शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

ईश्वर के न्याय में दखलअंदाजी नहीं

ईश्वर के न्याय में दखलअंदाजी नहीं 

ईश्वर परम न्यायकारी है। यह सत्य है कि उसके न्याय को हम अज्ञ मनुष्य नहीं समझ पाते। इसलिए जाने-अनजाने हम उस ईश्वर के न्याय में अपनी दखलअंदाजी करने लगते हैं जिसे किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। शायद इसका कारण हम यह कह सकते हैं कि मनुष्य स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझता है। हो सकता है आप मेरी बात से असहमत हों परन्तु यदि मेरे विचारों को पढ़कर तर्क की कसौटी पर कसेंगे तो मानेंगे कि मैं सर्वथा सत्य कह रही हूँ।
             संसार में रहते हुए हमें यदा-कदा लोगों के कटाक्ष अथवा उनके द्वारा किए गए अपमान का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त किसी दूसरे के कारण हमें कभी-कभी हानि उठानी पड़ती है अथवा न चाहते हुए अनावश्यक झगड़े में फंस जाना पड़ता है। उस समय हम दुखी होकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं- "हे ईश्वर! मेरा दिल दुखाने वाले उस मनुष्य को कभी न छोड़ना, उसे माफ भी न करना। उसे कड़ी-से-कड़ी सजा देना ताकि उसे सबक (lesson) मिल जाए। वह फिर से मेरा अथवा किसी ओर का अहित करने की हिम्मत न कर सके।"
            अब बताइए कि वह मालिक जब सब कुछ जानता है तो हम कौन होते हैं उसे न्याय करना सिखाने वाले? उसे अनावश्यक सलाह देकर स्वयं को उससे श्रेष्ठ बनने का साहस करने वाले? क्या हमने कभी ईश्वर से अपने तथाकथित शत्रु को क्षमा करने करने के लिए प्रार्थना करते हुए कहा है- "हे प्रभु! फलाँ व्यक्ति ने अपराध तो किया है पर उसने अज्ञानतावश किया। उसे क्षमा कर देना और उसे मेरे कारण कष्ट न देना।" यदि हम ऐसा करने लगें तो उस न्यायप्रिय प्रभु को शायद अच्छा लगेगा कि हम दूसरों को क्षमा करने के लिए याचना करने का भाव रख सकते हैं।
             ईश्वर के लिए सभी जीव एक समान हैं। सभी जीव उसकी सन्तान हैं यानी उसी का ही अंश हैं। उसकी नजर से कोई भी बच नहीं सकता। हमारे प्रति अपराध करने वाला हो सकता है दोषी ही न हो बल्कि दोष हमारा ही हो। ऐसा भी हो सकता है कि हमने उसके प्रति कभी कुछ गलत किया होगा जिसका परिणाम हमें अब इस रूप में भुगतना पड़ रहा हो। हाँ, ऐसा भी हो सकता है कि वास्तव में वही दोषी हो। हम इस विषय में कुछ भी नहीं जानते समझते हैं।
            दोनों स्थितियों में दोषी और निर्दोष होने का न्याय हम नहीं कर सकते। अत: इस समस्या को उसी मालिक पर ही छोड़ देना चाहिए। वहीं सब कुछ देखता है और यथोचित न्याय करता है। उसकी यह खूबी है कि वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। इसीलिए ऋषि-मुनि और हमारे ग्रन्थ उसे समदर्शी कहते है। वह स्वयं इसका न्याय कर लेगा। हम उसकी तरह हर जीव के मन के भावों को न पढ़ सकते हैं और न ही जान सकते हैं। 
            इसलिए सारी व्यवस्थाएँ वही सम्हालता है। यदि वह हमारे ऊपर सब कुछ छोड़ दे तो सब गड़बड़ हो जाएगा। उस समय एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के मुँह में जाता हुआ निवाला भी छीनकर खा जाएगा। इस प्रकार दुनिया में हर तरफ अव्यवस्था का साम्राज्य हो जाएगा। चारों ओर हाहाकार मच जाएगा और लोग त्राहि-त्राहि कर उठेंगे। इस संसार में शातिर तथा दुराचारी लोगों का बोलबाला होने लग जाएगा। तब आम आदमी का जीना दुश्वार हो जाएगा। 
             हम अपने आसपास बहुधा देखते हैं कि कुछ व्यक्ति विशेष ऐसे होते हैं जिनका अहित करने वालों का कभी अच्छा नहीं होता, अपने किए गए दुष्कर्म का फल उन्हें निश्चित मिलता है। और कुछ लोगों के साथ बुरा करने वालों का बाल भी बांका नहीं होता। कारण वही है कि प्रथम श्रेणी के लोग मन से सहज, सरल व शुभचिन्तक होते हैं, वे किसी का अहित नहीं करते। दूसरी श्रेणी के लोग दिखावा अधिक करते हैं परन्तु मन से दूसरों का हित चिन्तन नहीं करते।
        हमारे पूर्वजन्मकृत कर्मों के ही आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ जज बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी के दबाव में आए हमारे लिए निष्पक्ष न्याय करता है। यह उसी की कड़ी है कि हमें अपने जीवन में किसी व्यक्ति विशेष से यदा कदा सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ आदि मिलते हैं। तब हम उस न्यायकारी परमेश्वर से अपने प्रति किए गए किसी भी दोष के लिए उस व्यक्ति विशेष को दण्डित करने की गुहार नहीं लगानी चाहिए। मेरे विचार में ऐसा करना कदापि उचित नहीं है।
             हमें अपने कर्मों की शुचिता पर बहुत अधिक ध्यान देना चाहिए। हमें कर्म करते समय सदा सावधान रहना चाहिए। हमें इस ओर ध्यान देना चाहिए कि यथासम्भव हमारे कृत्य किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अहितकर न हों। हमारे कारण किसी अन्य जीव को कोई कष्ट न होने पाए। अपने प्रयासों में यदि हम सच्चाई व ईमानदारी को ला सकें तो ऐसे छोटे-मोटे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाएँगे। हमें उस दयालु न्यायकारी के न्याय में हस्ताक्षेप करने का दोष भी नहीं लगेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

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