बुधवार, 11 जून 2025

मृत्यु का सत्य

मृत्यु का सत्य

यह संसार मृत्युलोक कहलाता है। इसे असार संसार भी कहते हैं। यहाँ रहने वाला प्रत्येक जीव मरणधर्मा कहलाता है। मरणधर्मा का अर्थ है- जो भी जीव इस संसार में आया है उसकी मृत्यु निश्चित है। कहने का तात्पर्य है कि हर जीव चाहे वह मनुष्यहै, पशु-पक्षी है, जीव-जन्तु है अथवा पेड़-पौधा कुछ भी है, निश्चित समय के उपरान्त उसे इस दुनिया से विदा ही लेनी पड़ती है। यह सृष्टि का अटल नियम है। इस नियम को कोई भी बदल नहीं सकता।
           किसी के चाहने अथवा न चाहने से यहाँ कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस सृष्टि के अटल नियम को किसी के लिए भी बदला नहीं जा सकता। न ही किसी जीव को इसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार है। हमारे बनाए नियम लचीले होते हैं जिन्हें हम अपनी सुविधा से स्वार्थवश किसी के लिए भी तोड़-मरोड़ लेते हैं। ईश्वर के नियम पक्षपात रहित होते हैं -
        सर्वजन सुखाय' व 'सर्वजन हिताय' 
अर्थात् ईश्वरीय नियम सभी लोगों के सुख के लिए और हित के लिए होते हैं। इसीलिए ये ईश्वरीय नियम अटल कहे जाते हैं। हमारे ग्रन्थ ऐसा कहते हैं- 
              जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:। 
अर्थात् इस धरती पर जिस भी जीव का जन्म होता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। जल में रहने वाले (जलचर), आकाश में रहने वाले (नभचर) और पृथ्वी पर रहने वाले (भूचर)- सभी को जीव कहते हैं। सभी जीवों का अन्तकाल उनके जन्म से पूर्व ही उसके कर्मों के अनुसार निर्धारित होता है। इसी बात  को तुलसीदास जी ने कहा है - 
        प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर।
       तुलसी चिन्ता क्यों करे भज ले श्रीरघुवीर।।
          हम अपने जीवनकाल में जो भी अच्छे या बुरे कर्म करते हैं, वे सब हमारे सूक्ष्म शरीर के साथ ही जन्म-जन्मान्तर तक हमारे साथ रहते हैं। जब तक हम उन्हें भोग नहीं लेते तब तक वे समाप्त नहीं होते। सभी भौतिक सम्बन्ध और यह पंचमहाभूतों से बना यह शरीर मृत्यु के पश्चात यहीं इस लोक में रह जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार उसे अग्नि के हवाले कर दिया जाता है। तब ये सभी पंचमहाभूत अपने-अपने अंश में जाकर मिल जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ धर्मावलम्बी मृत शरीर को मिट्टी में दफना देते हैं। 
            मेरा ऐसा मानना है कि हमारे इस भौतिक शरीर में ही एक सूक्ष्म शरीर होता है। उसे हम इन भौतिक चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकते। हमारे ग्रन्थों का कहना है कि इस सूक्ष्म शरीर को देखने के लिए यम-नियम आदि यौगिक क्रियाओं का पालन करते हुए कठोर साधना करनी पड़ती है। तभी उसे केवल ज्ञान चक्षुओं से खोजा जा सकता है। यद्यपि यह कठोर साधना करना बहुत कठिन कार्य होता है। उसे कोई विरला ही कर सकता है।
           हो सकता है कुछ सुधीजन मुझसे असहमत हों। परन्तु जन साधारण के समझने के लिए सार रूप में हम यही कह सकते हैं। शायद इसीलिए हम लोगों को जागरूक करने हेतु ही परिकल्पना की गई है कि चित्रगुप्त देवताओं के लेखपाल हैं और यमराज के सहायक के रूप में जाने जाते हैं। वे सभी जीवों के कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के अनुसार फल प्राप्त हो। ऐसी मान्यता है कि जब मनुष्य की मृत्यु होती है तब चित्रगुप्त उसके शुभाशुभ कर्मों को पढ़कर सुनाते हैं। उसी के अनुसार जीव को स्वर्ग या नरक पहुॅंचा दिया जाता है। स्वर्ग-नरक, यमराज आदि का डर हमारे हृदयों में भरा गया ताकि लोग गलत काम करने से डरें। अपने अन्तकाल के विषय में सोचें व अपने हृदय में स्थित ईश्वर को सदा याद करें।
          इस लोक में रहते हुए हम कर्म करने में काफी हद तक स्वतन्त्र हैं परन्तु कर्मफल भोगने के लिए ईश्वर के अधीन हैं। हमारे चाहने या ना चाहने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। हमारे पूर्वजन्म कृत शुभाशुभ कर्मों के अनुसार दिया गया वह फल तो हमें भोगना ही पड़ता है। हम चाहे कितनी ही चीख-पुकार क्यों न लगाऍं परन्तु हमें किसी प्रकार की कोई राहत नहीं मिलती है।
           अपने जीवनकाल में और मृत्यु के उपरान्त यदि हम अपना इहलोक अथवा परलोक सुधारना चाहते हैं तो हमें संकल्पशील होकर विचार करना होगा। मृत्यु अवश्यंभावी है इससे किसी को छूट नहीं मिल सकती। फिर चाहे भगवान ही मनुष्य रूप में अवतरित होकर इस पृथ्वी पर क्यों न आ जाएँ। उन्हें भी इसी क्रम का भागीदार बनना पड़ता है। उन्हें किसी प्रकार की छूट दिए जाने का प्रावधान नहीं है। यही जीवन और मृत्यु का सत्य है। सभी जीवों को इस आवागमन की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है जब वे अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त नहीं कर लेते।
चन्द्र प्रभा सूद 

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