गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

हीरे की पहचान जौहरी को

हीरे की पहचान जौहरी को

हीरे की पहचान जौहरी को ही होती है, यह कथन सर्वथा सत्य है। जौहरी की पारखी नजर उसे देखते ही उसके रंग-रूप और कैरेट आदि के अनुसार बिना समय गॅंवाए उसका मूल्य बता देती है। हम अनाड़ी लोग कितनी भी देर तक उसे हाथ में पकड़कर उसे उल्ट-पुलट कर निहारते रहें फिर भी उसके मूल्य का अंदाजा तक नहीं लगा सकते। हीरा स्वयं यह नहीं कहता कि देखो मैं बहुत मूल्यवान हूँ, मुझे खरीद लो या अपने पास संभालकर रख लो।
              इसी प्रकार इस संसार में हीरे जैसे जो लोग विद्यमान हैं, वे भी अपना ढिंढोरा नहीं पीटते। न ही वे स्वयं होकर कहते हैं कि हम बहुत विद्वान हैं। आओ हमें पहचान कर हमारी कद्र करो। उन विद्वानों की विद्वता, उनकी सधी हुई वाणी और उनका सभी जीवों के प्रति व्यवहार आदि सद् गुण ही उनकी पहचान होते हैं। वे कहीं भी छिपकर रहें परन्तु फूलों की सुगन्ध की तरह चारों ओर उनका यश, उनकी कीर्ति फैल जाती है। उनके ज्ञान का प्रभाव इतना होता है कि लोग उन्हें ढूंढते हुए स्वयं ही उनके पास पहुॅंच जाते हैं।
             मीलों दूर कूड़े के ढेर की बदबू तेज हवा के चलने पर अपना प्रभाव दिखा देती है। वह पीछा नहीं छोड़ती बल्कि परेशान कर देती है। ऐसे ही हींग को कितनी परतों में छिपाकर रख लो उसकी हीक या गन्ध तो आ ही जाती है। यानी कि सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों ही अपना प्रभाव छोड़ती हैं। ये दोनों ही मानव मन को प्रभावित करती हैं। वातावरण के सुगन्धित होने पर वह आनन्दित होता है और दुर्गन्ध होने पर वह अनमना-सा हो जाता है।
              इसी प्रकार दुर्जन या दुष्ट व्यक्ति की कुख्याति भी देश-देशान्तर में फैलती है। वे न्याय व्यवस्था के दोषी बन जाते हैं। कानून व पुलिस उनके पीछे रहते हैं। उनका दिन-रात का चैन खो-सा जाता है। अपने को बचाने के लिए वे इधर-उधर भटकते रहते हैं और अपने रहने के ठिकाने आए दिन बदलते रहते हैं। अब सोचिए कि ऐसे अकूत धन का क्या लाभ जो देश व समाज का शत्रु ही बना दे? न चाहते हुए भी व्यक्ति से अपना घर-परिवार और बन्धु-बान्धव छुड़वा दे।
             हीरे जैसे विद्वानों की विद्वत्ता देखी जाती है और उनका ज्ञान परखा जाता है, उनकी आयु नहीं देखी जाती। इसी बात को संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्' महाकाव्य में कहा है - 
            धर्मवृद्धेषु वय: न समीक्ष्यते।
अर्थात् इस श्लोकांश में कहा कहा गया है कि धर्म में श्रेष्ठ लोगों की आयु नहीं देखी जाती या धर्म के ज्ञाता लोगों की आयु नहीं देखी जाती। 
               इसका यही अर्थ है कि धर्म के मामले में ज्ञान और आचरण की श्रेष्ठता आयु से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। कम आयु का व्यक्ति भी ज्ञान और आचरण के कारण आदरणीय हो सकता है। इसीलिए छोटी आयु के सन्यासी के पॉंव भी लोग छूते हैं। यहॉं में परम विद्वान बालक अष्टावक्र का उल्लेख करना चाहती हूॅं। शरीर में आठ स्थानों से टेढ़े ज्ञानी बालक अष्टावक्र ने उस समय के विद्वानों में अपनी  योग्यता का लोहा मनवा लिया था। हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। सिर्फ हमारे खोजने की आवश्यकता है।
         महाकवि कालिदास ने 'रघुवंशम्' महाकाव्य में कहा है -
          तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते" 
अर्थात् तेजस्वी लोगों की उम्र नहीं देखी जाती अथवा प्रतिभाशाली लोगों की आयु कोई मायने नहीं रखती। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति की प्रतिभा और क्षमता को उसकी उम्र से नहीं आंका जाना चाहिए।
              तेजस्वी लोग कम आयु में भी अपनी तेजस्विता से, ओजस्विता से और अपनी योग्यता से समाज को चमत्कृत कर देते हैं। जैसे आदिगुरु शंकराचार्य ने केवल 32 वर्ष की आयु में, स्वामी विवेकानन्द ने 39 वर्ष की आयु में और महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 59 वर्ष की आयु में ही विश्व को अपनी प्रतिभा से आन्दोलित कर दिया था ।
            अलौकिक गुणों से युक्त ये महानुभाव सभी के सच्चे हितैषी होते हैं। घर-परिवार, देश, धर्म और समाज की भलाई के लिए हर समय तत्पर रहते हैं। जो कोई इनके पास जाकर इनसे सहायता की अपेक्षा करता है उसे कभी भी निराश नहीं करते। इनका साथ सोने में सुहागे की तरह होता है। ये लोग सत्वगुण वाले सदाचारी होते हैं। जो स्वयं सन्मार्ग पर चलते हैं और समाज को उचित मार्गदर्शन देते हैं। अपना उद्धार करने के लिए इन महानुभावों की संगति यत्नपूर्वक करनी चाहिए।
             इनकी संगति में रहने से मन में पड़ी हुई ग्रन्थियाँ स्वतः खुलने लगती हैं। मन में आए हुए सभी दुर्विचार खुद ही किनारा करते जाते हैं। एक दिन ऐसा आएगा जब हम राग-द्वेष, छुआछात, जाति-पाति व अमीरी-गरीबी आदि के भेद से स्वयं को ऊपर पाएँगे। सभी जीव हमारे लिए भी एक समान हो जाएँगे। हम किसी भी मनुष्य के साथ पक्षपात नहीं करेंगे। यह स्थिति वास्तव में बहुत ही सुखदाई होगी। उस समय की कल्पना करके ही मन आह्लादित हो जाता है।
            हमारे अपने आसपास बहुत से ऐसे हीरे विद्यमान हैं। हमें हमेशा ऐसे हीरों की तलाश करते रहना चाहिए। यथासम्भव उनसे जुड़ने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार से प्रयत्न करने पर हमारा इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाएँगे। तब ईश्वर प्रदत्त हमारे इस मानव जीवन को पाने का उद्देश्य भी पूर्ण हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

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