शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025

इन्सान गलतियों का पुतला

इन्सान गलतियों का पुतला

इन्सान गलतियों का पुतला है। वह बार-बार गलती करता है और उसका परिणाम आने पर पश्चाताप करता है। समय बीतने पर वह फिर पहले जैसा बन जाता है। यदि वह गलती न करे तो फिर वह भगवान के समान ही हो जाएगा। जाने-अनजाने मनुष्य बहुत-से अपराध करता रहता है जिनका दण्ड उसे भोगना पड़ता है। उसे प्रयास यही करना चाहिए कि वह अपने दोषों के कारण तिरस्कृत न हो। अपनी कमियों को दूर करने का यत्न करना चाहिए। यदि सावधानी बरती जाए तो वह उसमें सफल हो सकता है।
            कभी-कभी किसी मनुष्य का एक दोष भी उस पर भारी पड़ जाता है। परन्तु प्रायः एक दोष उसके गुणों के समूह में उसी प्रकार छिप जाता है जैसे चन्द्रमा पर लगे हुए एक दाग को लोग अनदेखा कर देते हैं। संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्' महाकाव्य के निम्न श्लोक में इसी भाव को लिखा है-
          अनन्तरत्नप्रभवस्य यस्य
                हिमं न सौभाग्यविलोपि जातम्।
          एको हि दोषो गुणसन्निपाते 
               निमज्जतीन्दोः किरणेष्विवाङ्कः।।
अर्थात् अनन्त रत्नों के प्रभव हिमालय के सौन्दर्य का विनाश उपर जमी बर्फ नहीं कर सकती चूॅंकि दोष गुणों के समूह में वैसे विलीन हो जाता है जैसे चन्द्रमा की किरणों में कलंक।
         ‌‌ दूसरे शब्दों में हम यहकह सकते हैं कि गुणों का समूह एक दोष को महत्वहीन बना देता है। जैसे हिमालय अनेक रत्नों और गुणों से भरा है। इसलिए उसकी ऊपरी बर्फ  उसके सौन्दर्य को कम नहीं करती। सार रूप में जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणों में उसका एक दोष या कलंक छिप जाता है और दिखाई नहीं देता, ठीक उसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति में या किसी वस्तु में बहुत सारे गुण हों तो उसमें मौजूद एक छोटा-सा दोष उतना महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। यह सुन्दर संस्कृत श्लोक हमें किसी व्यक्ति में मौजूद एक दोष पर ध्यान केन्द्रित करने के स्थान पर उसमें विद्यमान गुणों को देखने का महत्व सिखाती है।
         ‌‌  चन्द्रमा के शीलतता, प्रकाश आदि गुणों के साथ-साथ उसकी सुन्दरता भी महत्त्वपूर्ण है। उसका सौन्दर्य तो अनेक कवियों और लेखकों के लिए सदियों से प्ररेणा का स्त्रोत रहा है। वह बच्चों का प्यारा चन्दा मामा है। माँ बच्चे को सुलाने व बहलाने के लिए भी चन्दा मामा का सहारा लेती है। कितने ही गीत व बच्चों की कविताएँ उसे लक्ष्य करके लिखी गई हैं। ऐसे चन्दा में जो एक दाग है, उसे लोग नजरअंदाज कर देते हैं। इसने तो वैज्ञानिकों को भी अपनी ओर बहुत ही आकर्षित किया है। वे भी इसकी खोज करने के लिए बार-बार उपग्रह भेजते हैं।
              जिन लोगों में गुणों की अधिकता होती है उनके एकाध दोष को भी चन्द्रमा के एक दोष की तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है। केवल उनके गुणों को ही महत्त्व दिया जाता है दोषो को नहीं। इसका अर्थ यह भी है कि जो व्यक्ति गुणों की खान हैं, उनका एक दोष कष्ट का कारण नहीं बनता। यह सत्य है कि गुणीजनों के गुण परखे जाते हैं। यदि वे कसौटी पर खरे उतरते हैं तो फिर लोग उन्हें अपने सिर आँखों पर बिठाते हैं। उनके उन्हीं गुणों को अपनाने के लिए लोग सदैव आतुर रहते हैं।
             अपने घर-परिवार, मित्रों-बन्धुओं व देश-समाज के सभी दायित्वों को वे पूर्ण करते हैं। कुछ दायित्वों को निभाने में हमारा स्वार्थ जुड़ा होता है। परन्तु महान लोगों के सभी कार्य निस्वार्थ होते हैं वे देश, धर्म व समाज के हितों को सर्वोपरि रखते हैं। प्राणीमात्र का हित साधने के लिए वे आतुर रहते हैं। परोपकारी, जनकल्याण की भावना रखने वाले सहृदय लोग वास्तव में महान लोगों की श्रेणी में आते हैं। इसी भाव के कारण ही वे सबके प्रिय बन जाते हैं। जन मानस उनका अनुकरण करता है। वे सभी के बन्धु बन जाते हैं।
             बच्चा अपने माता-पिता के पास बेझिझक होकर अपनी समस्या रखता है। उसे पता होता है कि उसकी समस्या का निदान वे लोग बिना उसका उपहास किए कर देंगे। उसी प्रकार जन साधारण उन महापुरूषों को अपना शुभचिन्तक मानते हुए निसंकोच अपनी समस्याओं को उन्हें बताते हैं। फिर उनके मार्गदर्शन से उन्हें सुलझाते हैं। वे जानते हैं कि उनकी समस्याओं को किसी के सामने प्रकट नहीं किया जाएगा और न ही उनका कभी मजाक बनाया जाएगा।
            मनुष्य को सदा उसके गुणों के कारण ही पहचाना जाना जाता है। उसके सद् गुण उसे महान बनाते हैं और उसे अपनी सिर-ऑंखों पर बिठाते हैं। ऐसे लोग हमारे आसपास ही मौजूद होते हैं। उन्हें बस‌ यत्न पूर्वक खोजना चाहिए। उनकी संगति में अपने सद् गुणों का विकास करना चाहिए। बड़े भाग्य से ऐसे गुणीजनों के संसर्ग का अवसर हाथ आता है। इनके सम्पर्क में आने पर मनुष्य बिना किसी के कहे अपनी कमियों को दूर करने का यत्न करता है। उन्हीं की तरह बनने में अपना सौभाग्य समझता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2025

मुखौटानुमा जीवन

मुखौटानुमा जीवन

हम जैसे हैं वैसे ही दुनिया के सामने रहेंगे तो हमारा एक स्थान व सम्मान बना रहता है। मुखौटा लगाकर प्रदर्शन करने से लाभ के स्थान पर हानि अधिक होती है। हम वास्तव में कुछ और हैं परन्तु दिखावा हम कुछ और करेंगे तो कुछ समय के लिए तो वाहवाही लूट सकते हैं पर जब  पोल खुल जाएगी तो उस की स्थिति की कल्पना कीजिए। तब हमारे पास बगलें झाँकने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं बचता।
            सत्य को कभी भी किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती और झूठ के पाँव नहीं होते। झूठ सत्य को बैसाखी बनाकर चलता है। कसमें खाकर झूठ को सत्य का लबादा ओढ़ाना असम्भव है। सोचने वाली बात है कि यह बैसाखी कब तक सहायता करेगी? इसके लिए मुझे कबूतर का सयानापन याद आ रहा है जो सोचता है कि उसने आँखें बन्द कर ली हैं तो सामने आई हुई बिल्ली चली गई है। पर ऐसा नहीं होता।
           धन-सम्पत्ति, विद्वत्ता, बल, अपनी वंशावली आदि का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन करने से कोई महान और लोकप्रिय नहीं बन जाता। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि मान लीजिए हमारे पास धन-सम्पत्ति का अभाव है पर हम ऐसा पोज़ करते हैं कि हमारे बराबर कोई अमीर नहीं है। बहुत दिनों तक हम सच्चाई को छुपा नहीं सकेंगे जब हमारी तंगहाली का साथियों को पता चलेगा तो वे किनारा करने के साथ-साथ गालियाँ देंगे और कोसेंगे। यदि साथियों को वास्तविकता का ज्ञान होता तो यह स्थिति न बनती। सत्यता से की हुई मैत्री अधिक अच्छी होती है न कि बाद में लानत-मलानत हो।
           इसी प्रकार विद्वत्ता का ढोंग करने वालों की पोल भी शीघ्र खुल जाती है। यहाँ मैं महाकवि कालिदास का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहती हूँ। विद्वानों का वेश पहनकर उन्होंने परम विदुषी विद्योतमा से विवाह तो कर लिया पर उनकी पोल शीघ्र ही खुल गई और उनकी पत्नी ने उन्हें घर से निकाल दिया गया।
        शक्तिहीन शक्ति का प्रदर्शन कितना भी कर ले पर वास्तविकता के सामने ही उसकी किरकिरी हो जाती है। इसीलिए कहते हैं कि बादल वही गरजते हैं या प्रदर्शन करते हैं जो बरसते नहीं है और जो बरसने वाले बादल होते हैं उन्हें गरजने की आवश्यकता नहीं होती। वे आते हैं छमाछम बरसते हैं और सबको तृप्त करके चले जाते हैं।
          बढ़ा-चढ़ाकर अपने गुणों का बखान करने से गुणहीन गुणवान नहीं बनते, अल्पज्ञ विद्वान नहीं बन जाते, शक्तिहीन शक्तिशाली नहीं हो सकते और धन-सम्पत्ति का अनावश्यक प्रदर्शन समृद्धि नहीं दिलाती। इसीलिए ये मुहावरे कहे गए हैं- 
        थोथा चना बाजे घना।
         और
        अधभरी गगरी छलकत जाए।
हमें कबूतर की तरह वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए बल्कि अपने अन्दर ऐसे गुणों का समावेश करना चाहिए अथवा इतनी योग्यता बढ़ानी चाहिए कि प्रदर्शन करने की आवश्यकता ही न रहे। लोग हमें ढूँढते हुए स्वयं आएँ। हम दुनिया के पीछे न भागें। हम जैसे हैं वैसे ही हमें स्वीकार करने के लिए सबको विवश होना पड़े।
              दुनिया को झुकाने वाला बनने की क्षमता हम में होनी चाहिए न कि झुकने वाली तथाकथित लाचारगी होनी चाहिए। मेरा तो यही मानना है कि हमारे पूर्वजन्मों के कृतकर्मों के अनुसार भाग्य से जो हमें ईश्वर ने दिया है, उसके लिए शर्मिन्दा नहीं होना चाहिए। इस जन्म में ऐसे कर्म कर लेने चाहिए कि हमें आने वाले जन्मों में वह सब मिले जो हम पाना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 29 अक्टूबर 2025

प्रलोभनों से बचें

प्रलोभनों से बचें

मनुष्य को अपने जीवनकाल में नानाविध प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है। इस संसार के आकर्षण बहुत अधिक हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने लिए दुनिया की सारी सुख-सुविधाऍं जुटाना चाहता है। यह आवश्यक नहीं कि सबके पास उन्हें पाने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध हों। जो लोग उनसे प्रभावित हुए बिना अपने रास्ते पर चलते रहते हैं वे जीवन की ऊँचाइयों में छूते हैं। इसके विपरीत जो उनके झाँसे में आ जाते हैं वे अपना मार्ग भटक जाते हैं। उनमें से कुछ लोग कभी-कभी भटकते हुए किसी सज्जन की संगति पाकर सन्मार्ग की ओर मुड़ जाते हैं।
             कुछ ऐसे हठी प्रकृति के लोग भी होते हैं जिनके लिए हम कह सकते हैं कि उन्होंने अपने सही रास्ते पर लौटकर न आने की कसम खा ली है। ऐसे ही ये लोग भ्रष्टाचार, अनाचार, आतंकवाद, स्मगलिंग, चोरी-डकैती, कालाबाजारी आदि समाज विरोधी गतिविधियों में लिप्त होते हैं। ऐसे लोगों को यह चिन्ता नहीं होती कि उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? वे अपने बच्चों को कैसे संस्कार दे रहे हैं? वे इन सब पचड़ों में न पड़कर अपनी राह पर चलते जाते हैं। जब उन्हें इन कुकृत्यों का भुगतान करना पड़ता है तब उन्हें नानी याद आने लगती है।
              इन लोगों की ऊपरी चमक-दमक से प्रभावित होकर कुछ लोग इनके चंगुल में फंस जाते हैं। जितना गहरे वे पैठते जाते हैं उतना ही अधिक दलदल में डूबते जाते हैं। तब उनके पास वापसी का रास्ता ही नहीं बचता, सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण है कि यदि वे उस नरक से बाहर निकलना भी चाहें तो उनके साथी ही उन्हें ऐसा करने नहीं देते और यदि वे किसी तरह जबरदस्ती वहाँ से बाहर निकलने की सोचें तो उन्हें जान से मार डालते हैं।
              इसीलिए सयाने कहते हैं कि एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है। यह अक्षरश: सत्य है। इसका कारण शायद यही रहा होगा कि एक दुष्ट व्यक्ति समाज में अन्य बहुत से लोगों के लिए घातक सिद्ध होता है। उसकी देखा देखी कई और लोग कुमार्गगामी हो जाते हैं। वे समाज के लिए कोढ़ के समान होते हैं। इन लोगों को सन्मार्ग पर वापिस लौटाना कठिन हो जाता है। ये लोग स्वयं भी समाज की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं बनना चाहते। उनकी सहायता तभी की जा सकती है जब वे अपने मन से इसके लिए तैयार हों।
             एक दृष्टान्त यहाँ देना चाहती हूँ। अपने बच्चे को सही रास्ते पर लाने के लिए पिता ने एक उपाय किया। उन्होंने बढ़िया सेब की एक टोकरी ली। उसमें एक सड़ा हुआ सेब रख दिया। शीघ्र ही उस सड़े हुए सेब के कारण बाकी अच्छे सेब भी खराब होने लगे। तब उस बच्चे को कुसंगति की हानि समझ में आई। उसने गलत रास्ते पर न जाने का पिता को वचन दिया। पिता ने अपने बच्चे को सन्मार्ग पर लाकर यही सिद्ध किया कि माता-पिता ही अपनी सन्तान के पथप्रदर्शक होते हैं।
            यह घटना यही समझाती है कि एक खराब सेब बढ़िया सेबों को शीघ्र बर्बाद कर सकता है। एक मछली तालाब को गन्दा कर सकती है। उसी प्रकार एक दुर्जन व्यक्ति भी अन्य बहुत से लोगों का जीवन दाँव पर लगा सकता है। अपना जीवन तो वह नष्ट करता ही है अपने साथियों को भी बर्बाद कर देता है। जहॉं तक हो सके ऐसे लोगों से किनारा कर लेना चाहिए। यही मनुष्य की भलाई के लिए श्रेयस्कर होता है।
            ऐसे लोग केवल अपने स्वार्थों को साधने का कार्य करते हैं। वे किसी की भावनाओं का कभी सम्मान नहीं करते। वे विषधारी सर्प की तरह होते हैं जिसे कितना भी दूध पिला लो, उनका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे कभी भी किसी को भी डंक मार सकते हैं। उन पर विश्वास करना सबसे बड़ी मूर्खता होती है। ऐसे लोगों की न दोस्ती अच्छी होती है और न ही दुश्मनी अच्छी होती है। उनका कोई भरोसा नहीं कि कब खेल-खेल में वे किसी के प्राणों का हंसते हुए हरण कर लें।
              अत: सबको सावधानी बरतने की अथवा सतर्क रहने की बहुत आवश्यकता होती है। अपने विचारों में दृढ़ता लाना ही इस समस्या से बचने का एकमात्र उपाय है। जितने अपने संसाधन हो, उसी में मनुष्य को सन्तुष्ट रहना। सीखना चाहिए। दूसरों की होड़ करते हुए अपने जीवन को कठिनाइयों में डालने से बचना चाहिए। प्रलोभनों से स्वयं को दूर रखकर या बचकर ही मनुष्य को वास्तव में सच्चा सुख व शान्ति मिलती है और वह चैन की बंसी बजा सकता है। 
             कहने का तात्पर्य मात्र यही है कि कुमार्ग से सन्मार्ग की ओर लौटना असम्भव तो नहीं पर कठिन अवश्य होता है। आवश्यकता है मनुष्य को सदा सचेत रहने की। हो सके तो प्रभु से अपने लिए सद् बुद्धि की याचना करनी चाहिए। उससे सन्मार्ग पर ले जाने की प्रार्थना करनी चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य का इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाएँगे। फिर मनुष्य अपने लक्ष्य मोक्ष की ओर कदम बढ़ा सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

