मुखौटानुमा जीवन
हम जैसे हैं वैसे ही दुनिया के सामने रहेंगे तो हमारा एक स्थान व सम्मान बना रहता है। मुखौटा लगाकर प्रदर्शन करने से लाभ के स्थान पर हानि अधिक होती है। हम वास्तव में कुछ और हैं परन्तु दिखावा हम कुछ और करेंगे तो कुछ समय के लिए तो वाहवाही लूट सकते हैं पर जब पोल खुल जाएगी तो उस की स्थिति की कल्पना कीजिए। तब हमारे पास बगलें झाँकने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं बचता।
सत्य को कभी भी किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती और झूठ के पाँव नहीं होते। झूठ सत्य को बैसाखी बनाकर चलता है। कसमें खाकर झूठ को सत्य का लबादा ओढ़ाना असम्भव है। सोचने वाली बात है कि यह बैसाखी कब तक सहायता करेगी? इसके लिए मुझे कबूतर का सयानापन याद आ रहा है जो सोचता है कि उसने आँखें बन्द कर ली हैं तो सामने आई हुई बिल्ली चली गई है। पर ऐसा नहीं होता।
धन-सम्पत्ति, विद्वत्ता, बल, अपनी वंशावली आदि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करने से कोई महान और लोकप्रिय नहीं बन जाता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मान लीजिए हमारे पास धन-सम्पत्ति का अभाव है पर हम ऐसा पोज़ करते हैं कि हमारे बराबर कोई अमीर नहीं है। बहुत दिनों तक हम सच्चाई को छुपा नहीं सकेंगे जब हमारी तंगहाली का साथियों को पता चलेगा तो वे किनारा करने के साथ-साथ गालियाँ देंगे और कोसेंगे। यदि साथियों को वास्तविकता का ज्ञान होता तो यह स्थिति न बनती। सत्यता से की हुई मैत्री अधिक अच्छी होती है न कि बाद में लानत-मलानत हो।
इसी प्रकार विद्वत्ता का ढोंग करने वालों की पोल भी शीघ्र खुल जाती है। यहाँ मैं महाकवि कालिदास का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहती हूँ। विद्वानों का वेश पहनकर उन्होंने परम विदुषी विद्योतमा से विवाह तो कर लिया पर उनकी पोल शीघ्र ही खुल गई और उनकी पत्नी ने उन्हें घर से निकाल दिया गया।
शक्तिहीन शक्ति का प्रदर्शन कितना भी कर ले पर वास्तविकता के सामने ही उसकी किरकिरी हो जाती है। इसीलिए कहते हैं कि बादल वही गरजते हैं या प्रदर्शन करते हैं जो बरसते नहीं है और जो बरसने वाले बादल होते हैं उन्हें गरजने की आवश्यकता नहीं होती। वे आते हैं छमाछम बरसते हैं और सबको तृप्त करके चले जाते हैं।
बढ़ा-चढ़ाकर अपने गुणों का बखान करने से गुणहीन गुणवान नहीं बनते, अल्पज्ञ विद्वान नहीं बन जाते, शक्तिहीन शक्तिशाली नहीं हो सकते और धन-सम्पत्ति का अनावश्यक प्रदर्शन समृद्धि नहीं दिलाती। इसीलिए ये मुहावरे कहे गए हैं-
थोथा चना बाजे घना।
और
अधभरी गगरी छलकत जाए।
हमें कबूतर की तरह वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए बल्कि अपने अन्दर ऐसे गुणों का समावेश करना चाहिए अथवा इतनी योग्यता बढ़ानी चाहिए कि प्रदर्शन करने की आवश्यकता ही न रहे। लोग हमें ढूँढते हुए स्वयं आएँ। हम दुनिया के पीछे न भागें। हम जैसे हैं वैसे ही हमें स्वीकार करने के लिए सबको विवश होना पड़े।
दुनिया को झुकाने वाला बनने की क्षमता हम में होनी चाहिए न कि झुकने वाली तथाकथित लाचारगी होनी चाहिए। मेरा तो यही मानना है कि हमारे पूर्वजन्मों के कृतकर्मों के अनुसार भाग्य से जो हमें ईश्वर ने दिया है, उसके लिए शर्मिन्दा नहीं होना चाहिए। इस जन्म में ऐसे कर्म कर लेने चाहिए कि हमें आने वाले जन्मों में वह सब मिले जो हम पाना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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