मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

समदर्शी ईश्वर

समदर्शी ईश्वर 

ईश्वर समदर्शी है। समदर्शी का अर्थ है समान रूप से देखने वाला, निष्पक्ष या भेदभाव न करने वाला।  वह सभी लोगों, वस्तुओं या परिस्थितियों को बिना किसी पक्षपात या भेदभाव के समान रूप से देखता है। ईश्वर की दृष्टि में सभी जीव एक समान हैं। वह किसी भी जीव के साथ पक्षपात नहीं करता। 
          यह तो हम इन्सान हैं जो पक्षपात किए बिना मानते ही नहीं हैं। समदर्शिता एक महत्वपूर्ण गुण है जो व्यक्ति को अधिक न्यायप्रिय और सहानुभूतिपूर्ण बनाता है। ऐसा व्यक्ति सभी लोगों के प्रति समान भाव रखता है चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या सामाजिक वर्ग के हों। व्यक्ति किसी भी स्थिति में किसी के साथ पक्षपात नहीं करता है बल्कि निष्पक्ष रूप से न्याय करता है। 
       निम्न लोकोक्ति शायद इसीलिए कही गई है- 
       अन्धा बॉंटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को दे।
अर्थात् यदि अन्धे व्यक्ति को रेवड़ियाँ बाँटने के लिए दे दी जाऍं तो वह बार-बार अपने ही लोगों को देने लग जाएगा।
          यह कहावत उन लोगों पर लागू होती है जो अपने पद या शक्ति का उपयोग अपने निजी लाभ अथवा अपने परिचितों को फायदा पहुॅंचाने के लिए करते हैं। जबकि दूसरों के साथ न्याय नहीं करते। यह एक तरह का पक्षपात है जहॉं व्यक्ति अपने करीबी लोगों को विशेष व्यवहार या लाभ प्रदान करता है और दूसरे लोगों को नजरअंदाज करने का कार्य करके पाप का भागीदार बनता है। इस विषय में उसे अवश्य विचार करना चाहिए।
           इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। कमोबेश हम सभी की  यही स्थिति है। हमें अपने से बढ़कर कुछ दिखाई ही नहीं देता। मैं, मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरा परिवार- बस यहीं तक हमारी दुनिया सीमित है। इन्हीं के लिए हम जीते हैं, इन्हीं के लिए हम सोचते हैं और इन्हीं सबके लिए संसार के अच्छे-बुरे सारे कारोबार करते हैं। हम सब कूप मण्डूक हैं यानी कुँए के उस मेंडक की तरह हैं जो उसी कुँए को अपना संसार मान लेता है जहाँ वह रहता है। वहीं पर वह खुशी से सारा जीवन बीता देता है। उससे बाहर निकलने के विषय में वह सोच ही नहीं पाता। उसे बाहरी दुनिया से कोई लेना देना नहीं होता।
           मनुष्य को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जाता है। उसमें ईश्वरीय गुण अपनाने की भरपूर क्षमता है पर वह उन्हें अपनाना नहीं चाहता। वह तो स्वार्थ और मोह के कारण अन्धा हो जाता है। अपने पैदा किए हुए बच्चों के साथ भी वह समानता का व्यवहार नहीं कर पाता। कोई बच्चा उसे अधिक प्रिय होता है और किसी की वह शक्ल भी नहीं देखना चाहता। कभी बेटे के मोह में अपनी बेटी के साथ अन्याय कर बैठता है तो कभी झूठे अहं के कारण आपसी सामंजस्य नहीं बिठा पाता। अपनी धन-सम्पत्ति के बटवारे के समय भी कुछ लोग पक्षपात कर देते हैं।
              दूसरों का हक छीनते, उनका गला काटते, भ्रष्टाचार में लिप्त होते, अनाचार-अत्याचार करते हुए कुछ लोगों का न उसका दिल काँपता है और न पसीजता है। न उसके मन में समाज का डर होता है और न ईश्वर का। अन्तिम अवस्था में चाहे उसे अपने दुष्कर्मों पर पछतावा करना पड़े क्योंकि जिनके लिए वह सब स्याह-सफेद करता है, वही प्रियजन उसका साथ नहीं निभाते। समय बीतने पर वह अकेला हो जाता है और उसके मन को क्लेश होता है। 
               मनुष्य ने अपने आसपास छुआ-छात, जात-पात, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि की ऊॅंच-नीच की अनावश्यक ही दीवारें खड़ी कर दी हैं। सारा समय व्यर्थ में ही भेदभाव करके मनुष्य अपने लिए कॉंटे बोने का काम करता है। वह स्वयं नहीं जानता कि सीमित समय के लिए मिले इस मानव जीवन को वृथा गॅंवाकर उसे अन्तकाल में पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलेगा। यदि वह इसका परिणाम सोच ले तो अपने जीवनकाल में ऐसी हरकतें नहीं कर सकेगा।
        परमात्मा का अंश यह मनुष्य जब संसार में आता है तो उस ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे गहन अंधकार से मुक्ति दो। मैं दुनिया की चकाचौंध में न फंसकर तेरा ध्यान करूँगा। शायद दुनिया की हवा ही कुछ ऐसी है कि जिसके लगते ही वह अपने वचन भूल जाता है। तब दुनिया के आकर्षणों से घिरा वह प्राथमिकताओं से विमुख हो जाता है। फिर वह न तो सम रह पाता है और न समदर्शी।
             यदि मनुष्य ईश्वर की भाँति समदर्शी बन जाए तो सभी जीवों यानी पानी में रहने वाले जीवों ( जलचर), आकाश में उड़ने वाले जीवों (खेचर) तथा पृथ्वी पर रहने वाले जीवों (भूचर) के साथ एक जैसा व्यवहार करेगा। किसी को मारकर खा जाने या उसे हानि पहुँचाने के विषय में सोचेगा ही नहीं। उनके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा वह अपने लिए चाहता है। सब जीव उसके लिए अपने जैसे ही हो जाएँगे। तब वह प्राणिमात्र से सच्चे अर्थों में जुड़ सकता है। यदि मानव ऐसा सब कर सके तो वास्तव में समदर्शी बन सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

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