मनुष्य एक मुसाफिर

मनुष्य एक मुसाफिर 

मनुष्य इस असार संसार में एक मुसाफिर (यात्री) की तरह होता है। वह यहाँ आता है, कुछ समय तक रहता है, अपने हिस्से के कार्य निपटाता है और फिर इस संसार से विदा लेकर चल पड़ता है, एक नए पड़ाव की यात्रा के लिए। उसकी इन अनन्त यात्राओं का क्रम तब तक जारी रहता है जब तक वह अपने स्थायी निवास यानी परमधाम मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेता। मनुष्य का जीवन अपने परमधाम से आरम्भ होता है, उसकी समाप्ति भी वहीं पर जाकर ही होती है।     
              इस कथन को हम इस प्रकार समझते हैं। भौतिक जीवन में हमारा अपना एक घर होता है। वहॉं पर हम अपने परिवार के साथ सुखपूर्वक रहते हैं। समय-समय पर हम भ्रमण के लिए भी जाते हैं। यात्रा का समय और स्थान निश्चित करके आवश्यक कार्यवाही कर लेते हैं। फिर निर्धारित समय पर हम अपनी मनचाही यात्रा के लिए खुशी-खुशी निकल जाते हैं। वहॉं मौज-मस्ती करके प्रसन्न होकर हम अपने घर वापिस लौट आते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे हमारी आत्मा संसार में अपना मिला हुआ समय बिताकर वापिस चली जाती है।
          हम सब लोग यात्राएँ करते रहते हैं। इसलिए सभी भली-भाँति यह बात जानते हैं कि जब कभी हम किसी होटल या रिसार्ट में कुछ दिनों के लिए ठहरते हैं, वह हमारा स्थायी निवास नहीं होता। हम उस स्थान को दो-चार दिन ठहरने के लिए किराए पर ले लेते हैं। जब निश्चित अवधि समाप्त हो जाती है तब उसे खाली करके वापिस अपने घर लौट आते हैं। उस समय हमारे मन में उस स्थान को छोड़ने का कोई दुख नहीं होता। हम खुशी-खुशी उस स्थान को छोड़ कर लौटते हैं।
              इसका तात्पर्य यही हुआ कि उस स्थान विशेष से हमें कोई मोह नहीं होता। हम वहॉं पर यही सोचकर जाते हैं कि हमने कितने दिन वहाँ रुकना है। हम घूमते-फिरते हैं और मौज-मस्ती करके आनन्दित होते हुए लौट आते हैं। उसी प्रकार यह संसार भी एक होटल या रिसार्ट की तरह ही है जहाँ हम कुछ समय के लिए आते हैं। वह अवधि हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर हमें देता है। उस अवधि के पूर्ण हो जाने पर इस संसार को छोड़कर जाना होता है। हम इस संसार को अपना घर मान लेते हैं। इसलिए इससे विदा लेना नहीं चाहते। यदि कोई हमें कह दे कि हमारी आयु के कुछ दिन शेष बचे हैं तो सुनकर अच्छा नहीं लगता। हम उसे बुरा-भला कहने में संकोच नहीं करते।
            एक गीत की पंक्ति मुझे इस विषय पर याद आ रही है-
       यह दुनिया मुसाफिर खाना सराय
       कोई आ आए कोई चला जा रहा।
इस दुनिया में आकर हम लोगों को अपने कर्मानुसार सांसारिक रिश्ते-नातों का उपहार मिलता है। उनमें हम इतना अधिक खो जाते हैं कि दीन-दुनिया को भुला बैठते हैं। हमारा सारा व्यापार इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमता रहता है और हमारे प्राण भी इन्हीं में ही बसते हैं। उन्हीं को लेकर हम अपनी एक दुनिया बना लेते हैं। हमारा जीना-मरना सब उनके लिए होता है। सब पाप-पुण्य और छल-फरेब हम उन्हीं के लिए करते हैं। इस जीवन को पाने की वास्तविकता को हम भूल जाते हैं।
             ऋषि-मुनि और विद्वान हमें समय-समय पर सचेत करने का प्रयास करते रहते हैं कि यह मोह-माया मात्र मृगतृष्णा है और कुछ नहीं। जाग जाओ और उस प्रभु में अपना ध्यान लगाओ। पर हम ऐसी नींद सो रहे हैं कि जागना ही नहीं चाहते। इसीलिए किसी ने कहा है-
      उठ जाग मुसाफिर भोर भयी 
      अब रैन  कहाँ  जो  सोवत है।
      जो  सोवत  है वह  खोवत  है
      जो  जागत  है सो  पावत  है।।
ये पंक्तियाँ हमें जगा रही हैं कि अब तो उठ जाओ आलस्य छोड़ो। यह सोने का समय नहीं है। प्रभु की कृपा पाने का यह समय है उसे व्यर्थ न गंवाओ। जब हमारा यह शरीर अशक्त हो जाएगा तब चाहकर भी हम उस मालिक का ध्यान नहीं कर सकेंगे। केवल पश्चाताप करते रह जाना पड़ेगा। इसलिए अभी से सावधान हो जाओ। जो जागता है वही परमेश्वर का कृपापात्र बनता है। जो सचेत नहीं होना चाहता वह इस संसार में बहुत कुछ गंवा देता है उसे जन्म-मरण के चक्र से छुटकारा नहीं मिलता। 
             सुधीजन जानते हैं कि ईश्वर सच्ची लगन और भावना चाहता है, प्रदर्शन नहीं। उसे हम लोगों से और कुछ भी नहीं चाहिए होता। वह तो स्वयं ही सारे ऐश्वर्यों का भण्डार है। वह बिनमॉंगे हमें सब नेमते देता रहता है। हमारे पास उसे देने के लिए और कुछ भी नहीं है। इसलिए सच्चे मन से उसका स्मरण करना चाहिए। तभी भवबन्धन से मुक्ति सम्भव हो सकती है। अन्यथा चौरासी लाख योनियों के फेर में जीव भटकता रहता है। उसे कहीं भी शान्ति नहीं मिल पाती। 
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 26 अक्टूबर 2025

मन की उदासी

मन की उदासी

हरिओम शरण जी का यह भजन मनुष्य के उदास हो रहे मन को समझाता है। इसके माध्यम से वे कहना चाहते हैं कि यदि स्वयं को पूर्णरूपेण ईश्वर को समर्पित कर दिया जाए तो मन के उदास होने की आवश्यकता नहीं रहती। वह परमपिता परमात्मा हर कदम पर उसके साथ चलता हुआ स्वयं ही उसका भार उठा लेते हैं -
 तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार 
उदासी मन काहे को करे।
नैया तेरी प्रभु हवाले,
लहर लहर हरि आप सँभाले ।
हरि आप ही उठावे तेरा भार, 
उदास मन काहे को करे। तेरा प्रभुजी करेंगे.....
काबू में मँझधार उसी के, 
हाथों में पतवार उसी के।
तेरी हार भी नहीं है तेरी हार, 
उदासी मन काहे को करे। तेरा प्रभुजी करेंगे.....
सहज किनारा मिल जाएगा, 
परम सहारा मिल जाएगा
डोरी सौंप के तो देख एक बार, 
उदास मन काहे को करे। तेरा रामजी करेंगे.....
तू निर्दोष तुझे क्या डर है, 
पग पग पर साथी ईश्वर है 
जरा भावना से कीजिये पुकार, 
उदास मन काहे को करे। तेरा रामजी करेंगे.....
          जब हम सब जानते हैं कि मन को व्यर्थ परेशान करने का कोई लाभ नहीं होता। जो कुछ भी हमारे मन में व्यथा है या उदासी है, उसे ईश्वर ने ही दूर करना है। मनुष्य के हाथ में कुछ नहीं होता। जब हम सब यह जानते हैं, समझते हैं तो फिर हम अपने मन की गहराई से इस तथ्य को स्वीकार करने से क्यों हिचकिचाते हैं? इस सत्य को हम जितनी जल्दी समझ लें, स्वीकार कर लें, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर होता है।
          हमारा मन तभी उदास होता है जब हम कठिनाई में होते हैं। हमें अपने चारों ओर अंधकार दिखाई देता है। उस समय ऐसा प्रतीत होने लगता है कि कष्ट की रात बहुत लम्बी हो गई है। ये स्थिति हमारे समक्ष तब उपस्थित होती हैं जब हम रोगग्रस्त होते हैं, जीवन के किसी भी क्षेत्र में असफलता का मुँह देखते हैं, व्यापार या नौकरी में परेशानी होती है अथवा अपयश मिलता है। इन सबके अतिरिक्त कभी-कभी हम अपने चारों ओर झूठे अहं के कारण अनावश्यक रूप से दीवारें खड़ी कर लेते हैं।
           उस समय मन की स्थिति अच्छी नहीं होती। न हमारा मन किसी से बात करने का होता है और न ही घूमने-फिरने का। तब न हम फिल्म देखना चाहते हैं और न खरीददारी करना चाहते हैं। किसी पार्टी, क्लब, सभा-सोसाइटी के कार्यक्रमों में भी मन उचाट-सा रहता है। टीवी, रेडियो और कंप्यूटर आदि सब बेमायने हो जाते हैं। कोई परिवारी जन कुछ बात करना चाहे तो अनमने होकर या चिढ़कर हम उसे उत्तर देते हैं। यह भी परवाह नहीं करते कि उसे बुरा लगेगा या वह नाराज हो जाएगा।
          उस समय हम बस अंधेरे कोने को तलाश कर उसमें ही सिमटना चाहते हैं। तब किसी तरह का कोई प्रकाश हमें नहीं भाता। हम सिर्फ अपनी बनायी हुई घुटन में तड़पते रहते हैं। दुनिया को और दुनिया बनाने वाले को अपनी असहाय अवस्था का दोषी मानते हुए उसे पानी पी-पीकर कोसते हैं। फिर भी हमारे मन को शान्ति नहीं मिल पाती बल्कि वह अशान्त ही रहता है। मन की शान्ति प्राप्त करने के लिए स्वयं को सम्हालना पड़ता है।
          ऐसे निराश और हताश हम सबसे कटकर जीना चाहते हैं पर उस मालिक को याद करने के बारे में नहीं सोचते। उस समय हम मन की शान्ति के लिए तथाकथित धर्मगुरुओं व तन्त्र-मन्त्र वालों के पास जाकर अपनी मेहनत की कमाई को व्यर्थ गंवाते हैं। धार्मिक स्थानों व तीर्थ स्थलों की यात्रा करके मन की शान्ति की तलाश करते हैं। नदियों में डुबकी लगाकर अपने दोषों को दूर करने का असफल प्रयास करते हैं। इन सब प्रयासों से मन की शान्ति तो नहीं मिलती पर धन व समय की बरबादी अवश्य होती है।
         सब तरफ से थक-हार कर जब हम निराश हो जाते हैं तब उस मालिक की ओर हमारा ध्यान जाता है। उस समय हमें महसूस होता है कि हम अभी तक अनावश्यक ही भटक रहे थे, उसकी शरण में अब तक क्यों नहीं आए?
         हम कितनी भी मुसीबतों में घिर जाएँ, हमें उस परम दयालु प्रभु के अतिरिक्त कोई और नहीं उबार सकता। उसकी शरण में सच्चे मन से जाने पर वह करुण पुकार अवश्य सुनता है। हमारे कर्मानुसार सही समय पर वह कष्टों को दूर करता है। वह हमारा सच्चा मीत व बन्धु है। यदि उसका दामन सच्चे मन से थाम लेना चाहिए । वह कभी किसी को निराश नहीं करता। वहीं है जो सब उदास, परेशान लोगों को मार्ग दिखाता है। इसलिए मनीषी उसे सच्चा पिता कहते हैं।
            अपने मन को सांसारिक दायित्व निभाते हुए ईश्वर की ओर उन्मुख करना चाहिए। यदि मन ईश्वर के ध्यान में रमने लगेगा तो उसे हर प्रकार की उदासी से छुटकारा मिल जाएगा। कोई उदासी उसके रास्ते का रोड़ा नहीं बनेगी। मनुष्य जब अपने सभी कार्यों को ईश्वर को समर्पित करने लगेगा तो उसका मन प्रफुल्लित और उत्साहित रहेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

जन्म और मृत्यु के बीच जीवन

जन्म और मृत्यु के बीच जीवन 

मनुष्य खाली हाथ इस संसार में आता है और खाली हाथ ही यहाँ से विदा लेता है। जन्म और मृत्यु के बीच का उसका समय ऐसा होता है जिसमें वह और और पाने के लिए भटकता रहता है। आयु पर्यन्त वह कोल्हू के बैल की तरह ही खटता रहता है। यह दिन-रात का भटकाव उसका सुख-चैन सब छीन लेता है। वह समय व्यर्थ गंवाए बिना संसार के सारे ऐश्वर्य हासिल कर लेना चाहता है। दुनिया की‌ रेस में वह सबसे आगे निकल जाना चाहता है, पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहता।
              मनुष्य इस भौतिक संसार में विद्यमान सारे सुख-साधन अपनी झोली में डाल लेने के लिए आतुर रहता है। वह चाहता है कि उसके पास सबसे बढ़िया नौकरी या व्यवसाय होना चाहिए। उसकी पत्नी सर्वगुण सम्पन्न होनी चाहिए। उसके बच्चे संस्कारी व होनहार होने चाहिए। यद्यपि पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही उसे सब मिलता है। मनुष्य इस सत्य को भूल जाना चाहता है या नजरअंदाज करना चाहता है कि भाग्य से ज्यादा और समय से पहले किसी को कुछ नहीं मिलता। 
            फिर भी वह हाथ पसारे माँगता रहता है। उसकी एक कामना पूर्ण होती है कि दूसरी के लिए याचना आरम्भ हो जाती है। दूसरी के बाद तीसरी, फिर चौथी, पाँचवीं यानी कि यह क्रम अनवरत ही चलता रहता है। यदि उसके भाग्य के अनुसार कभी उसकी इच्छा पूरी न हो पाए तो वह उस दाता से नाराज हो जाता है। उसे कोसता है , गाली तक दे बैठता है। उस न्यायकारी परमात्मा पर पक्षपात करने का आरोप लगाने से नहीं चूकता। स्वयं को उससे दूर कर लेने की धमकी देता है। हद तो तब होती है जब अपने अहंकार के वशीभूत, वह सृष्टि के रचयिता उस परमेश्वर को रिश्वत देने का प्रयास करता है।
             मनुष्य को हर उस व्यक्ति से होड़ करनी होती है जिसका भाग्य बलवान है और उसका जीवन सब सुविधाओं से सम्पन्न है। ईश्वर की दया से उसके पास भौतिक सुख-साधनों की कोई कमी नहीं है। यहॉं विचार करने वाली बात यह है कि वह व्यक्ति विशेष अपने पूर्वजन्म कृत सद्कर्मों का फल इस जीवन में प्राप्त कर रहा है। इसीलिए वह संसार के ऐश्वर्यों का भोग कर रहा है। उसके प्रति अपने मन में ईर्ष्या-द्वेष रखने का कोई औचित्य नहीं होता। यह इन्सानी फितरत है जो उसे चैन से बैठने ही नहीं देती। उसे भटकाती रहती है।
             सुखों की चाह के कारण वह कुमार्गगामी हो जाने से परहेज नहीं करता। नीति-अनीति, छल-फरेब, झूठ-सच करने की महारत हासिल कर लेता है। भ्रष्टाचार करना, दूसरों का गला काटना, छीना-झपटी करना, बेईमानी करना, चोरबाजारी करना आदि उसके प्रिय शगल बन जाते हैं। इन समाज विरोधी कार्यों को करते समय वह भूल जाता है कि वह मालिक उसके इन कृत्यों से प्रसन्न नहीं हो रहा। उसे अच्छा नहीं लगता कि उसके बच्चे ऐसे समाज विरोधी व्यवहार करने वाले बनें।
            इस भौतिक संसार में हम अपने बच्चों से सरलता, ईमानदारी व सच्चाई की अपेक्षा करते हैं। वैसा ही व्यवहार वह ईश्वर हमसे भी चाहता है। बच्चों की गलतियों को सुधारने के लिए हम उन्हें कई प्रकार के दण्ड देते हैं, उनकी पिटाई करते हैं या जेब खर्च बन्द कर देते हैं आदि। इसी प्रकार वह परम न्यायकारी परमात्मा भी हमें दण्ड देता है। वह हमें मानसिक व शारीरिक कष्ट देता है, प्रियजनों से हमारा वियोग करवा देता है, हमें धन, बल व यश से वंचित कर देता है आदि। इस सबके पीछे उसका उद्देश्य हमें सुधारना होता है ताकि हम अपने कर्मों की शुचिता पर ध्यान दें सकें।
              अधर्म से कमाई हुई धन-सम्पत्ति के कारण अहंकारी हुए मनुष्य का घमण्ड दूर करने के लिए परमेश्वर उसे या उसके परिवारी जनों या उसके बच्चों को बुराइयों में उलझा देता है। गलत रास्ते से कमाई गई धन-सम्पत्ति को इस प्रकार बर्बाद कर देता है। फिर भी यदि मनुष्य समझ न सकें तो यह उसकी बुद्धि, उसकी सोच का दोष है। उसकी सहायता इस संसार में कोई भी नहीं कर सकता, यह सत्य है।
             वह प्रभु मनुष्य को इस सार को सोचने के लिए विवश कर देता है कि वह इस संसार में खाली हाथ आया था और खाली हाथ ही उसे यहाँ से जाना है। चाहे कोई राजा हो या रंक, सबके लिए एक ही ईश्वरीय विधान है। वह यहॉं से कुछ भी नहीं लेकर जा सकता। उसकी कमाई धन-सम्पत्ति इस संसार में ही रह जाने वाली है। वह अपने साथ केवल अपने अच्छे व बुरे कर्मों का लेखा-जोखा लेकर जाता है जो जन्म-जन्मान्तर तक उसके साथी बनते हैं। आने वाले जन्मों की सुख-समृद्धि या बदहाली का कारण बनते हैं।
              जन्म और मृत्यु के बीच का जीवन मनुष्य के लिए चुनौतीपूर्ण रहता है। उसे थाली में कुछ भी परोसा हुआ नहीं मिलता। यह उस पर निर्भर है कि वह किस प्रकार के कर्म करता है। समय रहते यदि मनुष्य जाग जाए तो अपने लिए मुसीबतों के पहाड़ खड़े करने के स्थान पर वह अपने लिए सुख-शान्ति का पुरस्कार प्राप्त कर सकता है। अपना इहलोक और परलोक दोनों सुधार सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

