्ता

बचपन में अपनी माता जी के मैं साथ कभी-कभी आर्य समाज चली जाती थी। वहाँ पर सब लोग एक भजन गाया करते थे। वह भजन मुझे पूरा याद नहीं पर दो-तीन लाइनें याद हैं-
        सुनता मेरी कौन है जिसे सुनाऊँ मैं
       जब से याद भुलाई तेरी लाखों कष्ट उठाए हैं
        छींटा दे दो ज्ञान का होश में आऊँ मैं।
इसे सुनकर बाल सुलभ जिज्ञासा मन में उठती थी। उस समय हम बच्चों में उतनी समझ नहीं थी जितनी आज की पीढ़ी चुस्त है। तब मैं सोचा करती थी कि यह सुनता कौन है? अगर यह सुनता नामक कोई इन्सान है तो वह क्या सुनाना चाहता है? इस भजन में ऐसा क्यों कहा है कि उसकी बात को कोई नहीं सुनता? वह मनुष्य कितना दुखी हो रहा है? सब लोग उसे नजरअंदाज क्यों करते हैं? ये प्रश्न निरन्तर मन को उद्वेलित करते रहे। 
            फिर जब कुछ बड़ी हुई तब इसका अर्थ मुझे समझ में आया कि सुनता नामक कोई इन्सान नहीं है बल्कि यह हम सब लोगों की पीड़ा है। हम लोगों की व्यथा यह है कि हमारी बात कोई नहीं सुनता हम किसे अपनी बात सुनाएँ? आज भी प्रश्न हमारे समक्ष मुँह बाए खड़ा रहता कि माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-रिश्तेदार आदि सभी तो अपने हैं फिर वे हमारी बात क्यों नहीं सुनते? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इस कारण मनुष्य को अकेले ही जूझना पड़ता है। वह दुखी और परेशान रहने के लिए विवश हो जाता है।
           उसके बाद जब और गहरे उतरी तो समझ आया कि सभी दुनियावी रिश्ते-नाते तो बस नाम के ही होते हैं। ये सभी पूर्वजन्म कृत हमारे अपने कर्मों के अनुसार हमारे साथ जुड़े हुए होते हैं। मोह-माया में जकड़े हुए सभी मनुष्य लाचार हैं जो चाहकर भी अपनों के लिए कुछ नहीं कर पाते। सब लोगों की अपनी-अपनी व्यस्तताऍं और विवशताऍं होती है। बस असहाय से रहकर वे अपने दूसरे सम्बन्धी के दुख-तकलीफों आदि में व्यथित होते रहते हैं। वे अपनी सीमा के कारण परेशान रहते हैं। इसका कारण यही है कि वे भगवान नहीं है जो सब कुछ करने में समर्थ है।  
             हमारा असली रिश्ता तो उस परमात्मा के साथ है जिसके हम अंश हैं। वही हमारे लिए सब कुछ करता है। वहीं  हमें सुख-समृद्धि देता है। हमारे कर्मों के हमें अनुसार जन्म देता है और हमारा पालन-पोषण करता है। वही हमारी बातों को सुनता है। बस उससे अपनी प्रार्थना करके देखिए, जीवन ही बदल जाएगा। हमारे सांसारिक रिश्ते-नाते मुँह मोड़ लेते हैं तो इन्सान सबसे कटकर अलग-थलग हो जाता है। उस समय वह अकेला हो जाता है। कोई भी उसका साथी नहीं रह जता। उस स्थिति की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
              सोचिए यदि वह मालिक हमारी ओर से मुख मोड़ ले तो फिर क्या होगा? नहीं, हम यह बात स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। उस प्रभु को प्रसन्न करने के लिए, उसकी कृपा प्राप्त के लिए हम तरह-तरह के यत्न करते हैं। उसे रिझाने के लिए कोशिशों में लगे रहते हैं। उन प्रयासों की सफलता या असफलता निश्चित ही हमारी सच्चाई और ईमानदार कोशिशों पर निर्भर करती है। हम अपने मन से उस ईश्वर के लिए पूर्णरूपेण समर्पित हो सकें तभी वास्तव में हम उसके बन सकते हैं, अन्यथा तो बस कहने की बात ही रह जाएगी।
              इन पंक्तियों में कहा है कि प्रभु को भुला देने पर लाखों कष्टों का सामना करना पड़ा है। हम जितना उससे दूर होते जाएँगे, उतने ही हमारे दुखों में वृद्धि होती जाती है। हम अज्ञानी हैं इसलिए अपराध कर बैठते हैं। यहाँ उस परमपिता से प्रार्थना की है कि हमें ज्ञान का छींटा दे दो ताकि हम होश में आ जाएँ। जैसे बहोश व्यक्ति को पानी का छींटा देते हैं तो उसकी बेहोशी दूर हो जाती है और उसकी चेतना लौट आती है। उसी प्रकार हमारी चेतना को जागृत करने के लिए ज्ञान के छींटें की ईश्वर से प्रार्थना की गई है।
              हम अज्ञानियों को ईश्वर जब ज्ञान का छींटा देगा तो हमारा अज्ञान स्वत: ही दूर हो जाएगा। हमारे अन्तस में ज्ञान का प्रकाश हो जाएगा। हम निरन्तर ईश्वर के समीप होते जाऍंगे। उस समय हम लोगों को सही-गलत का भेद समझ में आ जाएगा। ऐसी स्थिति में हम कुमार्ग का त्याग करके सन्मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे। तभी हम अपने जीवन को सफल बनाने में सक्षम हो सकेंगे। यही हमारे मानव जीवन की सार्थकता होगी। हमारा इहलोक और परलोक सुधर‌ जाएगा।
                दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि इस संसार की असारता को समझकर हम सारतत्त्व ईश्वर की ओर जब अपना ध्यान करेंगें तो वह हमें सांसारिक रिश्तों की तरह कभी निराशा नहीं करेगा। हम तो मनुष्य हैं न, अपने जीवन में हम घाटे का सौदा कभी नहीं कर सकते। यहाँ पर भी हम अपना लाभ देखते हुए जब प्रभु की ओर सच्चे मन से उन्मुख होंगे तो वह हमारा उद्धार करेगा। तभी अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का हमारा मार्ग सहज ही में प्रशस्त हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

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