शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

नश्वर शरीर

शरीर नश्वर

हम इस बात से कदापि अनभिज्ञ नहीं हैं कि हमारा यह शरीर भी हमारा अपना नहीं है, यह नश्वर है। जो भी जीव इस असार संसार में जन्म लेता है, उसे अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिला हुआ समय, पूर्ण करके इस दुनिया से विदा लेनी पड़ती है। समय आने पर अपने बन्धु-बान्धव ही इसे अग्नि को समर्पित कर देते हैं। इसे हम ईश्वरीय विधान कह सकते हैं। इस प्रक्रिया में जीव की इच्छा-अनिच्छा या प्रसन्नता-अप्रसन्नता कोई मायने नहीं रखती। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हमें यह शरीर सीमित समय के लिए मिला है।
            इस संसार से जाना है तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम अपने दायित्वों से मुँह मोड़ लें या पलायनवादी प्रवृत्ति के बन जाएँ। अपने व अपनों के प्रति लापरवाह बन जाएँ। कुछ विद्वान कहते हैं- 
  क्या तन माँजना रे आखिर माटी में मिल जाना।
अर्थात् यह शरीर अन्त में मिट्टी में मिल जाने वाला है। इसलिए इस शरीर को सजाने-संवारने की कोई आवश्यकता नहीं है।
              यह तो पलायनवादी प्रवृत्ति है या अति वैराग्य की स्थिति है। जब संसार से जाना ही है तो फिर अपने शरीर को न स्वच्छ रखो, न सजाओ और न ही संवारो। उन लोगों का कहना है कि जब शरीर नश्वर है तो इसकी सार संभाल करने या इसे सजाने में सारा समय व्यतीत करने का तो कोई लाभ नहीं। इसको साफ करने या माँजने में समय लगाना उसे व्यर्थ गंवाना है। 
            इसके विपरीत संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्' महाकाव्य में कहा हैं- 
             शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। 
अर्थात् शरीर धर्म के कार्यों को पूर्ण करने का साधन है। इस सूक्ति का भाव यह है कि यदि शरीर रोगी हो जाएगा तो मनुष्य अपना ध्यान नहीं रख पाएगा। अपने स्वयं के, धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी दायित्वों का निर्वहण नहीं कर सकेगा। तब वह ईश्वर का स्मरण भी नहीं कर सकेगा। इस शरीर  को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए उचित आहार-विहार तथा स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक है। मनु महाराज ने 'मनुस्मृति:' में धर्म के दस नियमों का वर्णन किया है -
       धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
       धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।
इस श्लोक में भी 'शौचम्' कहकर तन और मन की शुद्धता पर बल दिया गया है। 
              इस बात को मानने के लिए हम कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि शरीर के बाह्य सौन्दर्य की ओर ही सारा समय ध्यान नहीं देना चाहिए। इस कारण यदि हम दीन-दुनिया को भूल जाएँ या अपने दायित्वों से किनारा कर लें, यह किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता।
             हम इस बात को भी भूल नहीं सकते कि 'कठोपनिषद्' में बताया है कि हमारा यह शरीर एक रथ के समान है जो इस शरीर में विद्यमान आत्मा को एक साधन के रूप में मिला है। इसमें बैठे यात्री आत्मा को वह इस सृष्टि की यात्रा करवाता है। अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर प्रदत्त आयु पूर्ण करने के उपरान्त ही यह शरीर रूपी रथ आत्मा को उसके लक्ष्य मोक्ष तक ले जाता है। यदि इस रथ में पर्याप्त ईंधन न डाला जाए, इसका रख-रखाव सुचारू रूप से न किया जाए तो रथ अपनी गति से नहीं चल सकता। 
             हमारा यह भौतिक शरीर ईश्वर की देन है। इसको सजाने-संवारने में अति का समर्थन कोई भी नहीं करेगा। परन्तु फिर भी इसकी देखभाल करने का दायित्व भी तो हमारा ही है। उससे हम कैसे मुँह मोड़ सकते हैं? यदि इसे साफ-सुथरा नहीं रखेंगे तो यह अस्वस्थ होकर हमारे लिए भार बन जाएगा। यदि कई-कई दिन तक वस्त्र नहीं बदलेंगे या स्नान नहीं करेंगे तो मैला संप्रदाय वाले साधुओं की तरह दूर से ही दुर्गन्ध आने लगेगी। फिर कोई भी पास बैठना पसन्द नहीं करेगा।
              क्षणिक वैराग्य की बात करें तो वह हमें श्मशान में जाकर आता है। वहॉं शवों को दहन होते हुए देखकर हमें लगता है कि इस संसार में कुछ नहीं रखा है। यह मोह-माया सब झूठ है, छलावा है। एक दिन सबको यहीं आना है। फिर कुछ ही क्षण पश्चात अर्थात् श्मशान से बाहर निकलते ही सब सामान्य होकर अपने ढर्रे पर चलने लगता है। हम भी सब कुछ भूलकर दुनिया के व्यापार में, कारोबार में जुट जाते हैं। मन में आया हुआ वह श्मशान वैराग्य कहीं खो जाता है।
             संसार के आकर्षण इतने अधिक हैं कि मनुष्य को वास्तव में वैराग्य होना बहुत ही कठिन है। दुनिया के मोहमाया के बन्धनों में फंसे हम मनुष्य वैराग्य के सही मायने नहीं जान पाते। चर्चा करने मात्र से वैराग्य की स्थिति नहीं बनती। उसके लिए मन को संसार से विरक्त करने की आवश्यकता होती है जो वास्तव में टेढ़ी खीर है। जल में कमल की तरह रहना वैराग्य है। राजा जनक की तरह कोई विरला ही मिलेगा जो वास्तविक अर्थों में वैरागी या वीतरागी होगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

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