नश्वर शरीर

शरीर नश्वर

हम इस बात से कदापि अनभिज्ञ नहीं हैं कि हमारा यह शरीर भी हमारा अपना नहीं है, यह नश्वर है। जो भी जीव इस असार संसार में जन्म लेता है, उसे अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार मिला हुआ समय, पूर्ण करके इस दुनिया से विदा लेनी पड़ती है। समय आने पर अपने बन्धु-बान्धव ही इसे अग्नि को समर्पित कर देते हैं। इसे हम ईश्वरीय विधान कह सकते हैं। इस प्रक्रिया में जीव की इच्छा-अनिच्छा या प्रसन्नता-अप्रसन्नता कोई मायने नहीं रखती। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि हमें यह शरीर सीमित समय के लिए मिला है।
            इस संसार से जाना है तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि हम अपने दायित्वों से मुँह मोड़ लें या पलायनवादी प्रवृत्ति के बन जाएँ। अपने व अपनों के प्रति लापरवाह बन जाएँ। कुछ विद्वान कहते हैं- 
  क्या तन माँजना रे आखिर माटी में मिल जाना।
अर्थात् यह शरीर अन्त में मिट्टी में मिल जाने वाला है। इसलिए इस शरीर को सजाने-संवारने की कोई आवश्यकता नहीं है।
              यह तो पलायनवादी प्रवृत्ति है या अति वैराग्य की स्थिति है। जब संसार से जाना ही है तो फिर अपने शरीर को न स्वच्छ रखो, न सजाओ और न ही संवारो। उन लोगों का कहना है कि जब शरीर नश्वर है तो इसकी सार संभाल करने या इसे सजाने में सारा समय व्यतीत करने का तो कोई लाभ नहीं। इसको साफ करने या माँजने में समय लगाना उसे व्यर्थ गंवाना है। 
            इसके विपरीत संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्' महाकाव्य में कहा हैं- 
             शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्। 
अर्थात् शरीर धर्म के कार्यों को पूर्ण करने का साधन है। इस सूक्ति का भाव यह है कि यदि शरीर रोगी हो जाएगा तो मनुष्य अपना ध्यान नहीं रख पाएगा। अपने स्वयं के, धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक सभी दायित्वों का निर्वहण नहीं कर सकेगा। तब वह ईश्वर का स्मरण भी नहीं कर सकेगा। इस शरीर  को हृष्ट-पुष्ट रखने के लिए उचित आहार-विहार तथा स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक है। मनु महाराज ने 'मनुस्मृति:' में धर्म के दस नियमों का वर्णन किया है -
       धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
       धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।
इस श्लोक में भी 'शौचम्' कहकर तन और मन की शुद्धता पर बल दिया गया है। 
              इस बात को मानने के लिए हम कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि शरीर के बाह्य सौन्दर्य की ओर ही सारा समय ध्यान नहीं देना चाहिए। इस कारण यदि हम दीन-दुनिया को भूल जाएँ या अपने दायित्वों से किनारा कर लें, यह किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता।
             हम इस बात को भी भूल नहीं सकते कि 'कठोपनिषद्' में बताया है कि हमारा यह शरीर एक रथ के समान है जो इस शरीर में विद्यमान आत्मा को एक साधन के रूप में मिला है। इसमें बैठे यात्री आत्मा को वह इस सृष्टि की यात्रा करवाता है। अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ईश्वर प्रदत्त आयु पूर्ण करने के उपरान्त ही यह शरीर रूपी रथ आत्मा को उसके लक्ष्य मोक्ष तक ले जाता है। यदि इस रथ में पर्याप्त ईंधन न डाला जाए, इसका रख-रखाव सुचारू रूप से न किया जाए तो रथ अपनी गति से नहीं चल सकता। 
             हमारा यह भौतिक शरीर ईश्वर की देन है। इसको सजाने-संवारने में अति का समर्थन कोई भी नहीं करेगा। परन्तु फिर भी इसकी देखभाल करने का दायित्व भी तो हमारा ही है। उससे हम कैसे मुँह मोड़ सकते हैं? यदि इसे साफ-सुथरा नहीं रखेंगे तो यह अस्वस्थ होकर हमारे लिए भार बन जाएगा। यदि कई-कई दिन तक वस्त्र नहीं बदलेंगे या स्नान नहीं करेंगे तो मैला संप्रदाय वाले साधुओं की तरह दूर से ही दुर्गन्ध आने लगेगी। फिर कोई भी पास बैठना पसन्द नहीं करेगा।
              क्षणिक वैराग्य की बात करें तो वह हमें श्मशान में जाकर आता है। वहॉं शवों को दहन होते हुए देखकर हमें लगता है कि इस संसार में कुछ नहीं रखा है। यह मोह-माया सब झूठ है, छलावा है। एक दिन सबको यहीं आना है। फिर कुछ ही क्षण पश्चात अर्थात् श्मशान से बाहर निकलते ही सब सामान्य होकर अपने ढर्रे पर चलने लगता है। हम भी सब कुछ भूलकर दुनिया के व्यापार में, कारोबार में जुट जाते हैं। मन में आया हुआ वह श्मशान वैराग्य कहीं खो जाता है।
             संसार के आकर्षण इतने अधिक हैं कि मनुष्य को वास्तव में वैराग्य होना बहुत ही कठिन है। दुनिया के मोहमाया के बन्धनों में फंसे हम मनुष्य वैराग्य के सही मायने नहीं जान पाते। चर्चा करने मात्र से वैराग्य की स्थिति नहीं बनती। उसके लिए मन को संसार से विरक्त करने की आवश्यकता होती है जो वास्तव में टेढ़ी खीर है। जल में कमल की तरह रहना वैराग्य है। राजा जनक की तरह कोई विरला ही मिलेगा जो वास्तविक अर्थों में वैरागी या वीतरागी होगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

आलस्य की प्रवृत्ति का त्याग

आलस्य की प्रवृत्ति का त्याग

बड़े-बजुर्ग कहा करते थे कि हमारा जो यह शरीर है इसे चील-कौवे जैसे जीवों ने भी नहीं खाना है। इसका तात्पर्य यह है कि इस शरीर से जहॉं तक हो सके परिश्रम कर लो। अन्यथा यह आलस्य करने से किसी काम का नहीं रह जाता। इसको जितना चलाते रहोगे, उतना ही रोगों से दूर रहोगे। इसलिए अपने हाथ-पैर हिला लो अर्थात् मेहनत करो। बिना परिश्रम किए कुछ नहीं मिलता। अपने जीवन में कुछ ऐसे कार्य कर लेने चाहिए जिससे इस संसार से विदा लेने के पश्चात भी यह दुनिया हमें याद करने के लिए विवश हो जाए।
            आलसी प्रवृत्ति के लोग परिश्रम नहीं करना चाहते। वे बस निठल्ले बैठकर संसार के सारे ऐश्वर्यों का भोग करना चाहते हैं। परन्तु ऐसा होना असम्भव होता है। सारे सुख प्राप्त करने के लिए धन कमाना पड़ता है। धन बिना मेहनत किए कभी कमाया नहीं जाता। न ही कोई बन्धु-बान्धव उन्हें धन उपहार स्वरूप देने आता है। वे बस शेखचिल्ली की भॉंति दिवास्वप्न देखते रहते हैं और मस्त रहना चाहते हैं। इस कारण वे सदा शार्टकट का सहारा लेने की सोचते हैं। उस चक्कर में चाहे उनकी यात्रा कितनी ही लम्बी क्यों न हो जाए। 
            ये लोग पुराने समय के 'चार्वाक् दर्शन' के अनुयायियों की तरह विश्वास करते हैं -
    यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।
अर्थात् चार्वाक समर्थक कहते हैं जब तक जीना है ऐश से जीओ और अपनी मौज-मस्ती में कमी नहीं आनी चाहिए। यदि पैसा पास नहीं है तो उधार लेकर ही घी पीओ। 
             इससे भी बढ़कर निठल्लेपन की हद है कि वे सोचते हैं कि जिसने पैदा किया है, वह पेट भरने का जुगाड़ तो करेगा ही। भूखे थोड़ा ही मारने देगा। मलूकदास जी ने उन लोगों की स्थिति का वर्णन इन पंक्तियों में किया है-
        अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
        दास मलूका  कह गए सबके दाता  राम॥
अर्थात् अजगर किसी की नौकरी नहीं करता, पक्षी कोई काम नहीं करते। मलूकदास जी कहते हैं सबको देने वाले भगवान हैं।
             ऐसे मनुष्य चाहते हैं कि उन्हें हाथ-पैर न हिलाने पड़ें, बस बैठे बिठाए ही कारू का खजाना उनके हाथ जाए या ऐसा ही कोई जिन्न मिल जाए या अलाद्दीन का चिराग उनके हाथ लग जाए। रातों रात वह उनके लिए समस्त भौतिक ऐश्वर्यों को जुटा दे जिनकी मात्र कल्पना करना भी उनके लिए असम्भव है। पर संसार में ऐसा होता नहीं। सयाने कहते हैं - 
         आप न मरें तो स्वर्ग कैसे जाएँ 
अर्थात् स्वर्ग जाने की यदि सोचते हैं तो पहले मरना पड़ता है। कहने का तात्पर्य है कि स्वर्ग की प्राप्ति और वहाँ के सुखों को पाना भी मुफ्त में नहीं होता। पहले आपने इस जीवन का त्याग करना पड़ता है तब जाकर सब कल्पित भोगों की प्राप्ति होती है अन्यथा कोई रास्ता नहीं है।
              उन्हें फिर अपनी ही जिन्दगी उस समय बोझ लगने लगती है जब उनको अपने जीवन की वास्तविकताओं से दो-चार होना पड़ता है तब नानी याद आ जाती है। अपने जीवनकाल में ऐसे यत्न करने चाहिए कि जिन्दगी न अपने लिए बोझ लगे और न ही दूसरों के द्वारा अपमानित होना पड़े। घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूरा करना उनका दायित्व होता है। जब अपनी व परिवारी जनों की जरूरतों को पूर्ण न कर सकें तो उठते-बैठते, सोते- जागते, खाते-पीते उनके व्यंग्य बाणों को सहन करना उनकी नियति बन जाती है।
             आलस्य की प्रवृत्ति का सदा त्याग करके अपने आवश्यक कार्यों को पूरा करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा करने से मन को एक प्रकार से सन्तुष्टि तो मिलती ही है, साथ ही आत्मविश्वास की भी वृद्धि होती है। तब मनुष्य कुछ भी कर गुजरने के लिए तत्पर रहता है। अपने सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए उसे निराश नहीं होना पड़ता। उसे किसी का मुॅंह देखने की आवश्यकता भी नहीं होती। वह स्वयं को ही योग्य बना लेता है। तब उसे समझ में आ जाता है कि वह आकाश की ऊॅंचाइयों को छूने की शक्ति रखता है और सागर से मोती भी ला सकता है।
             एक बार मनुष्य के हाथ जब सफलता लग जाती है तो फिर उसे बार-बार सफलता का सुख चखने की इच्छा होती है। यदि मन में सच्ची लगन व कर्मठता का भाव उत्पन्न हो जाए तो वह मनुष्य कभी दूसरों से ईर्ष्या नहीं करता। न ही वह अपने स्वाभिमान को कभी गिरवी रखने के बारे मेें सोचता है। वह अपने बलबूते ही सब कार्य करने के लिए सामर्थ्यवान हो जाता है। उसे परिश्रम का महत्त्व अच्छी तरह समझ में आ जाता है। तब उसके लिए कोई कार्य कठिन नहीं रह जाता।
          ईश्वर ने यह मानव जीवन हमें बड़ी परीक्षाओं के बाद दिया है। इसे व्यर्थ न गंवाना चाहिए। जो सद् कार्य कर सकते हैं, उन्हें इसी जन्म में यह सोचकर करें कि हमने पुनः मानव जन्म पाना है। अन्यथा पता नहीं कौन-कौन सी योनियों में जन्म लेकर स्वयं को सिद्ध करना पड़ेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 22 अक्टूबर 2025

सफलता का मित्र अकेलापन

सफलता का मित्र अकेलापन

हर मनुष्य चाहे वह किसी भी क्षेत्र में हो, अपने जीवन में सफल ही होना चाहता है। वह कभी भी असफलता का मुॅंह नहीं देखना चाहता। उसके लिए अपनी सामर्थ्यानुसार जी-तोड़ परिश्रम भी करता है। इस प्रयत्न में वह कभी सफल हो जाता है तो कभी असफल होता है। जैसे-जैसे मनुष्य सफलता की सीढ़ियॉं चढ़ता जाता है, अकेलापन उसका साथी बन जाता है। गम्भीरतापूर्वक विचार करने योग्य यह प्रश्न यह उठता है कि सफलता ढिंढोरा पीटते हुए क्यों नहीं आती? उसका मित्र अकेलापन ही क्यों बन जाता है? 
            हम यदि कोई कार्य करते हैं तो उसके लिए आडम्बर रचाते रहते हैं। अपनी तारीफों के पुल बॉंधते नहीं थकते। जोर-शोर से चारों ओर अपनी हवा फैलाते हैं। ये सब हम समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं, टीवी पर देखते हैं, रेडियो पर सुनते हैं, सोशल मीडिया पर पढ़ते हैं। यानी प्रतिदिन पढ़ते, देखते व सुनते रहते हैं। उनके ये कार्य कितने सफल हो पाते हैं या वे असफल होते हैं, इस विषय में केवल समय ही बता सकता है। यदि वे सफल हो जाते हैं तो पूरे नहीं समाते। असफल होने पर बगलें झॉंकने लगते हैं।
             हम लोग सदा अपनी-अपनी हाँकते रहते हैं। किसी दूसरे व्यक्ति की बात हम बिल्कुल सुनना नहीं चाहते। हमें अपने बराबर कोई दूसरा दिखाई नहीं देता। हमें समाज की अथवा जन साधारण की कोई परवाह नहीं होती। ऐसे अवसरों पर हमारी चमड़ी मोटी हो जाती है। हम चिकने घड़े की तरह बन जाते हैं और निर्लज्ज होकर बस दाँत निपोरते रहते हैं। यह स्थिति किसी तरह से उचित नहीं कही जा सकती।
            जब व्यक्ति जीवन में दिन-प्रतिदिन सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता जाता है तब वह धीरे-धीरे अकेला होने लगता है। कार्य की अधिकता के कारण उसके पास अपने लिए ही समय नहीं बचता तो घर-परिवार के लिए कहाँ से समय निकाले? प्रातः घर से जल्दी निकलना और देर रात घर पर वापिस लौटना ही उसके कार्यक्रम का अंग बन जाते हैं। यदि वह कभी अस्वस्थ हो जाए तो आराम करने का समय भी अपने लिए नहीं निकाल पाता। उसकी व्यस्तता उसे सबसे काटकर अलग-थलग कर देती है। इसके अतिरिक्त नौकरी या व्यवसाय के कारण कई दिनों तक घर से बाहर देश अथवा विदेश जाना हो तो समस्या और बढ़ जाती है।
            उसे अपने माता-पिता, पत्नी, बच्चों, मित्रों व रिश्तेदारों आदि के उलाहनों का सामना तो नित्य प्रतिदिन करना पड़ता है। अपने घर और बच्चों के लिए वह हर तरह की सुख-सुविधाएँ जुटाता है। उसके द्वारा लाए गए कीमती उपहारों की शान सभी लोग बघारते हैं और उनका उपभोग भी करते हैं। फिर भी वे उसे जिम्मेदारियों से भागने का या मुँह मोड़ लेने का दोष देने से नहीं चूकते। ऐसा करके वे उसके मन को जाने-अनजाने कष्ट पहुॅंचाने का कार्य करते हैं।
            सभी लोग उससे सदा नाराज रहते हैं। कोई उसकी विवशताओं को समझना ही नहीं चाहता। सभी सोचते हैं कि ऊँची पदवी पर पहुँचा वह किसी के साथ सम्बन्ध ही नहीं रखना चाहता क्योंकि उसकी नाक नीची होती है। इसलिए सबसे न मिलने के लिए नित्य नये बहाने बनाता रहता है। लोग यह बात नहीं समझते कि जितने उच्च पद पर व्यक्ति होता है, उसका उत्तरदायित्व उतना ही बढ़ जाता है। उसके पास वास्तव में समय का अभाव हो जाता है। वह चाहकर भी अपने बन्धु-बान्धवों को मनचाहा समय नहीं दे पाता। 
               उसकी कठिनाइयों को कोई भी समझना नहीं चाहता। धीरे-धीरे वह मशीन की तरह बन जाता है। उसके पास इन सब ऊल-जलूल प्रश्नों के उत्तर देने का समय नहीं होता। अपने कार्यों में खोया रहता है और उन्हीं को ही आगे बढ़ाता रहता है। वैसे देखा जाए तो जितनी ऊॅंचाई पर मनुष्य खड़ा होता है, उसे नीचे खालीपन ही दिखाई देता है। ऐसा तो नहीं हो सकता कि मनुष्य अपने जीवनकाल में इसलिए ऊपर न उठे कि उसे अकेलेपन का दंश झेलना पड़ेगा।
             इस सृष्टि का नियम है कि जो अपने कार्यों का सफलतापूर्वक निर्वहण करता है, वह सूर्य की तरह आकाश में अकेला ही चमकता है। सिंह की भाँति जंगल में वह अकेले ही विचरण करता है। उसका तेज उसे दूसरों की तुलना में विलक्षण बनाता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है, 'एकला चलो रे' इसीलिए कहा है। इसका अर्थ है अकेले चलो। इस बात को हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि इस संसार में मनुष्य अकेला आता है और अकेले ही प्रस्थान करता है।
            एवंविध यह तो सत्य है कि सफलता अपने साथ अकेलेपन को लेकर आती है। ऐसे सफल व्यक्तियों से ईर्ष्या न करके उनसे कुछ सीखने की आवश्यकता है। उनके पदचिह्नों पर चलकर महान लोगों की श्रेणी में आने का यथासम्भव प्रयास सभी को करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

