बुधवार, 18 जून 2025

स्वेच्छिक अकेलापन

स्वेच्छिक अकेलापन

अपने जीवन साथी की मृत्यु के वियोग में, स्वेच्छा से स्वीकृत किया गया अथवा तलाक के बाद होने वाला अकेलापन स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही भयावह होता है। जीवन में सभी को अपने जीवन साथी का वियोग सहना पड़ता है किसी को कम समय के लिए और किसी को अधिक वर्षों के लिए। यह सम्बन्ध अन्य भौतिक सम्बन्धों की तरह हमारे कर्मों के अनुसार ही होता है। पति-पत्नी का यह साथ ईश्वर की ओर से ही निर्धारित होता है। इसलिए जितना-जितना साथ निभाने का समय हमें मिलता है, उतना भर निभा कर हम इस संसार से विदा ले लेते हैं। बहुत कम भाग्यशाली पति-पत्नी के जोड़े होते हैं जिन्हें एक दूसरे का वियोग नहीं सहना पड़ता बल्कि एक साथ एक ही समय पर वे इस दुनिया से विदा लेते हैं।
           जीवन साथी की मृत्यु यदि आयु बीतने पर वृद्धावस्था में होती है तो अकेलापन अधिक गहराने लगता है। बच्चे अपने-अपने कार्यों में व्यस्त रहते हैं। वे अपनी जिम्मेदारियों में उलझे रहते हैं। ऐसे में वे अधिक समय तक उनके साथ बैठकर उनका अकेलापन बाँट नहीं सकते। हाँ, यदि साथी का बिछोह युवावस्था में हो तो कुछ लोग पुनर्विवाह कर लेते है। वे अपने लिए साथी तलाश लेते हैं तो अन्य अकेले रहकर अपनी व बच्चों की जिम्मेदारी उठाते हैं। पर जीवन में आया यह खालीपन उन्हें सदा टीसता रहता है।
              विवाहोपरान्त होने वाली असह्य स्थितियों के चलते पति-पत्नी दोनों अपने झूठे अहं के कारण जब आपस में परस्पर सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते तब अनेक समस्याएँ मुँह बाये खड़ी हो जाती हैं। उनको सुलझाने के स्थान पर उनके लिए तलाक ही अन्तिम मार्ग होता है। इनमें से भी कुछ पुनर्विवाह करके पुनः अपने नये साथी के साथ घर बसा लेते हैं और अपना अकेलापन दूर करते हैं। इसके विपरीत कुछ अन्य लोग जीवन के कटु अनुभवों के कारण अकेले रहना पसन्द करते हैं। वे अपना सारा जीवन एकाकीपन से झूझते हुए व्यतीत करते हैं।    
           आजकल अकेले रहना भी फैशन में शामिल हो रहा है। युवावर्ग जीवन की आपाधापी और कैरियर बनाने में इतना अधिक व्यस्त होता जा रहा है कि उसके पास विवाह के विषय में सोचने का समय ही नहीं है। उनके लिए यह फालतू के झमेले हैं। इससे वे बचना चाहते हैं। दिन-रात की मारधाड़ में किसी दूसरे के बारे में वे नहीं सोचते। अपने व्यस्त कार्यक्रम में उन्हें किसी साथी की कमी भी शायद महसूस नहीं होती। 
            आयु बीतने पर एक समय ऐसा आता है जब वे सारी सुख-सुविधाओं के होते हुए भी अकेले रह जाते हैं। आयु प्राप्त माता-पिता संसार से विदा ले चुकते हैं और भाई-बहन अपनी-अपनी घर-गृहस्थी में मस्त होते हैं।
           यह अकेलापन चाहे मजबूरी का सौदा हो या स्वैच्छिक चुनाव हर स्थिति में कष्टदायक होता है। स्वयं तो मनुष्य इससे पीड़ित रहता है पर समाज में रहते हुए भी अनेक परेशानियाँ होती हैं। आयु प्राप्त लोगों को सिर्फ समय बिताने की समस्या होती है उनके मान-सम्मान में कमी नहीं होती। इसीलिए पुरुष आपको यदाकदा इधर-उधर ताश खेलते या गप-शप करते नजर आते होंगे।
            युवाओं के लिए समय बिताने की समस्या का हल थोड़ा अलग होता है। वे किसी कलब के सदस्य बन सकते हैं या पर्यटन कर सकते हैं। पर ये मंहगे शौक हैं जो हर कोई नहीं पाल सकता। सामाजिक कार्यों में हर आयु के लोग स्वयं को व्यस्त रख सकते हैं।
            प्रायः अकेले युवाओं का अपने घर में आना मित्र या सम्बन्धी पसन्द नहीं करते। एकाध बार तो उनका स्वागत होता है पर बार-बार नहीं। उसका कारण है कि जिस के घर जाओगे उसकी अपनी पारिवारिक व सामाजिक व्यस्तताएँ होती है। उन लोगों के आने से वे बाधित होती हैं। इसका एक अन्य कारण है कि पुरुष मित्र सोचते हैं कि उनका मित्र उनकी पत्नी के साथ कहीं सम्बन्ध न बना ले अथवा उसकी पत्नी मित्र से अधिक प्रभावित न हो जाए। इसी तरह स्त्री को भी अपनी स्त्री मित्र के घर आने पर परेशानी होती है। सम्बन्धियों को भी ऐसा ही लगता है कि ये तो अकेले हैं पर ऐसा न हो कि हमारे अविवाहित बच्चे इनके साथ अपना अनैतिक सम्बन्ध न बना लें। 
           समाज की यह सोच है जिसे हम चाहते हुए भी बदल नहीं सकते। इसलिए युवाओं को इस पर विचार अवश्य करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

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