शुक्रवार, 20 जून 2025

अपने मुॅंह मियॉं मिट्ठू बनना

अपने मुॅंह मियाॅं मिट्ठू बनना 

मानवीय कमजोरी है कि किसी भी क्षेत्र में उसे अपने बराबर कोई दूसरा व्यक्ति नहीं दिखाई देता। अपने अतिरिक्त उसे सभी लोग बौने प्रतीत होते हैं। इसलिए वह अपने गुणों का बखान बढ़ा-चढ़ा कर करता है और अपने दोषों को सदा नजरअंदाज करता है। इसके विपरीत दूसरे के गुण उसे नगण्य प्रतीत होते हैं। दूसरों के राई जितने दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर बताने में उसे बहुत ही आत्मिक सुख का अनुभव होता है।  
           भर्तृहरि जी 'नीतिशतकम्' ग्रन्थ में बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है -
        परगुण परमाणून् पर्वती कृत्य नित्यं 
      निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः।
अर्थात् परमाणु के समान दूसरों के गुणों को पहाड़ जितना बड़ा करके अपने हृदय में विकसित करने वाले महान पुरुष कितने हैं। दूसरे शब्दों में ऐसे लोग बहुत कम हैं।
           इस बात को हम ऐसे भी कह सकते हैं कि हम दूसरों की कमियों को उजागर करने में कोई कोर-कसर नहीं रखना चाहते। उन्हें नमक-मिर्च लगाकर चटकारे लेकर सुनाते हैं। हम हमेशा इस बतरस का आनन्द उठाते हैं। परन्तु जब अपनी बारी आती है तो हम उसे सहन नहीं कर पाते। तब सामने वाले को भला-बुरा कहकर या गाली-गलौच करके अपने मन की भड़ास निकालते हैं। कभी-कभी तो हम उससे अपना सम्बन्ध तोड़कर किनारा ही कर लेते हैं।
              वैसे देखा जाए तो इन्सान गलतियों का पुतला है। जाने-अनजाने पता नहीं वह कितनी गलतियाँ करता रहता है। उनका प्रायश्चित्त भी उसे करना पड़ता है। कभी-कभी उसे उनका मूल्य भी चुकाना पड़ता है। यदि कबीरदास जी के निम्न दोहे को याद रखा जाए तो मनुष्य दूसरों के छिद्रान्वेषण करने के बजाय अपनी कमियाँ देखेगा-
     बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोए।
     जो दिल खोजा आपना मुझसे बुरा न कोए॥
अर्थात् जब मैं बुरे व्यक्ति को ढूॅंढने निकला तो मुझे कोई बुरा मनुष्य मिला ही नहीं। परन्तु जब मैंने अपने हृदय में झॉंककर देखा तो ज्ञात हुआ कि मुझसे बुरा कोई अन्य व्यक्ति है ही नहीं।
            कहने का तात्पर्य यह है कि स्वयं को खोजने पर ही ज्ञात होता है कि हम बहुत-सी गलतियाँ करते रहते हैं और बार-बार उन्हें दोहराते भी हैं। यदि इन्सान गलती न करे तो वह भगवान बन जाएगा। भगवान हर दोष एवं हर विकार से परे होता है। परन्तु मनुष्य चाहकर भी दोषों-विकारों से मुक्त नहीं हो पाता। कभी लालचवश और कभी स्वार्थवश वह अपने रास्ते से भटककर दोषी बन जाता है।
           समस्या केवल यह है कि दूसरों की निन्दा करना हमें अपना शगल लगता है। इस बात को हम भूल जाते हैं कि दूसरे की ओर जब हम एक अंगुली उठाते हैं तो बाकी चार अंगुलियाँ हमारी अपनी ओर उठी रहती हैं। जिसका सीधा-सा तात्पर्य है कि वे हमें चेतावनी दे रही हैं कि हम संभल जाएँ क्योंकि दूसरों की बनिस्बत हम चार गुणा अधिक गलतियाँ कर रहे हैं। फिर भी हम इस बात को समझ नहीं पाते। दुर्भाग्यवश हम पुनः पुनः उन्हीं गलतियों को दोहराते हैं।
             कबीरदास जी ने निम्न दोहे में हमें समझाया है कि निन्दा करने वाले से घबराना नहीं चाहिए उसे अपने बहुत पास रखना चाहिए-
       निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाए।
      पानी औ साबुन बिना निर्मल करे सुभाए॥
अर्थात् निन्दा करने वाले मनुष्य को अपने पास , अपने ऑंगन में कुटिया बनाकर रखना चाहिए। वह पानी और साबुन के बिना ही हमारे स्वभाव को निर्मल बना देता है।
             यानी निन्दक दूसरों को उनकी कमियाँ बताकर उन्हें सुधराने का कार्य करता है। वैसे तो सफाई का कार्य साबुन और पानी से करते हैं पर निन्दक हमारा शुभचिन्तक होता है। वह उनके बिना ही हमारे स्वभाव को निर्मल बना देता है।
           दूसरों के दोषों का ढिंढोरा पीटते हुए मनुष्य स्वयं की बुराइयों को भूल जाता है। वह एक के बाद एक गलती करता रहता है। दूसरे तो अपनी गलती को सुधारने का प्रयत्न कर लेते हैं पर वह अपनी ही धुन में रहता हुआ पतन की ओर बढ़ता है। अपने दोषों पर गहरी नजर रखकर उन्हें दूर करने का प्रयास करना समझदारी है। दूसरों की निन्दा-चुगली में अपना समय बर्बाद न करके सकारात्मक कार्यों में अपना बहुमूल्य समय व्यतीत करना चाहिए। इसी में हमारा हित निहित है। इससे हम अपना सर्वांगीण विकास कर सकते हैं। 
            दूसरे लोगों की निन्दा-चुगली करने से  अपना हृदय मलिन होता है और अपनी ऊर्जा भी नष्ट होती है। ऐसे नकारात्मक मनुष्यों से ईश्वर कदापि प्रसन्न नहीं होता। अत: आत्मोत्थान करने वाले लोगों को इस बुराई से यथासम्भव बचकर रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

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