अपने मुॅंह मियॉं मिट्ठू बनना

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना

मनुष्य के कार्य ऐसे होने चाहिए जो बिना कहे ही अपना स्वयं परिचय दे सकें और सामने वाले पर अपनी छाप छोड़ दें। लोग स्वयं उनके कार्यों को सदा स्मरण करें, उनकी प्रशंसा करने के लिए विवश हो जाएँ। मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आई कि मनुष्य को अपनी तारीफ करने की आवश्यकता क्यों महसूस होती है? आजकल पता नहीं लोग अपनी प्रशस्तियॉं क्यों बढ़-चढ़कर करते हैं? उन्हें अपने सामने दूसरे लोग क्यों बौने प्रतीत होते हैं? इसे मनुष्य का अहंकार करना ही कहा जा सकता है।
              अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना तो कोई अच्छी बात नहीं है। इसका सीधा-सा अर्थ यही है कि कोई व्यक्ति केवल अपनी ही तारीफ करता रहता है, दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनना ही नहीं चाहता। ऐसा व्यक्ति जो हमेशा अपनी तारीफों के पुल स्वयं बॉंधता रहता है, लोग उसे नापसन्द करते हैं और अहंकारी की पदवी देते हैं। सामने किसी कारणवश उसकी हाँ में चाहे हाँ मिलाएँ पर पीठ पीछे उसकी जमकर निन्दा करते हैं। 
             ऐसे व्यक्ति को लोग आत्म मुग्ध भी कहते हैं। यानी जब मनुष्य अपने आप पर आवश्यकता से अधिक ध्यान देने लगता है, स्वयं को सबसे महान, सबसे अच्छा समझ कर दूसरों की परवाह नहीं करता। अपने आप में ही लीन हो जाने को ही आत्म मुग्धता कहते हैं। ऐसे मनुष्य दीन-दुनिया से बेखबर हो जाते हैं और हानि उठाते हैं।
              दूसरे लोगों की प्रशंसा में प्रशस्ति गान करना चारण और भाटों का ही कार्य माना जाता था। उन्हें समाज में कोई ऐसा विशेष सम्मान नहीं मिलता था। आजकल भी हमारे आसपास इस केटेगरी के बहुत से लोग विद्यमान हैं या यूँ कहें कि बहुतायत में मिल जाते हैं। 'चमचे या कड़छे' कहकर लोग उनका उपहास करते हैं। ये लोग चिकने घड़े होते हैं, इन लोगों पर सामने वाले के कटाक्षों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ये लोग इन सम्बोधनों को सुनकर प्रसन्न होते हैं।
        यदि हम दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें अपने व्यवहार को बदलना होगा। अपने अंतस की कमियों को ढूँढ-ढूँढ कर उन्हें दूर करना होगा। देश, धर्म, समाज और अपने घर-परिवार के सभी दायित्वों को दक्षता से पूरा करना होगा। जहाँ तक हो सके अपने मानस को भी आलोचना के लिए भी तैयार करना होगा। दुनिया दुर्जनों की आलोचना करती है तो सज्जनों का विरोध करने से भी नहीं चूकती। इसके लिए बताने की आवश्यकता नहीं है। सभी महापुरुषों, समाजसेवियों को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं जिन्हें अपने जीवनकाल में असहनीय कष्टों का सामना करना पड़ा पर वे धीर लोग अपने लक्ष्य से नहीं हटे।न
           एक उदाहरण देखते हैं। एक कुम्हार अपने बेटे और गधे के साथ पैदल चल रहा था। किसी ने छींटाकशी की, '"कितना पागल है? सवारी साथ है पर दोनों बाप-बेटा पैदल चल रहे हैं।" 
           कुम्हार ने अपने बेटे को गधे पर बिठा दिया और पैदल चलने लगा। थोड़ी देर बाद किसी ने ताना मारा, "बूढ़ा बाप पैदल चल रहा है और जवान बेटा सवारी कर रहा है।" 
           अब कुम्हार स्वयं गधे पर बैठ गया और बेटा पैदल चलने लगा। कुछ दूरी तय करने पर फिर किसी ने कुम्हार को कोसा, " बच्चा बेचारा पैदल चल रहा है। बाप को शर्म भी नहीं आ रही।"
             लोगों के थाने सुन-सुनकर कुम्हार और उसका बेटा दोनों परेशान हो गए। अब वे दोनों गधे पर सवार हो गए तो फिर किसी मनचले ने कटाक्ष किया, "दोनों बाप-बेटे इस बेजुबान की जान लोगे क्या?" 
             अब उन दोनों को गुस्सा आ गया और वे दोनों गधे को उठाकर चलने लगे। तब भी लोगों को चैन नहीं आया और उनका उपहास करने लगे,"इन बाप-बेटे जैसा मूर्ख नहीं देखा जो गधे जैसी सवारी के होते हुए पैदल चल रहे हैं। इन  लोगों ने गधे को उठा रखा हैं।"
              कहने का तात्पर्य यह है कि कुछ भी कर लो यह दुनिया तो किसी भी तरह से जीने नहीं देती। हमें हार नहीं माननी है। संसार को झुकने पर विवश कर देना है। जब लोग देखते हैं कि व्यक्ति विशेष की कितनी भी आलोचना कर लो, उस पर कोई असर नहीं होता। इसके गुणों की कीर्ति की सुगन्ध चारों ओर फैलती ही जा रही है तो वे हारकर चुप हो जाते हैं। लोगों को अपने गुणों का आकलन करते रहने दीजिए। समय बीतते-बीतते वे स्वयं समझ जाएँगे कि फलाँ व्यक्ति गहरे पैठा हुआ है। उसके गुणों से प्रभावित हुए बिना कोई नहीं रह सकता तो वे भी उनका बखान भी वे अवश्य ही करेंगे। 
          अपनी प्रशंसा में कसीदे पढ़कर ओछा या अहंकारी बनने से अच्छा है कि समाज को परखने का अवसर दीजिए। अपनी अच्छाइयों को आप पर्दों में छिपाकर नहीं रख सकते। वे तो फूलों की सुगन्ध की तरह सभी दिशाओं को सुवासित करेंगी। शेष सब ईश्वर पर छोड़ दें। वह आपके सद् गुणों व सुचरित्र को निस्सन्देह सराहेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 20 अक्टूबर 2025

सद् गुण न त्यागें

सद् गुण न त्यागें

मनुष्य अपने सद् गुणों के कारण ही इस संसार में महान बनता है। उसकी कीर्ति, उसकी सुगन्ध चारों ओर फैलती है। इसीलिए उसके गुणों को देखते हुए लोग उसकी ओर आकर्षित होते हैं। ये गुण उसे सफलता के लक्ष्य तक पहुॅंचाते हैं।  हमें अपनी अच्छाई को या अपने सद् गुणों को कदापि नहीं छोड़ना चाहिए। जब दुष्ट व्यक्ति अपनी दुष्टता के व्यवहार को नहीं छोड़ते तो हम अपने सज्जनता के गुणों का त्याग क्योंकर करें। हमें अपनी पहचान अपने गुणों से बनानी चाहिए, अवगुणों के कारण अपना तिरस्कार नहीं करवाना चाहिए।
            यहॉं मैं एक दृष्टान्त देना चाहती हूॅं। आप सबने भी इसे पढ़ा अथवा सुना होगा। एक बार एक महात्मा जी नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ उन्हें एक बिच्छू दिखाई दिया। महात्मा जी को लगा कि कहीं यह बिच्छू नदी में मर न जाए। इसलिए वे उसको सुरक्षित करने का प्रयास करने लगे। उसे एक पत्ते पर रखकर बचाने लगे परन्तु वह चलता हुआ फिर से नदी में गिर पड़ा। यह क्रम कुछ समय तक अनवरत चलता रहा। 
            तब किनारे खड़े उनके शिष्य ने उन्हें यह कहते हुए रोका, "गुरु जी, आप इस बिच्छू को बचा रहे हो और यह आपको ही काट लेगा।" 
           इस पर महात्मा जी ने हंसकर अपने शिष्य को बहुत अच्छा उत्तर दिया, "यह बिच्छू अपना कर्म करेगा और मैं अपना। जब वह अपना धर्म नहीं छोड़ता तो मैं इन्सान होकर अपना धर्म कैसे छोड़ दूँ?"
             यह दृष्टान्त हमें सोचने पर मजबूर करता है। हमें शिक्षा देता है कि हर जीव का कार्य निर्धारित होता है। वह अपने गुण और स्वभाव के अनुसार ही कार्य करेगा। इसी प्रकार साँप को कितना भी दूध पिला दो वह डंक मारने से बाज नहीं आएगा। अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार ही जीव व्यवहार करते हैं। साँप की तरह दुष्ट व्यक्ति को कितना भी अपना बना लो, उसके लिए कितने भी भलाई के कार्य कर लो पर समय आने पर वह वार करने से नहीं चूकेगा।
             हम सब जानते हैं कि हर मनुष्य में तीन वृत्तियाँ- सात्विक, राजसिक और तामसिक होती हैं। सत्व गुण की प्रधानता होने पर मनुष्य सत्कर्मों की ओर प्रवृत्त होता है और देवतुल्य बन जाता है। जब मनुष्य में राजसिक गुणों की अधिकता होती है तो वह मानवोचित गुणों को अपनाता है। तब वह कभी सात्विक गुणों की ओर बढ़ता है तो कभी उसे तामसिक वृत्तियाँ ललचाती हैं। तीसरे तामसी गुणों वाले लोग संसार के आकर्षणों में फंसकर समाज विरोधी रास्ते यानी कुमार्ग पर चल पड़ते हैं। उस समय उन्हें सुधारना बहुत कठिन हो जाता है। इस प्रकार अपने इन विशेष गुणों के कारण ही मनुष्य की पहचान बनती है।
            हमें सच्चे, परोपकारी सज्जन लोग बहुत अच्छे लगते हैं। परन्तु अपने को और अपनों को इन गुणों से दूर रखना चाहते हैं। यदि सभी सोचने लगें कि अच्छाई का ठेका क्या हमने लिया है? बाकी और लोग भी तो हैं, वे क्यों नहीं अच्छे बनते? यह स्वार्थपरक सोच समाज के लिए बहुत घातक बन सकती है।
            समाज को सुधारने का ठेका कुछ मुट्ठी भर लोगों का दायित्व नहीं है, हम सबका इसमें बराबर का योगदान अपेक्षित है। तभी एक स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकता है। ईश्वर ने इस संसार में हम सब मनुष्यों को कुछ कर दिखाने का अवसर देकर भेजा है। जो लोग उस अवसर का सदुपयोग कर लेते हैं, वे समाज में अग्रणी बन जाते हैं। समाज उन्हें अपने सिर ऑंखों पर बिठाता है। परन्तु जो लोग किसी भी कारण से अपने इस अवसर का लाभ उठाने से चूक जाते हैं, वे असफल होकर इस दुनिया से विदा लेते हैं।
             जो लोग समय रहते अपनी योग्यताओं को पहचान लेते हैं और अपनी अच्छाइयों के बल पर आगे बढ़ते हैं, वे सभी परिस्थितियों में सम रहकर सबके हृदयों पर राज करते हैं। इन्हीं लोगों की ओर संसार टकटकी लगाए देखता रहता है। ये समाज के वो सम्मानित व्यक्ति होते हैं जो पथप्रदर्शक बनते हैं।उसे दिशा और दशा दिखा सकते हैं। इन लोगों के पदचिह्नों पर चलकर जन मानस स्वयं को सुरक्षित और गौरवान्वित महसूस करता है। निश्चित ही इन लोगों का नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है।
              इसके विपरीत समय की धारा में बहकर जो लोग आकर्षणों में फंस जाते है, समय बीतने पर वे पश्चाताप करते हैं। उस समय उनका पश्चाताप करना व्यर्थ हो जाता है। उन्हें लोग अवहेलना की दृष्टि से देखते है। समय-समय पर इन्हें घर-परिवार में तिरस्कृत होना पड़ता है। तब उन्हें समझ में आता है कि वे बहुत कुछ खो चुके हैं। यह नाकामी उन्हें आजन्म बहुत बेचैन करती है।
             इसलिए दुनिया की परवाह किए बिना अपनी अच्छाइयों को न छोड़ने का संकल्प ले लेना चाहिए। दूसरों की बुराइयों की ओर ध्यान न देना ही हमारे लिए उचित है। हम सबको तो बदल नहीं सकते पर अपने गुणों का दामन अवश्य ही कसकर पकड़ सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 19 अक्टूबर 2025

दीपावली पर्व

दीपावली पर्व

हम बड़े धूम-धाम से दीपोत्सव मनाने की तैयारी करते हैं। दीपावली का त्योहार हम सब पारम्परिक तरीके से और बहुत ही उत्साह से मनाते हैं। दीपावली के दिन रात को सभी अपने-अपने घरों में दीपमाला करते हैं। आजकल देखा-देखी होड़ होने लगी है। लोग घर पर इतनी सुन्दर लाइटिंग करने लगे हैं कि मन बरबस उसे देखने के लिए लालायित हो जाता है। गरीब-से-गरीब व्यक्ति भी अपने घर दो-चार दिए तो जला ही लेते हैं। 
          भगवान राम भगवती सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात आततायी रावण के अत्याचार से जन सामान्य को मुक्त करके इस दिन अयोध्या वापिस लौटे थे। उनके आगमन की खुशी में अयोध्यावासियों ने दीपमाला जलाकर अमावस्या की रात को प्रकाशित करके उनका स्वागत किया था।  प्रसन्नता व उत्साह का प्रतीक यह पर्व आज भी उसी उल्लास व खुशी से मनाया जाता है।
          माँ लक्ष्मी की प्रतीक्षा में पलक पाँवड़े बिछाए लोग अपने-अपने घरों और कार्यालयों में सफाई अभियान चलाते हैं। दीपकों के प्रकाश से माँ लक्ष्मी का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ऐसी धारणा है कि देवी लक्ष्मी इस दिन पृथ्वी लोक पर विचरण करती हुई लोगों को मनचाहा वरदान देती हैं और मुक्त हस्त से धन-दौलत बाँटती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली से नव वर्ष का आरम्भ माना जाता है। इसीलिए दुकानदार अपने बही-खाते इसी दिन से आरम्भ करते थे। 
          पूरा वर्ष हम इस दिन की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। बच्चे तो कई दिन पूर्व से ही योजनाएँ बनाने में जुट जाते हैं। उनके लिए दीपावली का अर्थ होता है नए कपड़े और मनपसन्द नए खिलौने खरीदना। दीपावली से कुछ दिन पूर्व से ही बच्चे तरह-तरह के पटाखे चलाने लगते हैं। उसी से ही उनका उल्लास झलकता है।
          चारों ओर सजे बाजार और ग्राहकों की आवाजाही पर्व के महत्त्व में चार चाँद लगा देते हैं। अपने ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए सेल का लालच देते हैं। कहते हैं इस पर्व पर दुकानदार सालभर के खर्च का एक बड़ा हिस्सा कमा लेते हैं। जो जितना अधिक ग्राहकों को आकर्षित कर पाता है उतना ही कमा लेता है।
        मित्रों, सम्बन्धियों और आस-पड़ोस के साथ उपहारों का आदान-प्रदान करके हम त्योहार की गरिमा बढ़ाते हैं। इसी बहाने सबसे मिलना-जुलना भी हो जाता है। यही मेल-मिलाप रिश्तों की डोर को और अधिक मजबूत करने में सहायक बनता है।
        कुछ लोग शराब आदि का नशा भी करते हैं और त्योहार पर बदमजगी करते हैं। इससे बचना चाहिए। कुछ लोग जुआ खेलकर सोचते हैं कि माँ लक्ष्मी की उन पर कृपा हो जाएगी। उन लोगों की यह सोच बिल्कुल गलत है। यह जुए की लत बरबाद करने वाली होती है जो सड़क पर लाकर खड़ा कर देती है। 
        महाभारत से बड़ा उदाहरण क्या हो सकता है जहाँ धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर पाँचों भाइयों और पत्नी द्रौपदी सहित अपना राजपाट जुए में हारकर कंगाल बन गए थे। उस समय उन्हें लाक्षागृह, अज्ञातवास जैसे भीषण संकटों का सामना करना पड़ा था।
        त्योहार की सात्विकता बनाए रखना हम सभी का कर्त्तव्य है। हमारा यत्न यही होना चाहिए कि सबकी भलाई के लिए जन जागरण करते रहें। 
          इस दीपावली पर हमें आत्ममंथन करना है। आने वाले नये वर्ष के लिए हमें एक सकारात्मक व सार्थक योजना बनानी है जिससे आने वाला 2026 हमारे लिए नयी खुशियाँ ला सके। हमने जो-जो योजनाएँ पिछले वर्ष बनायी थीं उनके विषय में भी विचार करना कि उन्हें हम कितना पूरा कर पाए। जो योजनाएँ पूरी हो गईं हैं तो उसके लिए अपनी पीठ थपथपा लीजिए परन्तु जो योजनाएँ कारणवश पूर्ण नहीं हो पायीं है उन पर मनन करना आवश्यक है। हमारा यत्न यही होना चाहिए कि उन्हें अविलम्ब पूरा करके आगे बनाई योजनाओं के लिए कमर कसकर जुट जाएँ। यदि हम इस प्रकार कर पाते हैं तो अपने जीवन की गाड़ी को सहजता से चला सकते हैं अन्यथा घसीटते हुए थक-हार जाते हैं। 
        ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप सभी की मनोकामनाओं को पूर्ण करे और सबके जीवन को इन्द्रधनुषी रंगों से सराबोर करे। आशा है ईश्वर की कृपा आप सब पर पूरा वर्ष बनी रहेगी।
चन्द्र प्रभा सूद

शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

ईश्वर के न्याय में दखलअंदाजी नहीं

ईश्वर के न्याय में दखलअंदाजी नहीं 

ईश्वर परम न्यायकारी है। यह सत्य है कि उसके न्याय को हम अज्ञ मनुष्य नहीं समझ पाते। इसलिए जाने-अनजाने हम उस ईश्वर के न्याय में अपनी दखलअंदाजी करने लगते हैं जिसे किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। शायद इसका कारण हम यह कह सकते हैं कि मनुष्य स्वयं को अधिक बुद्धिमान समझता है। हो सकता है आप मेरी बात से असहमत हों परन्तु यदि मेरे विचारों को पढ़कर तर्क की कसौटी पर कसेंगे तो मानेंगे कि मैं सर्वथा सत्य कह रही हूँ।
             संसार में रहते हुए हमें यदा-कदा लोगों के कटाक्ष अथवा उनके द्वारा किए गए अपमान का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त किसी दूसरे के कारण हमें कभी-कभी हानि उठानी पड़ती है अथवा न चाहते हुए अनावश्यक झगड़े में फंस जाना पड़ता है। उस समय हम दुखी होकर ईश्वर से प्रार्थना करते हैं- "हे ईश्वर! मेरा दिल दुखाने वाले उस मनुष्य को कभी न छोड़ना, उसे माफ भी न करना। उसे कड़ी-से-कड़ी सजा देना ताकि उसे सबक (lesson) मिल जाए। वह फिर से मेरा अथवा किसी ओर का अहित करने की हिम्मत न कर सके।"
            अब बताइए कि वह मालिक जब सब कुछ जानता है तो हम कौन होते हैं उसे न्याय करना सिखाने वाले? उसे अनावश्यक सलाह देकर स्वयं को उससे श्रेष्ठ बनने का साहस करने वाले? क्या हमने कभी ईश्वर से अपने तथाकथित शत्रु को क्षमा करने करने के लिए प्रार्थना करते हुए कहा है- "हे प्रभु! फलाँ व्यक्ति ने अपराध तो किया है पर उसने अज्ञानतावश किया। उसे क्षमा कर देना और उसे मेरे कारण कष्ट न देना।" यदि हम ऐसा करने लगें तो उस न्यायप्रिय प्रभु को शायद अच्छा लगेगा कि हम दूसरों को क्षमा करने के लिए याचना करने का भाव रख सकते हैं।
             ईश्वर के लिए सभी जीव एक समान हैं। सभी जीव उसकी सन्तान हैं यानी उसी का ही अंश हैं। उसकी नजर से कोई भी बच नहीं सकता। हमारे प्रति अपराध करने वाला हो सकता है दोषी ही न हो बल्कि दोष हमारा ही हो। ऐसा भी हो सकता है कि हमने उसके प्रति कभी कुछ गलत किया होगा जिसका परिणाम हमें अब इस रूप में भुगतना पड़ रहा हो। हाँ, ऐसा भी हो सकता है कि वास्तव में वही दोषी हो। हम इस विषय में कुछ भी नहीं जानते समझते हैं।
            दोनों स्थितियों में दोषी और निर्दोष होने का न्याय हम नहीं कर सकते। अत: इस समस्या को उसी मालिक पर ही छोड़ देना चाहिए। वहीं सब कुछ देखता है और यथोचित न्याय करता है। उसकी यह खूबी है कि वह किसी के साथ पक्षपात नहीं करता। इसीलिए ऋषि-मुनि और हमारे ग्रन्थ उसे समदर्शी कहते है। वह स्वयं इसका न्याय कर लेगा। हम उसकी तरह हर जीव के मन के भावों को न पढ़ सकते हैं और न ही जान सकते हैं। 
            इसलिए सारी व्यवस्थाएँ वही सम्हालता है। यदि वह हमारे ऊपर सब कुछ छोड़ दे तो सब गड़बड़ हो जाएगा। उस समय एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के मुँह में जाता हुआ निवाला भी छीनकर खा जाएगा। इस प्रकार दुनिया में हर तरफ अव्यवस्था का साम्राज्य हो जाएगा। चारों ओर हाहाकार मच जाएगा और लोग त्राहि-त्राहि कर उठेंगे। इस संसार में शातिर तथा दुराचारी लोगों का बोलबाला होने लग जाएगा। तब आम आदमी का जीना दुश्वार हो जाएगा। 
             हम अपने आसपास बहुधा देखते हैं कि कुछ व्यक्ति विशेष ऐसे होते हैं जिनका अहित करने वालों का कभी अच्छा नहीं होता, अपने किए गए दुष्कर्म का फल उन्हें निश्चित मिलता है। और कुछ लोगों के साथ बुरा करने वालों का बाल भी बांका नहीं होता। कारण वही है कि प्रथम श्रेणी के लोग मन से सहज, सरल व शुभचिन्तक होते हैं, वे किसी का अहित नहीं करते। दूसरी श्रेणी के लोग दिखावा अधिक करते हैं परन्तु मन से दूसरों का हित चिन्तन नहीं करते।
        हमारे पूर्वजन्मकृत कर्मों के ही आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ जज बिना किसी पूर्वाग्रह के, बिना किसी के दबाव में आए हमारे लिए निष्पक्ष न्याय करता है। यह उसी की कड़ी है कि हमें अपने जीवन में किसी व्यक्ति विशेष से यदा कदा सुख-दुख, मान-अपमान, हानि-लाभ आदि मिलते हैं। तब हम उस न्यायकारी परमेश्वर से अपने प्रति किए गए किसी भी दोष के लिए उस व्यक्ति विशेष को दण्डित करने की गुहार नहीं लगानी चाहिए। मेरे विचार में ऐसा करना कदापि उचित नहीं है।
             हमें अपने कर्मों की शुचिता पर बहुत अधिक ध्यान देना चाहिए। हमें कर्म करते समय सदा सावधान रहना चाहिए। हमें इस ओर ध्यान देना चाहिए कि यथासम्भव हमारे कृत्य किसी दूसरे व्यक्ति के लिए अहितकर न हों। हमारे कारण किसी अन्य जीव को कोई कष्ट न होने पाए। अपने प्रयासों में यदि हम सच्चाई व ईमानदारी को ला सकें तो ऐसे छोटे-मोटे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाएँगे। हमें उस दयालु न्यायकारी के न्याय में हस्ताक्षेप करने का दोष भी नहीं लगेगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

ईश्वर रूपी कस्तूरी

ईश्वर रूपी कस्तूरी

कस्तूरी मृग की भॉंति हम ईश्वर रूपी सुगन्ध को ढूढँने के लिए भटकते रहते हैं। मनीषी कहते हैं कि कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है। उसे खोजने के लिए वह जंगल में मारा-मारा फिरता है। परन्तु वह उसे नहीं मिल पाती। जो कस्तूरी उसकी नाभि में विद्यमान है, वह भला जंगल में भटकने से कैसे प्राप्त हो सकती है? 
            उसी प्रकार हम मनुष्यों का भी वही हाल है। ईश्वर रूपी कस्तूरी हमारे हृदयों में बसी हुई है पर हम उसे खोजने के लिए भटकते फिरते रहते हैं। हम उसे ढूँढने के लिए  कभी तीर्थ स्थलों की सैर करते हैं, कभी जंगलों में भटकते फिरते हैं अथवा धार्मिक स्थानों पर जाकर माथा रगड़ते हैं। पवित्र नदियों के जल में स्नान करके आत्मशुद्धि का व्यर्थ प्रयास करते हैं। इसी कड़ी में तथाकथित पाखण्डी धर्मगुरुओं, तन्त्र-मत्र वालों के जाल में फंसते जाते हैं। पर ईश्वर तो फिर भी कहीं नहीं मिलता। वह तो हमें तभी मिलेगा न जब हम उसकी सच्चे मन से  तलाश करेंगे।
                हम यह मानते हैं ईश्वर कण-कण में और जर्रे-जर्रे में विद्यमान है। उसे खोजने की कोई आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि वह हर घड़ी, हर पल हमारे अंग-संग रहता है। उसका निवास स्थान तो हमारा हृदय है जिसे हमने मन्दिर की तरह पवित्र बनाना है। ऐसा तभी होगा जब हम यम-नियमों का पालन सख्ती से करेंगे।
          'मनुस्मृति:' में मनु महाराज ने धर्म के लक्षण बताते हुए कहा है -
      धृति: क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
      धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकों धर्मलक्षणम्।।
अर्थात् धर्म के दसों लक्षण हैं - धैर्य, क्षमा, संमय, चोरी न करना, तन-मन की पवित्रता, इन्द्रियों को वश में करना, सद् बुद्धि रखना, विद्या ग्रहण, सत्य बोलना करना और क्रोध न करना।
             महर्षि पातंजलि ने योगशास्त्र में योग के आठ अंग बताए हैं- यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्रणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि। इन आठों अंगों का पालन करते हुए मनुष्य समाधि के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करता है। मनुष्य का सारा जीवन व्यतीत हो जाता है यम और नियम का पालन करते हुए पर उनकी पूर्ण रूप से अनुपालना नहीं कर पाता। जिस प्रकार नींव के बिना यदि घर बनाया जाए तो वह बहुत दिन तक टिका नहीं रह सकता, उसी प्रकार यम और नियम के बिना समाधि तक पहुँच पाना असम्भव होता है। योग की पहली सीढ़ी यम है इसके पालन के बिना नियम की अनुपालना नहीं हो सकती। इन दोनों के पालन से अन्त:करण पवित्र होता है। इनके पालन के बिना प्राणायाम का भली-भाँति होना बहुत कठिन होता है।
          इन यम-नियमों और धर्म  का पालन करके हम अपने जीवन को सात्विक बना लेंगे। उस समय जब चाहेंगे अपने मन में उस प्रभु का ध्यान लगाकर उसका साक्षात्कार करने में सक्षम हो सकेंगे।
           हम उस परमपिता का अंश हैं, वह सदा ही हमें अपने में समेटे रखना चाहता है। इसलिए वह सदा ही हमारे साथ रहता है। वह कभी हमें अपने से दूर नहीं करना चाहता। पर हम अड़ियल व नादान बच्चे की तरह उसकी अंगुली छुड़ाकर इधर-उधर भागते रहते हैं। इस संसार के आकर्षण इतने अधिक लुभावने हैं कि हम ललचाते हुए सब कुछ छोड़कर उनकी ओर भाग जाना चाहते हैं। ईश्वर की ओर अपना ध्यान लगाना ही नहीं चाहते। इस कारण हम दुःखों-परेशानियों में घिर जाते हैं।
              यहाँ एक उदाहरण देना चाहती हूँ। बच्चे अपने कैरियर, पढ़ाई या किसी अन्य आकर्षण के कारण अपने माता-पिता को छोड़कर देश में अन्यत्र अथवा विदेश कहीं भी चले जाते हैं। तब उनके माता-पिता पलक-पाँवड़े बिछाए उनकी राह निहारते रहते हैं और पल-पल उनकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। इसी प्रकार ईश्वर भी हरपल इसी प्रतीक्षा में रहता है कि हम उसके बच्चे कब उसकी ओर उन्मुख होंगे? हम ऐसे नालायक बच्चे हैं कि संसार के झमेलों से मुक्त ही नहीं हो पाते। उसके विषय में सोचना ही नहीं चाहते।
          यही स्थिति हमारी है हम भौतिक आकर्षणों के कारण, कभी सांसारिक बन्धनों को निभाने के नाम पर, कभी अपनी बिमारियों का ढोल पीटते हुए या फिर अपनी व्यस्तताओं का रोना रोते हुए उस प्रभु से दूर होते जाते हैं। हमारे लौट आने की प्रतीक्षा करता हुआ वह वहीं खड़ा रहता है। जब हम सच्चे मन से भाव-विभोर होकर उसे पुकारते हैं तो वह हमें अपने में समेट लेने के लिए आतुर हो जाता है। जब हम तन और मन से पवित्र हो जाते हैं, तब ईश्वर के और करीब हो जाते हैं।
              हमारे विद्वान मनीषी हमें समझाते हैं कि कस्तूरी की तरह हमारे अपने हृदय में विद्यमान उस परमेश्वर की सुगन्ध को पाने के लिए अनावश्यक भटकाव से मुक्त होकर स्वयं को उसके योग्य बनाओ। अपने मन को मन्दिर की तरह पवित्र बनाने के लिए वे बल देते हैं ताकि वहाँ पर ईश्वर का वास हो सके। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि तभी हम ईश्वर के साथ एकाकार या ईश्वरमय हो सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

हीरे की पहचान जौहरी को

हीरे की पहचान जौहरी को

हीरे की पहचान जौहरी को ही होती है, यह कथन सर्वथा सत्य है। जौहरी की पारखी नजर उसे देखते ही उसके रंग-रूप और कैरेट आदि के अनुसार बिना समय गॅंवाए उसका मूल्य बता देती है। हम अनाड़ी लोग कितनी भी देर तक उसे हाथ में पकड़कर उसे उल्ट-पुलट कर निहारते रहें फिर भी उसके मूल्य का अंदाजा तक नहीं लगा सकते। हीरा स्वयं यह नहीं कहता कि देखो मैं बहुत मूल्यवान हूँ, मुझे खरीद लो या अपने पास संभालकर रख लो।
              इसी प्रकार इस संसार में हीरे जैसे जो लोग विद्यमान हैं, वे भी अपना ढिंढोरा नहीं पीटते। न ही वे स्वयं होकर कहते हैं कि हम बहुत विद्वान हैं। आओ हमें पहचान कर हमारी कद्र करो। उन विद्वानों की विद्वता, उनकी सधी हुई वाणी और उनका सभी जीवों के प्रति व्यवहार आदि सद् गुण ही उनकी पहचान होते हैं। वे कहीं भी छिपकर रहें परन्तु फूलों की सुगन्ध की तरह चारों ओर उनका यश, उनकी कीर्ति फैल जाती है। उनके ज्ञान का प्रभाव इतना होता है कि लोग उन्हें ढूंढते हुए स्वयं ही उनके पास पहुॅंच जाते हैं।
             मीलों दूर कूड़े के ढेर की बदबू तेज हवा के चलने पर अपना प्रभाव दिखा देती है। वह पीछा नहीं छोड़ती बल्कि परेशान कर देती है। ऐसे ही हींग को कितनी परतों में छिपाकर रख लो उसकी हीक या गन्ध तो आ ही जाती है। यानी कि सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों ही अपना प्रभाव छोड़ती हैं। ये दोनों ही मानव मन को प्रभावित करती हैं। वातावरण के सुगन्धित होने पर वह आनन्दित होता है और दुर्गन्ध होने पर वह अनमना-सा हो जाता है।
              इसी प्रकार दुर्जन या दुष्ट व्यक्ति की कुख्याति भी देश-देशान्तर में फैलती है। वे न्याय व्यवस्था के दोषी बन जाते हैं। कानून व पुलिस उनके पीछे रहते हैं। उनका दिन-रात का चैन खो-सा जाता है। अपने को बचाने के लिए वे इधर-उधर भटकते रहते हैं और अपने रहने के ठिकाने आए दिन बदलते रहते हैं। अब सोचिए कि ऐसे अकूत धन का क्या लाभ जो देश व समाज का शत्रु ही बना दे? न चाहते हुए भी व्यक्ति से अपना घर-परिवार और बन्धु-बान्धव छुड़वा दे।
             हीरे जैसे विद्वानों की विद्वत्ता देखी जाती है और उनका ज्ञान परखा जाता है, उनकी आयु नहीं देखी जाती। इसी बात को संस्कृत भाषा के महाकवि कालिदास ने 'कुमारसम्भवम्' महाकाव्य में कहा है - 
            धर्मवृद्धेषु वय: न समीक्ष्यते।
अर्थात् इस श्लोकांश में कहा कहा गया है कि धर्म में श्रेष्ठ लोगों की आयु नहीं देखी जाती या धर्म के ज्ञाता लोगों की आयु नहीं देखी जाती। 
               इसका यही अर्थ है कि धर्म के मामले में ज्ञान और आचरण की श्रेष्ठता आयु से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। कम आयु का व्यक्ति भी ज्ञान और आचरण के कारण आदरणीय हो सकता है। इसीलिए छोटी आयु के सन्यासी के पॉंव भी लोग छूते हैं। यहॉं में परम विद्वान बालक अष्टावक्र का उल्लेख करना चाहती हूॅं। शरीर में आठ स्थानों से टेढ़े ज्ञानी बालक अष्टावक्र ने उस समय के विद्वानों में अपनी  योग्यता का लोहा मनवा लिया था। हमारा इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। सिर्फ हमारे खोजने की आवश्यकता है।
         महाकवि कालिदास ने 'रघुवंशम्' महाकाव्य में कहा है -
          तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते" 
अर्थात् तेजस्वी लोगों की उम्र नहीं देखी जाती अथवा प्रतिभाशाली लोगों की आयु कोई मायने नहीं रखती। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसी व्यक्ति की प्रतिभा और क्षमता को उसकी उम्र से नहीं आंका जाना चाहिए।
              तेजस्वी लोग कम आयु में भी अपनी तेजस्विता से, ओजस्विता से और अपनी योग्यता से समाज को चमत्कृत कर देते हैं। जैसे आदिगुरु शंकराचार्य ने केवल 32 वर्ष की आयु में, स्वामी विवेकानन्द ने 39 वर्ष की आयु में और महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 59 वर्ष की आयु में ही विश्व को अपनी प्रतिभा से आन्दोलित कर दिया था ।
            अलौकिक गुणों से युक्त ये महानुभाव सभी के सच्चे हितैषी होते हैं। घर-परिवार, देश, धर्म और समाज की भलाई के लिए हर समय तत्पर रहते हैं। जो कोई इनके पास जाकर इनसे सहायता की अपेक्षा करता है उसे कभी भी निराश नहीं करते। इनका साथ सोने में सुहागे की तरह होता है। ये लोग सत्वगुण वाले सदाचारी होते हैं। जो स्वयं सन्मार्ग पर चलते हैं और समाज को उचित मार्गदर्शन देते हैं। अपना उद्धार करने के लिए इन महानुभावों की संगति यत्नपूर्वक करनी चाहिए।
             इनकी संगति में रहने से मन में पड़ी हुई ग्रन्थियाँ स्वतः खुलने लगती हैं। मन में आए हुए सभी दुर्विचार खुद ही किनारा करते जाते हैं। एक दिन ऐसा आएगा जब हम राग-द्वेष, छुआछात, जाति-पाति व अमीरी-गरीबी आदि के भेद से स्वयं को ऊपर पाएँगे। सभी जीव हमारे लिए भी एक समान हो जाएँगे। हम किसी भी मनुष्य के साथ पक्षपात नहीं करेंगे। यह स्थिति वास्तव में बहुत ही सुखदाई होगी। उस समय की कल्पना करके ही मन आह्लादित हो जाता है।
            हमारे अपने आसपास बहुत से ऐसे हीरे विद्यमान हैं। हमें हमेशा ऐसे हीरों की तलाश करते रहना चाहिए। यथासम्भव उनसे जुड़ने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार से प्रयत्न करने पर हमारा इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाएँगे। तब ईश्वर प्रदत्त हमारे इस मानव जीवन को पाने का उद्देश्य भी पूर्ण हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

