शास्त्रों में बताए स्वच्छता के नियम
हमारे महान पूर्वज अत्यन्त दूरदर्शी थे। हमारे ग्रन्थों में पूर्ण रूप से स्वच्छता के नियमों का पालन करने का स्पष्ट निर्देश दिया गया है। इनकी अनुपालना हमें सदैव करनी चाहिए। इससे कई बिमारियों से बचा जा सकता है। बहुत से लोग इन सब बातों को ढकोसला कहकर अनदेखा करते हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं कि स्वास्थ्य के इन नियमों को मानकर वे किसी पर अहसान नहीं कर रहे बल्कि अपने जीवन के लिए खुशियॉं बटोर रहे हैं। हमारे दैनिक जीवन के लिए उपयोगी इन सूत्रों पर विचार करते हैं।
कुछ समय पूर्व इन श्लोकों को मैंने कहीं पढ़ा था। वहॉं पर इनके संग्रहकर्ता का नाम नहीं लिखा हुआ था। मैं उस महानुभाव के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए इन उद्धरणों को प्रस्तुत करती हूॅं। साथ ही इन पर अपनी टिप्पणी देती हूॅं।
हम लोग रसोई में काम करते हुए अंदाज से ही मसाले आदि अपने हाथों से बर्तन में डाल देते हैं। बहुत से लोग खाद्य पदार्थों को भी अपने हाथ से ही परोसते हैं। 'धर्मसिन्धु' नामक ग्रन्थ ने हमें इस विषय पर समझाते हुए कहा है -
लवणं व्यञ्जनं चैव घृतं तैलं तथैव च।
लेह्यं पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत्।।
- धर्मसिन्धु 3पू. आह्निक
अर्थात् नमक, घी, तेल अथवा कोई अन्य व्यंजन, पेय पदार्थ या फिर कोई भी खाद्य पदार्थ चम्मच से परोसने चाहिए, हाथों से नहीं। हाथ से परोसता गया वह खाने के योग्य नहीं रह जाता।
कहने का तात्पर्य यह है कि नमक, घी, तेल, चाटने-पीने के पदार्थ अथवा कोई भी व्यंजन अगर हाथ से परोसा गया हो, तो उसे नहीं खाना चाहिए।इन चीजों को चम्मच से परोसकर ही खाना चाहिए। ताकि हाथों में लगे कीटाणु शरीर में प्रवेश न करने पाऍं। चाहे कितना भी हाथों को धो लिया जाए और यह कहा जाए कि हमारे हाथ साफ हैं, उनमें कुछ भी नहीं लगा है। चलिए इस बात को मान भी लिया जाए पर हाथ से परोसता हुआ देखने में दूसरे को घिन आती है। इसलिए सदा सर्विंग स्पून से ही भोजन को परोसना चाहिए।
वैज्ञानिक दृष्टि से यह सत्य है कि अपने अंगों यानी ऑंख, नाक और कान आदि अंगों को अनावश्यक स्पर्श नहीं करना चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह उचित नहीं होता। सार्वजनिक स्थानों पर तो विशेष कर इन अंगों को छूने से बचना चाहिए। देखने वाले के मन में भी घृणा का भाव आता है। इसलिए 'मनुस्मृति' 4/144 में मनु महाराज ने चेतावनी देते हुए यह कहा है -
अनातुरः स्वानि खानि न स्पृशेदनिमित्ततः।
अर्थात् अपने शरीर के अंगों जैसे आँख, नाक, कान आदि को बिना किसी कारण के छूना नहीं चाहिए।
अब हम चर्चा करेंगे 'मार्कण्डेय पुराण' 34/52 की। व्यास जी ने स्पष्ट रूप से कहते हैं कि एक बार जिन वस्त्रों को पहन लिया है, उन्हें बिना धोए दुबारा नहीं पहनना चाहिए।
अपमृज्यान्न च स्न्नातो गात्राण्यम्बरपाणिभिः ।।
अर्थात् एक बार पहने हुए वस्त्र धोने के पश्चात ही पहनने चाहिए। स्नान के बाद अपने शरीर को शीघ्र सुखाना चाहिए।
इस कथन के पीछे शारीरिक हाइजीन की बात कही गई है। प्रतिदिन स्नान करने के उपरान्त स्वच्छ वस्त्र पहनने चाहिए। कुछ लोग कई दिनों तक बिना धोए वस्त्र पहनते हैं। शायद वे नहीं जानते कि देखने वालों को उनके कपड़ों में लगी मैल देखकर बहुत नफरत होती है। बहुत दिनों तक पहने उन कपड़ों में से प्रायः दुर्गन्ध भी आने लगती। यह सचमुच बहुत क्षुब्ध करने वाला होता है।
'विष्णुस्मृति:' 64 में भी इसी तथ्य पर बल दिया गया है -
न अप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं बिभृयाद् ।।
अर्थात् एक बार पहने हुए वस्त्रों को धोकर स्वच्छ करने के पश्चात ही दूसरी बार पहनना चाहिए।
