रविवार, 26 अक्टूबर 2025

मन की उदासी

मन की उदासी

हरिओम शरण जी का यह भजन मनुष्य के उदास हो रहे मन को समझाता है। इसके माध्यम से वे कहना चाहते हैं कि यदि स्वयं को पूर्णरूपेण ईश्वर को समर्पित कर दिया जाए तो मन के उदास होने की आवश्यकता नहीं रहती। वह परमपिता परमात्मा हर कदम पर उसके साथ चलता हुआ स्वयं ही उसका भार उठा लेते हैं -
 तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार 
उदासी मन काहे को करे।
नैया तेरी प्रभु हवाले,
लहर लहर हरि आप सँभाले ।
हरि आप ही उठावे तेरा भार, 
उदास मन काहे को करे। तेरा प्रभुजी करेंगे.....
काबू में मँझधार उसी के, 
हाथों में पतवार उसी के।
तेरी हार भी नहीं है तेरी हार, 
उदासी मन काहे को करे। तेरा प्रभुजी करेंगे.....
सहज किनारा मिल जाएगा, 
परम सहारा मिल जाएगा
डोरी सौंप के तो देख एक बार, 
उदास मन काहे को करे। तेरा रामजी करेंगे.....
तू निर्दोष तुझे क्या डर है, 
पग पग पर साथी ईश्वर है 
जरा भावना से कीजिये पुकार, 
उदास मन काहे को करे। तेरा रामजी करेंगे.....
          जब हम सब जानते हैं कि मन को व्यर्थ परेशान करने का कोई लाभ नहीं होता। जो कुछ भी हमारे मन में व्यथा है या उदासी है, उसे ईश्वर ने ही दूर करना है। मनुष्य के हाथ में कुछ नहीं होता। जब हम सब यह जानते हैं, समझते हैं तो फिर हम अपने मन की गहराई से इस तथ्य को स्वीकार करने से क्यों हिचकिचाते हैं? इस सत्य को हम जितनी जल्दी समझ लें, स्वीकार कर लें, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर होता है।
          हमारा मन तभी उदास होता है जब हम कठिनाई में होते हैं। हमें अपने चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगता है कि कष्ट की रात बहुत लम्बी हो गई है। ये स्थिति हमारे समक्ष तब उपस्थित होती हैं जब हम रोगग्रस्त होते हैं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में असफलता का मुँह देखते हैं, व्यापार या नौकरी में परेशानी होती है अथवा अपयश मिलता है। इन सबके अतिरिक्त कभी-कभी हम अपने चारों ओर झूठे अहं के कारण अनावश्यक रूप से दीवारें खड़ी कर लेते हैं।
           उस समय मन की स्थिति अच्छी नहीं होती। न हमारा मन किसी से बात करने का होता है और न ही घूमने-फिरने का। तब न हम फिल्म देखना चाहते हैं और न खरीददारी करना चाहते हैं। किसी पार्टी, क्लब, सभा-सोसाइटी के कार्यक्रमों में भी मन उचाट-सा रहता है। टीवी, रेडियो और कंप्यूटर आदि सब बेमायने हो जाते हैं। कोई परिवारी जन कुछ बात करना चाहे तो अनमने होकर या चिढ़कर हम उसे उत्तर देते हैं। यह भी परवाह नहीं करते कि उसे बुरा लगेगा या वह नाराज हो जाएगा।
          उस समय हम बस अंधेरे कोने को तलाश कर उसमें ही सिमटना चाहते हैं। तब किसी तरह का कोई प्रकाश हमें नहीं भाता। हम सिर्फ अपनी बनायी हुई घुटन में तड़पते रहते हैं। दुनिया को और दुनिया बनाने वाले को अपनी असहाय अवस्था का दोषी मानते हुए उसे पानी पी-पीकर कोसते हैं। फिर भी हमारे मन को शान्ति नहीं मिल पाती बल्कि वह अशान्त ही रहता है। मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए स्वयं को सम्हालना पड़ता है।
          ऐसे निराश और हताश हम सबसे कटकर जीना चाहते हैं पर उस मालिक को याद करने के बारे में नहीं सोचते। उस समय हम मन की शान्ति के लिए तथाकथित धर्मगुरुओं व तन्त्र-मन्त्र वालों के पास जाकर अपनी मेहनत की कमाई को व्यर्थ गंवाते हैं। धार्मिक स्थानों व तीर्थ स्थलों की यात्रा करके मन की शान्ति की तलाश करते हैं। नदियों में डुबकी लगाकर अपने दोषों को दूर करने का असफल प्रयास करते हैं। इन सब प्रयासों से मन की शान्ति तो नहीं मिलती पर धन व समय की बरबादी अवश्य होती है।
         सब तरफ से थक-हार कर जब हम निराश हो जाते हैं तब उस मालिक की ओर हमारा ध्यान जाता है। उस समय हमें महसूस होता है कि हम अभी तक अनावश्यक ही भटक रहे थे, उसकी शरण में अब तक क्यों नहीं आए?
         हम कितनी भी मुसीबतों में घिर जाएँ, हमें उस परम दयालु प्रभु के अतिरिक्त कोई और नहीं उबार सकता। उसकी शरण में सच्चे मन से जाने पर वह करुण पुकार अवश्य सुनता है। हमारे कर्मानुसार सही समय पर वह कष्टों को दूर करता है। वह हमारा सच्चा मीत व बन्धु है। यदि उसका दामन सच्चे मन से थाम लेना चाहिए । वह कभी किसी को निराश नहीं करता। वहीं है जो सब उदास, परेशान लोगों को मार्ग दिखाता है। इसलिए मनीषी उसे सच्चा पिता कहते हैं।
            अपने मन को सांसारिक दायित्व निभाते हुए ईश्वर की ओर उन्मुख करना चाहिए। यदि मन ईश्वर के ध्यान में रमने लगेगा तो उसे हर प्रकार की उदासी से छुटकारा मिल जाएगा। कोई उदासी उसके रास्ते का रोड़ा नहीं बनेगी। मनुष्य जब अपने सभी कार्यों को ईश्वर को समर्पित करने लगेगा तो उसका मन प्रफुल्लित और उत्साहित रहेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

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