ईश्वर से रिश्ता

ईश्वर से रिश्ता

बचपन में अपनी माता जी के मैं साथ कभी-कभी आर्य समाज चली जाती थी। वहाँ पर सब लोग एक भजन गाया करते थे। वह भजन मुझे पूरा याद नहीं पर दो-तीन लाइनें याद हैं-
        सुनता मेरी कौन है जिसे सुनाऊँ मैं
       जब से याद भुलाई तेरी लाखों कष्ट उठाए हैं
        छींटा दे दो ज्ञान का होश में आऊँ मैं।
इसे सुनकर बाल सुलभ जिज्ञासा मन में उठती थी। उस समय हम बच्चों में उतनी समझ नहीं थी जितनी आज की पीढ़ी चुस्त है। तब मैं सोचा करती थी कि यह सुनता कौन है? अगर यह सुनता नामक कोई इन्सान है तो वह क्या सुनाना चाहता है? इस भजन में ऐसा क्यों कहा है कि उसकी बात को कोई नहीं सुनता? वह मनुष्य कितना दुखी हो रहा है? सब लोग उसे नजरअंदाज क्यों करते हैं? ये प्रश्न निरन्तर मन को उद्वेलित करते रहे। 
            फिर जब कुछ बड़ी हुई तब इसका अर्थ मुझे समझ में आया कि सुनता नामक कोई इन्सान नहीं है बल्कि यह हम सब लोगों की पीड़ा है। हम लोगों की व्यथा यह है कि हमारी बात कोई नहीं सुनता हम किसे अपनी बात सुनाएँ? आज भी प्रश्न हमारे समक्ष मुँह बाए खड़ा रहता कि माता-पिता, भाई-बहन, मित्र-रिश्तेदार आदि सभी तो अपने हैं फिर वे हमारी बात क्यों नहीं सुनते? यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। इस कारण मनुष्य को अकेले ही जूझना पड़ता है। वह दुखी और परेशान रहने के लिए विवश हो जाता है।
           उसके बाद जब और गहरे उतरी तो समझ आया कि सभी दुनियावी रिश्ते-नाते तो बस नाम के ही होते हैं। ये सभी पूर्वजन्म कृत हमारे अपने कर्मों के अनुसार हमारे साथ जुड़े हुए होते हैं। मोह-माया में जकड़े हुए सभी मनुष्य लाचार हैं जो चाहकर भी अपनों के लिए कुछ नहीं कर पाते। सब लोगों की अपनी-अपनी व्यस्तताऍं और विवशताऍं होती है। बस असहाय से रहकर वे अपने दूसरे सम्बन्धी के दुख-तकलीफों आदि में व्यथित होते रहते हैं। वे अपनी सीमा के कारण परेशान रहते हैं। इसका कारण यही है कि वे भगवान नहीं है जो सब कुछ करने में समर्थ है।  
             हमारा असली रिश्ता तो उस परमात्मा के साथ है जिसके हम अंश हैं। वही हमारे लिए सब कुछ करता है। वहीं  हमें सुख-समृद्धि देता है। हमारे कर्मों के हमें अनुसार जन्म देता है और हमारा पालन-पोषण करता है। वही हमारी बातों को सुनता है। बस उससे अपनी प्रार्थना करके देखिए, जीवन ही बदल जाएगा। हमारे सांसारिक रिश्ते-नाते मुँह मोड़ लेते हैं तो इन्सान सबसे कटकर अलग-थलग हो जाता है। उस समय वह अकेला हो जाता है। कोई भी उसका साथी नहीं रह जता। उस स्थिति की तो हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
              सोचिए यदि वह मालिक हमारी ओर से मुख मोड़ ले तो फिर क्या होगा? नहीं, हम यह बात स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। उस प्रभु को प्रसन्न करने के लिए, उसकी कृपा प्राप्त के लिए हम तरह-तरह के यत्न करते हैं। उसे रिझाने के लिए कोशिशों में लगे रहते हैं। उन प्रयासों की सफलता या असफलता निश्चित ही हमारी सच्चाई और ईमानदार कोशिशों पर निर्भर करती है। हम अपने मन से उस ईश्वर के लिए पूर्णरूपेण समर्पित हो सकें तभी वास्तव में हम उसके बन सकते हैं, अन्यथा तो बस कहने की बात ही रह जाएगी।
              इन पंक्तियों में कहा है कि प्रभु को भुला देने पर लाखों कष्टों का सामना करना पड़ा है। हम जितना उससे दूर होते जाएँगे, उतने ही हमारे दुखों में वृद्धि होती जाती है। हम अज्ञानी हैं इसलिए अपराध कर बैठते हैं। यहाँ उस परमपिता से प्रार्थना की है कि हमें ज्ञान का छींटा दे दो ताकि हम होश में आ जाएँ। जैसे बहोश व्यक्ति को पानी का छींटा देते हैं तो उसकी बेहोशी दूर हो जाती है और उसकी चेतना लौट आती है। उसी प्रकार हमारी चेतना को जागृत करने के लिए ज्ञान के छींटें की ईश्वर से प्रार्थना की गई है।
              हम अज्ञानियों को ईश्वर जब ज्ञान का छींटा देगा तो हमारा अज्ञान स्वत: ही दूर हो जाएगा। हमारे अन्तस में ज्ञान का प्रकाश हो जाएगा। हम निरन्तर ईश्वर के समीप होते जाऍंगे। उस समय हम लोगों को सही-गलत का भेद समझ में आ जाएगा। ऐसी स्थिति में हम कुमार्ग का त्याग करके सन्मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे। तभी हम अपने जीवन को सफल बनाने में सक्षम हो सकेंगे। यही हमारे मानव जीवन की सार्थकता होगी। हमारा इहलोक और परलोक सुधर‌ जाएगा।
                दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि इस संसार की असारता को समझकर हम सारतत्त्व ईश्वर की ओर जब अपना ध्यान करेंगें तो वह हमें सांसारिक रिश्तों की तरह कभी निराशा नहीं करेगा। हम तो मनुष्य हैं न, अपने जीवन में हम घाटे का सौदा कभी नहीं कर सकते। यहाँ पर भी हम अपना लाभ देखते हुए जब प्रभु की ओर सच्चे मन से उन्मुख होंगे तो वह हमारा उद्धार करेगा। तभी अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करने का हमारा मार्ग सहज ही में प्रशस्त हो जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद 

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

समदर्शी ईश्वर

समदर्शी ईश्वर 

ईश्वर समदर्शी है। समदर्शी का अर्थ है समान रूप से देखने वाला, निष्पक्ष या भेदभाव न करने वाला।  वह सभी लोगों, वस्तुओं या परिस्थितियों को बिना किसी पक्षपात या भेदभाव के समान रूप से देखता है। ईश्वर की दृष्टि में सभी जीव एक समान हैं। वह किसी भी जीव के साथ पक्षपात नहीं करता। 
          यह तो हम इन्सान हैं जो पक्षपात किए बिना मानते ही नहीं हैं। समदर्शिता एक महत्वपूर्ण गुण है जो व्यक्ति को अधिक न्यायप्रिय और सहानुभूतिपूर्ण बनाता है। ऐसा व्यक्ति सभी लोगों के प्रति समान भाव रखता है चाहे वे किसी भी जाति, धर्म या सामाजिक वर्ग के हों। व्यक्ति किसी भी स्थिति में किसी के साथ पक्षपात नहीं करता है बल्कि निष्पक्ष रूप से न्याय करता है। 
       निम्न लोकोक्ति शायद इसीलिए कही गई है- 
       अन्धा बॉंटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को दे।
अर्थात् यदि अन्धे व्यक्ति को रेवड़ियाँ बाँटने के लिए दे दी जाऍं तो वह बार-बार अपने ही लोगों को देने लग जाएगा।
          यह कहावत उन लोगों पर लागू होती है जो अपने पद या शक्ति का उपयोग अपने निजी लाभ अथवा अपने परिचितों को फायदा पहुॅंचाने के लिए करते हैं। जबकि दूसरों के साथ न्याय नहीं करते। यह एक तरह का पक्षपात है जहॉं व्यक्ति अपने करीबी लोगों को विशेष व्यवहार या लाभ प्रदान करता है और दूसरे लोगों को नजरअंदाज करने का कार्य करके पाप का भागीदार बनता है। इस विषय में उसे अवश्य विचार करना चाहिए।
           इस विषय पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। कमोबेश हम सभी की  यही स्थिति है। हमें अपने से बढ़कर कुछ दिखाई ही नहीं देता। मैं, मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरा परिवार- बस यहीं तक हमारी दुनिया सीमित है। इन्हीं के लिए हम जीते हैं, इन्हीं के लिए हम सोचते हैं और इन्हीं सबके लिए संसार के अच्छे-बुरे सारे कारोबार करते हैं। हम सब कूप मण्डूक हैं यानी कुँए के उस मेंडक की तरह हैं जो उसी कुँए को अपना संसार मान लेता है जहाँ वह रहता है। वहीं पर वह खुशी से सारा जीवन बीता देता है। उससे बाहर निकलने के विषय में वह सोच ही नहीं पाता। उसे बाहरी दुनिया से कोई लेना देना नहीं होता।
           मनुष्य को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति कहा जाता है। उसमें ईश्वरीय गुण अपनाने की भरपूर क्षमता है पर वह उन्हें अपनाना नहीं चाहता। वह तो स्वार्थ और मोह के कारण अन्धा हो जाता है। अपने पैदा किए हुए बच्चों के साथ भी वह समानता का व्यवहार नहीं कर पाता। कोई बच्चा उसे अधिक प्रिय होता है और किसी की वह शक्ल भी नहीं देखना चाहता। कभी बेटे के मोह में अपनी बेटी के साथ अन्याय कर बैठता है तो कभी झूठे अहं के कारण आपसी सामंजस्य नहीं बिठा पाता। अपनी धन-सम्पत्ति के बटवारे के समय भी कुछ लोग पक्षपात कर देते हैं।
              दूसरों का हक छीनते, उनका गला काटते, भ्रष्टाचार में लिप्त होते, अनाचार-अत्याचार करते हुए कुछ लोगों का न उसका दिल काँपता है और न पसीजता है। न उसके मन में समाज का डर होता है और न ईश्वर का। अन्तिम अवस्था में चाहे उसे अपने दुष्कर्मों पर पछतावा करना पड़े क्योंकि जिनके लिए वह सब स्याह-सफेद करता है, वही प्रियजन उसका साथ नहीं निभाते। समय बीतने पर वह अकेला हो जाता है और उसके मन को क्लेश होता है। 
               मनुष्य ने अपने आसपास छुआ-छात, जात-पात, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि की ऊॅंच-नीच की अनावश्यक ही दीवारें खड़ी कर दी हैं। सारा समय व्यर्थ में ही भेदभाव करके मनुष्य अपने लिए कॉंटे बोने का काम करता है। वह स्वयं नहीं जानता कि सीमित समय के लिए मिले इस मानव जीवन को वृथा गॅंवाकर उसे अन्तकाल में पश्चाताप करने का अवसर भी नहीं मिलेगा। यदि वह इसका परिणाम सोच ले तो अपने जीवनकाल में ऐसी हरकतें नहीं कर सकेगा।
        परमात्मा का अंश यह मनुष्य जब संसार में आता है तो उस ईश्वर से प्रार्थना करता है कि मुझे गहन अंधकार से मुक्ति दो। मैं दुनिया की चकाचौंध में न फंसकर तेरा ध्यान करूँगा। शायद दुनिया की हवा ही कुछ ऐसी है कि जिसके लगते ही वह अपने वचन भूल जाता है। तब दुनिया के आकर्षणों से घिरा वह प्राथमिकताओं से विमुख हो जाता है। फिर वह न तो सम रह पाता है और न समदर्शी।
             यदि मनुष्य ईश्वर की भाँति समदर्शी बन जाए तो सभी जीवों यानी पानी में रहने वाले जीवों ( जलचर), आकाश में उड़ने वाले जीवों (खेचर) तथा पृथ्वी पर रहने वाले जीवों (भूचर) के साथ एक जैसा व्यवहार करेगा। किसी को मारकर खा जाने या उसे हानि पहुँचाने के विषय में सोचेगा ही नहीं। उनके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा वह अपने लिए चाहता है। सब जीव उसके लिए अपने जैसे ही हो जाएँगे। तब वह प्राणिमात्र से सच्चे अर्थों में जुड़ सकता है। यदि मानव ऐसा सब कर सके तो वास्तव में समदर्शी बन सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद 