'महाभारत अनु' 104/86 में दूसरे द्वारा पहने गए वस्त्रों को न पहनने पर बल दिया है।
तथा न अन्यधृतं (वस्त्रं धार्यम्)
इससे यही समझ सकते हैं कि एक व्यक्ति ने वस्त्र पहनने के उपरान्त उतार दिए और फिर बिना धोए दूसरे व्यक्ति ने उन्हें पहन लिया। यह सचमुच हाइजीन के विरुद्ध है। इस प्रकार करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
इससे भी बढ़कर' पद्म० सृष्टि' 51/86 का कथन है -
न धारयेत् परस्यैवं स्न्नानवस्त्रं कदाचन ।I
अर्थात् स्नान के बाद अपने शरीर को पोंछने के लिए किसी अन्य के द्वारा उपयोग किया गया वस्त्र यानी टॉवेल का उपयोग नहीं करना चाहिए।
'गोभिलगृह्यसूत्र' 3/5/24 में यह निर्देश दिया गया है कि गीले वस्त्र न पहनें -
न आद्रं परिदधीत।
कहने का तात्पर्य यह है कि स्नान करने के उपरान्त यदि बिना शरीर सुखाए गीले वस्त्र पहन लिए जाऍं तो त्वचा से सम्बन्धित रोग होने की सम्भावना बनी रहती है। इसलिए गीले वस्त्र अथवा गीले शरीर पर वस्त्र पहनने से बचना चाहिए।
अन्यत्र 'महाभारत अनु' 104/86 में यह बताया गया है कि पूजा करने, सोने और घर से बाहर जाते समय अलग-अलग वस्त्रों को प्रयोग में लाना चाहिए।
अन्यदेव भवद्वासः शयनीये नरोत्तम।
अन्यद् रथ्यासु देवानाम अर्चायाम् अन्यदेव हि।।
इसका यही अर्थ समझ में आता है कि एक ही बार के पहने वस्त्रों को हर स्थान पर नहीं पहनना चाहिए। हर अवसर पर भिन्न-भिन्न वस्त्रों को उपयोग में लाना चाहिए।
'वाघलस्मृति:' 6 में स्नान किए बिना कर्म न करने पर बल दिया है -
स्नानाचारविहीनस्य सर्वाः स्युः निष्फलाः क्रियाः।
अर्थात् बिना स्नान व शुद्धि के यदि कोई कर्म किये जाते हैं तो वो निष्फल रहते हैं।
यहॉं कर्म से तात्पर्य धार्मिक कार्य यानी पूजा-अर्चना आदि आत्मशुद्धि के लिए किए जाने वाले कार्यों से है।
'पद्म०सृष्टि' 51/88 में समझाया गया है कि जब भी भोजन के लिए बैठें तो पहले हाथ, मुॅंह तथा पैरों को धो लेना चाहिए।
हस्तपादे मुखे चैव पञ्चाद्रे भोजनं चरेत्।
'सुश्रुतसंहिता' में भी सुश्रुत जी ने इसी बात का समर्थन किया है कि अपने हाथ, मुॅंह व पैर स्वच्छ करने के बाद ही भोजन करना चाहिए।
नाप्रक्षालितपाणिपादो भुञ्जीत।
यह दोनों वक्तव्य हमें यही चेतावनी दे रहे हैं कि हम अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो जाऍं। कहीं बाहर से आने पर तो यह आवश्यक है कि हम अपने मुॅंह, हाथ और पैर में लगे अदृश्य कीटाणुओं से इनकी रक्षा करें। पता नहीं बाहर हम किन किन वस्तुओं का स्पर्श करते हैं। वहॉं से आने वाले कीटाणु शरीर के लिए घातक हो सकते हैं।
हमारे प्राचीन धर्म ग्रन्थों में समय-समय पर हम भारतवासियों को अनेक वर्षों पूर्व स्वास्थ्य के नियमों का पालन करते हुए सावधानियॉं बरतने का आदेश दिया गया था। हम लोग ही अज्ञानतावश स्वास्थ्य के इन अमूल्य नियमों को भूल गए थे। इन्हें अपनाकर हम अपनी व्यक्तिगत स्वच्छता को बनाकर रख सकते हैं। यह विचारणीय है कि हमारे महान मनीषियों ने अपनी दूरदर्शिता से उस समय ये सब निर्देश दिए थे जब आधुनिक काल की भॉंति माइक्रोस्कोप नहीं होते थे।
इस विश्लेषण से एक बात और स्पष्ट होती है कि हमारे यहॉं स्वच्छता के लिए बनाए गए इन नियमों का पालन हमारे पूर्वज किया करते थे, तभी वे नीरोगी रहते थे। यदि हम लोग अपने पूर्ववर्ती ऋषियों द्वारा बताए गए आज भी प्रासंगिक इन सुझावों को अपने जीवन में ढाल लेते हैं और सदाचरण का अभ्यास करते हैं तो बहुत-सी परेशानियों से बच सकते हैं। मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप सुधीजन भी इससे सहमत होंगे।
चन्द्र प्रभा सूद
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