सोमवार, 13 अक्टूबर 2025

अन्तरात्मा या आत्मा की आवाज

अन्तरात्मा  या आत्मा की आवाज

सभी मनुष्यों के मन से एक ध्वनि(आवाज) आती है जिसे अन्तरात्मा  या आत्मा की आवाज कहते हैं। यह हमें सही और गलत का एहसास कराती है। यह हमें बताती है कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। अन्तरात्मा की आवाज अक्सर नैतिक मूल्यों और सिद्धान्तों से जुड़ी होती है। यह अन्तरात्मा की आवाज हमारे मन का वह हिस्सा है जो हमें बताता है कि हम जो कर रहे हैं, वह नैतिक रूप से सही है या गलत। इसे आन्तरिक आवाज भी कहा जाता है। 
             इसके बारे में हम सबने सुना है। सोचने की बात यह है कि आखिर यह आत्मा की आवाज है क्या? इस विषय में यही कहा जा सकता है कि इस आवाज को हम अपने भीतर से ही सुनते हैं। खासकर ऐसे समय में जब हम कुछ नैतिक या अनैतिक करने की कोशिश कर रहे होते हैं। यह आवाज हमें चेतावनी देती है, जगाती है और प्रोत्साहित करती है। इसे केवल हम ही सुन सकते हैं। हमारे पास बैठा हमारा कोई प्रियजन अथवा कोई मित्र तक भी नहीं सुन सकता। यह इस आवाज की विशेषता है।
             यह आवाज कहीं बाहर से नहीं आती बल्कि हमारे अन्त:करण से आती है। जैसे हम लोग अपने बन्धु-बान्धवों से बात करके उसे गुप्त रखते हैं ताकि उसकी सिक्रेसी बनी रहे, उसी तरह हमारे अन्तस से आने आवाज भी गुप्त रहती है। इसीलिए यह किसी अन्य व्यक्ति को सुनाई नहीं देती। ईश्वर ने इस प्रकार यह विधान बनाया है। वह स्वयं प्रत्यक्ष होकर हमें कुछ नहीं कहता पर इस आवाज के माध्यम से हम लोगों को सजग अवश्य करता रहता है। इस प्रकार वह मालिक सदैव हमारी चेतना को झिंझोड़ता रहता है।
              यह आवाज हमें कब जगाती है? यह विचारणीय विषय है। जब भी हम कोई शुभ कार्य (घर-परिवार, समाज आदि के नियमानुसार कार्य) करते हैं तब हमारे मन में उत्साह होता है, खुशी होती है। इसका अर्थ है कि हमारा किया जाने वाला कार्य करणीय है अर्थात् करने योग्य है। यही वे कार्य हैं जो हमें मानसिक शान्ति व चैन की जिन्दगी प्रदान करते हैं। हमें उन्नति के पथ पर आगे बढ़ाते जाते हैं। अपने उत्थान के लिए उन कार्यों को सावधानी से करते रहना चाहिए।
           इसके विपरीत जिन कार्यों को करते समय हमारे मन में उत्साह नहीं होता, वह बैचेन हो जाता है या परेशान होता है। वे निश्चित ही अकरणीय (न करने योग्य) कार्य होते हैं। घर-परिवार, समाज आदि के नियमों के विरूद्ध किया जाने वाला होता है यह कार्य है। इसका यही अर्थ होता है कि हमें वह कार्य किसी भी शर्त पर नहीं करना चाहिए। इन कार्यों को करने से मन व्यग्र रहता है। हमारा दिन-रात का चैन छिन जाता है। ऐसे कार्यों को करने में असफलता हाथ लगती है। इसलिए इन कार्यों को न करना ही हमारे लिए उचित होता है।
          ‌मन में होने वाली उथल-पुथल को गहराई से समझने पर स्वयं हम ज्ञात कर सकते हैं कि हमें कौन-से कार्य करने चाहिए और किन्हें छोड़ना चाहिए। यह आवाज सदा हमें पतन के रास्ते पर जाने से रोकती है। ईश्वर कभी नहीं चाहता कि हम उसके  बच्चे कुमार्गगामी बन जाऍं।  घर-परिवार, देश-समाज, पुलिस-कानून आदि से डर-डरकर हम जीवन व्यतीत करें। उसकी यही इच्छा होती है कि हम सन्मार्ग पर चलकर उसके पास जाने का अपना मार्ग प्रशस्त करें।
             हमें अपने विचारों और भावनाओं को शान्त करने की आवश्यकता है ताकि हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुन सकें। ध्यान और आत्म-चिन्तन हमें अपनी अन्तरात्मा से जुड़ने में सहायता कर सकते हैं। नैतिक मूल्यों का पालन करने से हम अपनी अन्तरात्मा को दृढ़ बना सकते हैं। अन्तरात्मा की आवाज एक शक्तिशाली उपकरण है जो हमें सही दिशा में मार्गदर्शन कर सकती है। कुछ लोगों के लिए अन्तरात्मा की आवाज एक आध्यात्मिक अनुभव भी हो सकती है, जो उन्हें अपनी आत्मा से जोड़ती है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनें। 
              हम इस आवाज को अपने अहंकार के कारण अनसुना करते रहते हैं तो एक समय ऐसा आ जाता है जब उसे सुन ही नहीं पाते। यह हमें चेतावनी देती रहती है। हमें जगाने का कोई मौका नहीं छोड़़ती। परन्तु बस हम ही उससे अनजान बने रह जाते हैं। हम अपनी इसी अज्ञानता के चलते हम दुखों के सागर में डूबते-उतरते रहते हैं। तब हम यह विचार करने लगते हैं कि हमने ऐसा क्या अपराध किया जिस कारण दुख-परेशानियाँ हमारा पीछा नहीं छोड़ रही हैं।      
             यदि हम अपनी आत्मा की आवाज सुनेंगे और उसे ईश्वर की आज्ञा मानकर कार्य करेंगे तब हम वास्तव में सफलता की सीढ़ियाँ चढेंगे। हमारा मन प्रफुल्लित रहेगा, उत्साहित रहेगा। अपनी व अपनों के जीवन में सुख-शान्ति बनी रहे, इसके लिए अन्तरात्मा की आवाज को अनसुना न करते हुए हम निरन्तर आगे बढ़ते रहें। ईश्वर हम सबका मार्ग प्रशस्त करे।
चन्द्र प्रभा सूद 

रविवार, 12 अक्टूबर 2025

दुविधा के पल

दुविधा के पल

जीवन में बहुधा दुविधा के ऐसे पलों से हमें दो-चार होना पड़ता हैं। एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति को दो या दो से अधिक विकल्पों में से किसी एक को चुनने में कठिनाई हो रही होती है। जब कोई व्यक्ति किसी बात पर स्पष्ट रूप से निर्णय नहीं ले पाता तो वह दुविधा में होता है।  दुविधा में व्यक्ति यह नहीं जान पाता कि उसे क्या करना चाहिए या किस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। उस समय ऐसा लगता है कि हमारी सोचने-समझने की शक्ति साथ नहीं निभा रही। उस समय समझ में नहीं आता कि हम क्या करें और क्या न करें? 
            जब एक व्यक्ति एक मुश्किल परिस्थिति में फंसा हुआ हो तब उसे दो रास्ते दिखाई दे रहे होते हैं। उसे नहीं पता कि कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत। यह अपने आप में एक दुविधा है।
दुविधा से निपटने के लिए, सबसे पहले, सभी सम्भावित विकल्पों के बारे में जानकारी इकट्ठा करनी चाहिए।‌ संचित विकल्पों की अच्छे से जॉनी परख करनी चाहिए। उनसे होने वाले लाभ और हानि का मूल्यॉंकन करना चाहिए।
             प्रतिदिन के जीवन का एक उदाहरण लेते हैं। प्रायः हम सभी नौकरी, व्यापार, पढ़ाई आदि के लिए प्रतिदिन यात्रा करते हैं अथवा घर के आसपास बाजार आदि में खरीददारी के लिए जाते हैं या फिर किसी से मिलने जाते हैं। हमें स्थान-स्थान पर चौराहे दिखाई देते हैं। यदि हमें रास्ते की सही जानकारी होती है तो हम ठीक मार्ग का चुनाव करके अपने गन्तव्य तक पहुँच जाते हैं। 
             इसके विपरीत यदि उचित मार्ग ज्ञात न हो तो हम वहाँ सड़क के किनारे खड़े नहीं रहते और न ही वापिस लौटकर आते हैं। उस समय उचित मार्गदर्शन के लिए उस स्थान विशेष की जानकारी वाले किसी सज्जन से परामर्श करके सही मार्ग को चुन कर, उस पर चलते हुए अपने गन्तव्य पर पहुँच जाते हैं।
            यहॉं एक और उदाहरण लेते हैं। दुविधा में व्यक्ति को किसी बात पर सन्देह होने लगता है। उस स्थिति में वह सही निर्णय लेने में हिचकिचाता है। मान लीजिए कि किसी एक व्यक्ति को दो स्थानों से नौकरी के प्रस्ताव मिले हैं। एक में अच्छी सैलरी है परन्तु वहॉं कम काम का है। दूसरी ओर कम सैलरी है लेकिन वहॉं काम अधिक है। उसे समझ नहीं आ रहा कि कौन सा चुने। इस प्रकार की दुविधा में उसे किसी जानकार से सलाह ले लेनी चाहिए।
              इन उदाहरणों से यह समझ आता है कि यदि जीवन में कभी ऐसी स्थिति आती है जब हम सही या गलत को न समझ सकें तो सबसे पहले तो हमें दृढ़तापूर्वक मन को व्यवस्थित करके एकान्त में विचार करना चाहिए। गहन चिन्तन करते हुए समस्या के हर पहलू पर जब हम विचार करेंगे तब संभवतः उसका समाधान निकाल पाने में समर्थ हो सकते हैं। इस प्रकार विचार करने से यदि दुविधाजनक स्थिति से उभर सकें तो बहुत अच्छी बात है।
            यदि परिस्थितिवश किसी कारण से स्वयं से हल न ढूँढ पाएँ तब हमें किसी विवेकशील व्यक्ति के पास जाना चाहिए और अपनी दुविधा उसके समक्ष रखनी चाहिए। उनसे विचार-विमर्श करने पर अवश्य ही कोई सकारात्मक हल निकल आएगा। जिसके अनुसार व्यवहार करके हम अपनी दुविधा पूर्ण स्थिति से मुक्त हो सकते हैं।
         यदि आवश्यक हो तो किसी अनुभवी व्यक्ति या पेशेवर से सलाह लेने से  घबराना नहीं चाहिए। समझदार सज्जन व्यक्ति से अपनी किसी भी तरह की परेशानी को साझा करने में हिचकिचाना नहीं चाहिए। ऐसे व्यक्ति पर पूर्णरूप से भरोसा किया जा सकता है। ये लोग धीर-गम्भीर व शुभचिन्तक होते हैं। वे इधर की बात उधर नहीं करते। हर किसी के रहस्य को  हमेशा गोपनीय रखने की उनमें सामर्थ्य होती हैं। ऐसे गुणीजन न तो अहसान जताते हैं और न ही दुनिया में ढिंढोरा पीटते हैं। उन्हें तो किसी प्रकार के प्रतिफल की कामना नहीं होती। इसीलिए इन विश्वसनीय लोगों पर अपने हृदय की गहराइयों से भरोसा करना चाहिए। 
            दुविधा होने पर स्वार्थी मित्रों व बन्धुओं के पास जाकर विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए। वे अपने स्वार्थ को सर्वोपरि मानते हैं। हो सकता है उनकी सलाह काम आ जाए पर बाद में उसका ढिंढोरा पीटकर दूसरे के सामने सदा ही अपना अहसान जताकर नाक में दम कर देते हैं। फिर वे सहायता करने का फल भी चाहेंगे और अपने जायज-नाजायज कार्यों की सफलता के लिए सहायता भी चाहेंगे। तब लगता है इनसे यदि परामर्श न लिया होता तो अच्छा था, कम-से-कम अपमानित होने से तो बच जाते।
        जब भी कभी दुविधा की स्थिति हो तो अपने विवेक पर भरोसा करना चाहिए। वह भी हमें उचित निर्णय लेने में सहायता कर सकता है। फिर किसी सज्जन विद्वान की शरण लेनी चाहिए स्वार्थी मित्र या बन्धु की नहीं।  ऐसा करने से हम अपनी परेशानी से उभर सकते हैं तथा पूर्ववत् खुशहाल जिन्दगी जी सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद  

शनिवार, 11 अक्टूबर 2025

खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता

खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता

खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। इसका कारण यह माना जाता है कि खरबूजे के पहले फल के पकने पर उसमें से एथिलिन नामक कोई गैस निकलती है। जैसे ही एक खरबूजा पकता है, उसकी गन्ध वातावरण में फैलने लगती है। पहले आसपास के खरबूजे रंग बदलने लगते हैं। धीरे धीरे पूरा खेत एथेलिन की वजह से रंग बदलने लगता है। उस समय यह मायने नहीं रखता कि खरबूजा 100 ग्राम का है अथवा 1 किलोग्राम का है। उस समय सभी खरबूजे एक ही रंग में नजर आते है।
              यह उक्ति हम मनुष्यों पर बिल्कुल सटीक बैठती है। हम लोग भी खरबूजे की तरह रंग बदलने में माहिर हैं। हम मनुष्य एक-दूसरे की नकल बहुत शीघ्र कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि जिस वातावरण या संगति में मनुष्य रहता है, वैसे ही गुण उसमें भी आ जाते हैं। यदि वह अच्छे लोगों के साथ रहता है तो उसमें भी सद् गुणों का विकास होने लगता है। उनकी अच्छाई, उनका व्यवहार और उनकी सोच उसे प्रभावित करती है।  अपने दोषों को दूर करने की समझ उसमें आने लगती है।
              हम मनुष्य दूसरों के अच्छे कामों को तो बहुत पसन्द करते हैं। जब उन्हें अपनाने की बारी आती है तो हम आनाकानी करने लगते हैं। हम बगलें झॉंकने लगते हैं। तब हम सोचते हैं कि ये सभी कार्य दूसरे लोग करें या दूसरों के घर से इनकी शुरूआत हो। सच्चाई और ईमानदारी की राह बहुत कठिन होती है। इस रास्ते पर चलने वालों को अपेक्षाकृत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस मार्ग पर चलने वाले अन्ततः अपना जीवन सुखपूर्वक व्यतीत करते हैं।
              इसके विपरीत यदि मनुष्य बुरे लोगों के साथ रहते हैं, तो उसमें भी बुरे गुण आ सकते हैं। उनकी बुरी आदतें, उनका नकारात्मक रवैया और उनकी गलत सोच उसे प्रभावित कर सकती है। दूसरों के गलत कार्यों का बिना परिणाम सोचे-समझे हम एकदम से नकल करने लगते हैं। पड़ोसी के घर बेइमानी या रिश्वत का पैसा बहुत आ रहा है और उनकी सुख-समृद्धि में अचानक बढ़ोत्तरी हो रही है। यह बात हम पचा नहीं पाते और चल पड़ते हैं उसी गलत राह पर। इसी प्रकार भ्रष्टाचारी, चोरबाजारी, दूसरों का गला काटकर अपने वैभव को बढ़ाने में हम पलभर भी नहीं गॅंवाना चाहते। इसके लिए हमें कोई भी मूल्य क्यों न चुकाना पड़े। इसका परिणाम कुछ भी होगा देखा जाएगा वाली हमारी प्रवृत्ति बनती जा रही है। बिना सोचे-समझे हम हर जगह अपनी नाक घुसेड़ते रहते हैं।
                पड़ोसी या मित्र के घर नई गाड़ी, बड़ा फ्रिज, बड़ा टीवी, महंगा मोबाइल आदि आ जाएँ या वे नया घर खरीद लें तो हमारे दिन-रात का चैन खो जाता है। पता नहीं  हमारी नाक कैसी है जो जरा सी बात पर कटने लगती है। फिर बस कवायद शुरु हो जाती है उसे खरीदने की चाहे हमारे पास पैसा है या नहीं है। हमें कर्जा भी लेना पड़ेगा तो कोई समस्या नहीं पर हमारी तो नाक ऊँची हो जाएगी। फिर हम बैंक की ओर आशा भरी नजरों से देखते हैं। तब हम अनावश्यक ई. एम. आई. के रूप में अपने ऊपर खर्च का एक और बोझ बढ़ा लेते हैं।
              गिरगिट तो मुसीबत आने पर रंग बदलती रहती है परन्तु हम इन्सान तो पल-पल में अपना रंग बदलते रहते हैं। हमारे लिए हर समय एक जैसा ही रहता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए गधे को भी बाप बनाने में जरा-सा परहेज नहीं करते। उसके लिए खड़े-खड़े पचासों बयान बदल देते हैं जिसकी आवश्यकता ही नहीं होती। चाहे सुनने वाला हमारी मक्कारी समझकर हमारी पीठ पीछे मजाक ही क्यों न उड़ाए। हम सोचते हैं कि अब वह हमारी मुट्ठी में आ गया है। हम सोच लेते हैं कि हमने उसे उल्लू बना दिया है पर यह नहीं समझ पाते हैं कि अनजाने में हमारा ही उल्लू बन गया है। 
               रत्नाकर डाकू (महर्षि वाल्मीकि) साधुओं की संगति में महर्षि बने। उन्होंने कालजयी रामायण की रचना की। क्रूर अगुलीमाल डाकू महात्मा बुद्ध का शिष्य बना। ऐसे कुछ ही लोग होते हैं जो सज्जनों की संगति में आकर अपने कुमार्ग को त्याग कर सन्मार्ग पर आ जाते हैं। इन्हें हम लोग अपवाद के रूप में ही मान सकते हैं।
                इस संसार में प्रायः ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो सच्चाई व ईमानदारी के रास्ते को छोड़कर किसी भी कारण से या लालचवश शार्टकट अपनाने के कारण कुमार्गगामी बन जाते हैं। समय बीतने पर जब उन्हें परेशानियों का सामना करना पड़ता है। जब उनकी पोल खुल जाती है तब वे दुखी हो जाते हैं। न्याय व्यवस्था के अपराधी बन जाते हैं। सबसे नजरें चुराते हुए वे अपने आप को सबसे काटकर अकेला कर लेते हैं। अकेलेपन का दंश झेलने के लिए विवश हो जाते हैं।
               हमें खरबूजे की तरह रंग बदलने वाला इन्सान बनने के स्थान पर अपने असूलों पर डटे रहना चाहिए। जो व्यक्ति अपने नियम-कानून का पालन ईमानदारी से करता है, वही विश्व में पूजनीय होता है। लोग उसे अपने सिर ऑंखों पर बिठाते हैं।‌ हमें अपने विचारों की दृढ़ता बनाए रखनी चाहिए जिससे हमारी अपनी एक संयमित छवि सबके समक्ष आ सके। हम अपना सम्मानित स्थान संसार में बनाए रख सकें।
चन्द्र प्रभा सूद 

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2025

निन्दा रस

निन्दा रस

दूसरों की निन्दा करने में हम सबको बड़ा ही रस मिलता है। इस रस को कहते हैं बतरस। दूसरों के राई जितने दोषों को हम बढ़ा-चढ़ाकर, नमक-मिर्च लगाकर पहाड़ जितना बड़ा बना देते हैं। इस निन्दा पुराण का वाचक महोदय तो आनन्दित होता ही हैं, उसके साथ-साथ श्रोतागण भी आनन्दित होते हैं। दोनों ही पक्ष चटखारे लेकर इस रस का मजा लूटते हैं। लोटपोट होकर वे ताली बजाते हैं।
             विद्वानों का कथन है कि दूसरों की निन्दा करने से बढ़कर कोई और अवगुण नहीं है। जितनी अधिक दूसरों की निन्दा करते हैं, उतने ही हम अपने दोष या पाप बढ़ाते हैं। अर्थात् अपने पापों की गठरी उतनी अधिक बड़ी करते रहते हैं। जिसकी निन्दा करते हैं, उस बेचारे को तो पता ही नहीं होता कि उसकी पीठ पीछे हो क्या रहा है। वह तो अपने जीवन के दैनन्दिन दायित्वों को पूर्ण करने में व्यस्त रहता है और हम अकारण ही अपने दोषों के बोझ को बढ़ाते हैं।
           मनीषी हमें समझाते हुए कहते हैं कि निन्दा रस शराब जैसे नशों से भी अधिक भयावह होता है। यह व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है और उसे नकारात्मकता की ओर ले जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि निन्दा रस एक ऐसा कुटेव है, इससे हमें बचना चाहिए। दूसरों की अच्छाइयों को देखना चाहिए और उनसे सीखकर अपने जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास करना चाहिए। 
           निन्दक प्रायः अपनी कमियों को छुपाने या स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए दूसरों की निन्दा करते हैं। इससे उनकी हीनता की भावना झलकती है।‌ निन्दा रस रिश्तों में दरार पैदा करता है। लोगों में परस्पर अविश्वास और शत्रुता बढ़ाता है। दूसरों की निन्दा करने अथवा सुनने में रस लेना, एक ऐसी दुष्प्रवृत्ति है जिसमें लोग दूसरों की कमियों, गलतियों या बुरे कार्यों की चर्चा करने में समय का दुरुपयोग करते हैं। 
           हम अपने सारे आवश्यक कार्यों को तिलांजलि देकर बस इस क्षुद्र कार्य में व्यस्त होकर जीवन की रेस में पिछड़ते रहते हैं। अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से न निभा पाने के लिए घर-बाहर, कार्यालय आदि में हर ओर से तिरस्कृत होते हैं। हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी ने अपने व्यंग्य निबन्ध 'निन्दा रस' में इस प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है। उनका कथन है कि कुछ लोग दूसरों की निन्दा करके ही अपना जीवन यापन करते हैं।
              विचारणीय बात यह है कि इस निन्दा पुराण की मण्डली में निन्दक धीरे-धीरे अपना विश्वास खो बैठता है। उसके साथी सोचने लगते हैं कि आज यह दूसरों की निन्दा हमारे सामने कर रहा है तो निश्चित ही हमारी निन्दा औरों के सामने करता होगा। चाहे उनकी निन्दा करने का कोई कारण हो या न हो पर आदत से लाचार वह कोई-न-कोई अपने मतलब की बात निकाल ही लेगा और इससे उनकी बदनामी होती रहेगी। धीरे-धीरे यह बात सबकी समझ में आने लगती है।
             उसके वे प्रिय संगी-साथी तब धीरे-धीरे उससे किनारा करने लगते हैं। वह अकेला होते हुए सोचने लगता है कि उसके ऐसे किस दोष के कारण उसकी मित्रता में दरार आ गई है। उसके मित्रों ने उसे अकेला छोड़ दिया। वे उससे कन्नी काटने लगे हैं। वह अपनी निन्दा करने की इस आदत में इतना अधिक रच-बस जाता है कि उसे अपनी गलती समझ ही नहीं आती। अपने इस घृणित कार्य में उसे कोई दोष नहीं दिखाई देता।
              सबसे मजे की बात यह है कि पहले दूसरों की निन्दा करने में अमूल्य समय को नष्ट करने वाले साथी अन्त में यह कहकर एक-दूसरे से विदा लेते हैं- 'किसी को यह बताना मत। हमें क्या लेना-देना दूसरों की फिजूल बातों से। हमने तो बस प्रसंगवश यह चर्चा कर ली है। अब यह बात हम तक सभी तक सीमित रहनी चाहिए।' 
             होता यह है कि जिसकी बुराइयों के पहाड़ बना दिए जाते हैं उसके पास ये सभी बातें कभी-न-कभी तोड़-मरोड़कर पहुँच ही जाती हैं। उस समय चुगलखोर बगलें झाँकने लगता है और व्यर्थ सफाइयाँ देने में जुट जाता है। तब उसकी बहुत किरकिरी होती है। फिर वह महाशय अपना मुँह छिपाते फिरते हैं। सोचिए क्या लाभ हुआ अपना समय व्यर्थ गॅंवाने का और अपने दोस्तों में बदनाम होने का?   
           सदा दूसरों की आलोचना या टीका-टिप्पणी करने में जो अपना बहुमूल्य समय हम बर्बाद करते हैं, उसके स्थान पर कुछ सकारात्मक कार्य करके आत्मोत्थान कर सकते हैं। निन्दा करने में समय बर्बाद करने से अच्छा यही है कि हम दूसरों की अच्छाइयों को देखें और उनसे शिक्षा ग्रहण करें।आत्मविश्लेषण करके हम उस समय का सदुपयोग कर सकते हैं। दूसरों की निन्दा-चुगली करने के स्थान पर हम अपनी कमियों को ढूँढ-ढूँढ कर दूर कर सकते हैं। अपने इस मानव जीवन को व्यर्थ गॅंवाने के दंश से हम मुक्त होने का एक सफल प्रयास कर सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2025

सबके मंगल की कामना

सबके मंगल की कामना

हम उस ईश्वर से क्या मॉंगें जो बिना माँगे ही हमें हर प्रकार से मालामाल कर देता है। दिन हो या रात वह सदा हमारी ही चिन्ता में रहता है। हम उसकी इस दयालुता को समझ पाने में असमर्थ रहते हैं। हमारे ऋषि-मुनि हमें कहते हैं सबके मंगल की कामना की परमात्मा से करो। 
             'बृहदारण्यक उपनिषद' का एक प्रसिद्ध मन्त्र है। निम्न मन्त्र‌ में सभी मनुष्यों के सुखी और स्वस्थ जीवन की कामना की गई है -
      सर्वे भवन्तु सुखिन:
          सर्वे सन्तु निरामया:।
      सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
          मा कश्चित् दुखभाग्भवेत्॥
अर्थात् सभी लोग सुखी रहें, सभी स्वस्थ रहें, सभी कल्याण को देखें और किसी के पास कोई कष्ट न आए।
            यह मन्त्र एक सार्वभौमिक भावना व्यक्त करता है। हम सभी एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं और हम सभी को खुशी और समृद्धि का जीवन जीना चाहिए। सबके मंगल की कामना है का  अर्थ है सभी के कल्याण की इच्छा है। सबका भला हो, यह एक प्रार्थना है जो सभी के अच्छे स्वास्थ्य, खुशी और समृद्धि के लिए की जाती है। यह एक प्रकार से सकारात्मक भावना है जो दूसरों के प्रति सहानुभूति और प्रेम व्यक्त करती है। यह एक लोकप्रिय प्रार्थना है जो अक्सर धार्मिक और आध्यात्मिक सन्दर्भों में कही जाती है।
              यदि ऐसी कामना सभी मनुष्य करने लगें तो स्वार्थ परमार्थ में बदल जाएगा। मैं, मेरा घर, मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरी गाड़ी, मेरा व्यापार आदि की संकुचित भावना से हम ऊपर उठकर हम व्यष्टि (सब) के बारे में सोचेंगे तो निश्चित ही ईश्वर प्रसन्न होता है। वह स्वयं प्राणिमात्र का हित चिन्तक है। उसे स्वार्थी लोग बिल्कुल पसन्द नहीं आते। है। वह सबके साथ एक जैसा व्यवहार करता है। इसलिए वह चाहता है कि उसकी बनाई हुई इस सृष्टि के साथ हम लोग भी वैसा ही व्यवहार करें। किसी के साथ भेदभाव न करें।
            हमारे देश में जो भी समाज सुधारक हुए हैं, उन्होंने समाज की दिशा और दशा बदलने के लिए अपने दिन-रात का सुख-चैन गॅंवाकर कार्य किए। वे सदा यत्न करते रहे कि सभी के हित को साध सकें। वे बिना किसी भेदभाव के निस्वार्थ भाव से मानवता की सेवा में जुटे रहे। इसी प्रकार परोपकारी लोग भी अपने घर-परिवार के साथ-साथ सबकी भलाई के कार्य करते हैं। तभी वे इस संसार में अग्रणी बन जाते हैं और युगों तक स्मरण किए जाते हैं।
              महापुरुष सदा रंग-रूप, जाति-पाति, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब आदि के बन्धनों से परे रहते हैं। सभी इनकी नजर में बराबर रहते हैं। तभी ये लोग समाज में कल्याण के कार्य कर पाते हैं। और हम लोग उनके धैर्य की परीक्षाएँ लेते रहते हैं। कभी उन्हें विष देकर, कभी सूली पर लटका कर, कभी पत्थर मारकर या कभी उन्हें अपमानित करके सुकून महसूस करते हैं और उनके इस दुनिया से विदा लेने पर उनकी प्रशंसा में गीत गाते हैं।
             कबीरदास जी इसी तरह सबके मंगल की कामना करते हुए कहते हैं-
      कबीरा खड़ा बाजार में मांगे सबकी खैर।
      न  काहू से  दोस्ती  और न  काहू से बैर॥
अर्थात इस संसार रूपी मण्डी में कबीरदास जी सबका हित चाहते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। उन्हें न किसी से शत्रुता है और न ही मित्रता है। सभी उनके अपने हैं, कोई भी पराया नहीं।
             'महोपनिषद' में कहा गया यह मन्त्रॉंश हमारी महान भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण नैतिक मूल्य माना जाता है -
               वसुधैव कुटुम्बकम्
अर्थात् सम्पूर्ण पृथ्वी हमारा परिवार है। यह कहकर हमारे शास्त्रों ने हम लोगों को अनुशासित करने का प्रयास किया है। यह एक दार्शनिक अवधारणा है जो सार्वभौमिक भाईचारे और एकता के विचार को बढ़ावा देती है। 
             इस प्रकार यदि हम सभी प्राणियों का हित साधने के लिए ईश्वर से याचना करेंगे तो हम भी उन सबमें आ जाएँगे। तब हमें स्वयं के लिए अलग से मॉंगने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। हमारे मन को असीम शान्ति का अनुभव होगा जिसके लिए हम तथाकथित साधु-सन्तों के पास जाते हैं। तीर्थ स्थानों पर जंगलों में भटकते रहते हैं। जंगलों की खाक छानते हैं। परन्तु वह मन की शान्ति हमें कहीं नहीं मिलती।
              हमें ईश्वर से भौतिक सुख-समृद्धि न मॉंगकर धैर्य, जिजीविषा, सद् बुद्धि और परोपकार की शक्ति आदि की कामना करनी चाहिए। ऐसी विद्या मॉंगनी चाहिए जो हमें प्रभु तक हमें पहुँचा सके। इन सबके साथ ही हमें हर समय और हरपल उसकी उपासना करने की सामर्थ्य की याचना करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

बुधवार, 8 अक्टूबर 2025

मेरे मन कुछ और है मालिक के मन और

मेरे मन कुछ और है मालिक के मन और

हम सबके जीवन में प्रायः ऐसे क्षण आते हैं कि जब हम कल्पना कुछ करते हैं और परिणाम विपरीत आ जाता है। तब हम हक्के-बक्के से रह जाते हैं। हम बस योजनाऍं ही बनाते रहे जाते हैं और हमारी योजनाओं पर पानी फिर जाता है। वे सब धरी की धरी रह जाती हैं। उस समय न चाहते हुए भी हमें अपरिहार्य स्थितियों का सामना करना पड़ता है। हमें समझ ही नहीं आता कि आखिर हमारे साथ क्या हो रहा है? उस समय यही कह सकते हैं -
       मेरे मन कुछ और है मालिक के कुछ और
         इस उक्ति को कहने का तात्पर्य यही है कि हम अपने मन से कुछ भी सोच सकते हैं, कार्य कर सकते हैं, होगा वही जब ईश्वर चाहेगा। तुलसीदास जी ने भी कहा था -
       होइहि सोइ जो राम रचि राखा
इसका अर्थ भी यही है कि जो कुछ भगवान श्रीराम जी ने पहले से ही रच रखा है, वही होगा। 
         दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ईश्वर ने पहले ही हमारे लिए सब कुछ निर्धारित किया हुआ है। यानी अपने कर्मों के द्वारा जन्मों-जन्मों में हम जो कमाते हैं, वही हमारा प्रारब्ध होता है। उसी के अनुसार हम फल प्राप्त करते हैं। यहॉं एक बात स्पष्ट कर दूॅं कि ईश्वर के मन में किसी जीव के लिए कोई दुर्भावना नहीं है। फिर भी हम सदा ही उसे दोष  देते रहते हैं। अपने गिरेबान में झॉंककर देखना ही नहीं चाहते।
         हम मनुष्य तो सदा ही ऊँची उड़ान भरना चाहते हैं पर वह मालिक जानता है कि हम मुँह के बल गिर जाएँगे या हमारे पंख जल जाएँगे। इसीलिए वह हमारी रक्षा करने के लिए हमें झटका दे देता है। उसकी महिमा को हम अज्ञानी नहीं समझ पाते। हम बस मात्र अपने स्वार्थो की पूर्ति करना चाहते हैं। तभी तो हम हमेशा उसकी महानता को अनदेखा करके उसे पानी पी-पीकर कोसते हैं और अपना शत्रु तक मान बैठते हैं। जबकि वह परमपिता तो खुले मन से बाहें पसार कर कदम-कदम पर हमारी रक्षा ही करता है।
            वह हमें दुनिया में भेजने के पश्चात हमारी सारी आवश्यकताओं को हमारे कहे बिना कहे ही पूर्ण कर देता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इतने एहसान हम पर करता है पर हमें जताता भी नहीं है। इसके विपरीत यदि किसी मनुष्य पर हम राई जितना उपकार करते हैं तो उसे पहाड़ जितना बढ़ा-चढ़ाकर हर जगह गाते फिरते हैं। हम उस व्यक्ति से यही आशा करते हैं कि जीवन भर वह हमारे अहसान के बोझ के नीचे दबा रहे और हमारे सामने अपनी नजर नीची रखे। 
          वह मालिक अपने मन से जीवन पर्यन्त पहाड़ जितने उपकार हम पर करता रहता है परन्तु कभी उनका अहसास तक नहीं कराता। हम हर समय झोली पसारे उससे धन-दौलत, अच्छा स्वास्थ्य, आज्ञाकारी संतान, सुख-समृद्धि, अच्छी नौकरी या खूब चलता व्यापार, उच्च शिक्षा, बढ़िया-सी गाड़ी, बड़ा-सा बंगला, नौकर-चाकर आदि न जाने क्या-क्या माँगते रहते हैं। फिर भी उसी का तिरस्कार करते हैं, उसकी कद्र नहीं करते। कभी सोचिए कि हम कितना गलत सोचते हैं और इसका प्रायश्चित कीजिए।
          दुनिया में रहते हुए कभी कोई पारिवारिक जन, मित्र, सम्बन्धी, पड़ोसी या कोई अन्य व्यक्ति हमारी सहायता करता है, तो पचासों बार हम उसका धन्यवाद करते हैं और उसकी प्रशस्ति में  गाते नहीं थकते। परन्तु उस प्रभु का जो झोलियाँ भरकर, बिन माँगे ही हमें सारी नेमते देता रहता है, उसका न तो हम कभी धन्यवाद करते हैं और न ही कभी उसकी स्तुति करते हैं। यहाँ हम अनायास कंजूस हो जाते हैं। हालांकि वह हमारे मन में आने वाली छोटी-छोटी इच्छाओं को भी देर-सवेर पूरा कर देता है।
           हमें यह अहसास ही नहीं होता कि हमें उस मालिक का सच्चे मन से गुनगान करना चाहिए। मनीषी कहते हैं कि यदि हम सुख में परमपिता का याद करें, तो दुख हमारे पास नहीं आएँगे। कहने का तात्पर्य यह है कि हम बिना दिखावे के अपने हृदय की गहराइयों से, मन की भावना से मालिक का स्मरण करेंगें, तो दुख या शूल भी हमारे लिए फूल की भाँति बन जाएँगे। हमें उनसे कष्ट नहीं होगा बल्कि वे हमारे मार्गदर्शक बनकर हमें उन्नति के पथ पर ले चलेंगे।
          वह एक दाता सब जीवों को उनकी योग्यता व पूर्वजन्मों के कृत कर्मों के अनुसार समय-समय पर देता रहता है। हम सब कुछ शीघ्र प्राप्त कर लें, इस कारण उतावले रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता। भाग्योदय का समय जब आ जाएगा तब हम यदि मिट्टी को भी हाथ लगाएँगे, तो वह भी सोना बन जाएगी। अतः समय की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी चाहिए और अपने परमपिता परमात्मा पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। वह कभी हमें निराश नहीं करेगा। 
           हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मानुसार वह हमारी सभी मनोकामनाओं को समय से पूर्ण कर देता है। उसके घर में देर हो सकती है पर अंधेर नहीं हो सकता। इसके लिए कारण हमारे अपने शुभाशुभ कर्म होते हैं। अपने अन्तर्मन की गहराइयों से अपनी त्रुटियों के लिए क्षमायाचना करते हुए उस प्रभु के समक्ष विनत हो जाना चाहिए। वही भव सागर से पार लगाएगा और माता के समान अपनी गोद में स्थान देगा।
चन्द्र प्रभा सूद