शनिवार, 7 जून 2025

लेखन एक साधना

लेखन एक साधना

लेखन वह साधना है जिसे साधकर लेखक या कवि दिशादर्शन का कार्य करता है। साधना करने का अर्थ साधु-संन्यासी बनकर धूनी रमाकर बैठ जाना नहीं है। बल्कि एक रचनाकार को सदा अपना कदम फूँक-फूँक कर रखना चाहिए। जो जितनी साधना करता है, वह उतना ही महान रचनाकार बनता है। युगों-युगों तक उसका नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है। 
          साधना शब्द का मैंने प्रयोग किया है जिसका तात्पर्य यह है कि हर रचनाकार को अधिक से अधिक स्वाध्याय करना चाहिए। अपने सद् ग्रन्थों व पुरातन रचनाकारों की रचनाओं के साथ-साथ समकालीन लेखकों का भी गहनता से अध्ययन करना चाहिए। यदि वह ऐसा करता है तो उसके साहित्य को पढ़ने वालों को भी आत्मिक सन्तोष मिलता है।
            डाकू वाल्मीकि व महामूर्ख कहे जाते कालिदास विद्वानों की संगति में रहकर प्रकाण्ड पण्डित बने, ये प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वाल्मीकि ने घर-घर में पूजनीय भगवान राम का चरित्र लिखा। महाकवि बनकर कालिदास ने कालजयी ग्रन्थ लिखे जो विश्व की अनेकानेक भाषाओं में अनूदित हैं। गुरुकुल में ज्ञान न प्राप्त कर पाने पर घर जाते समय कुऍं में रस्सी के निशान को देखकर परिश्रम करने का मन्त्र लेकर बोपदेव ने अध्ययन किया। विद्वान बनकर इन्होंने संस्कृत भाषा के व्याकरण की रचना की और महान बन गए। ये और अनेकों अन्य रचनाकार स्वाध्याय की बदौलत महान बने जिनका नाम हम श्रद्धा से लेते हैं।
           आज के नवोदित लेखकों व कवियों में इतनी भी सहनशीलता नहीं है कि वे साहित्य साधना करें। वे अपने अतिरिक्त किसी दूसरे रचनाकार को साहित्यकार नहीं मानते। न ही वे किसी अन्य रचनाकार की रचनाओं या पुस्तकों को पढ़ना ही चाहते हैं। उनके पास साहित्य की साधना करने का समय ही नहीं है।
        काव्य लिखने वाले नवोदितों को प्रायः  छन्द, अलंकार, लय, गति, यति व गेयात्मकता आदि के विषय में जानकारी ही नहीं है। उन्हें यह भी ज्ञान नहीं होता कि काव्य को समृद्ध कैसे बनाया जाता है? काव्य का भी अपना एक अनुशासन होता है जिसका पालन करना चाहिए। कुछ लोगों को पुस्तक छपवाने की बहुत जल्दी रहती है। चाहे उनके पास एक पुस्तक लायक रचनाएँ भी न हों। कभी-कभी ऐसा लगता है कि ये सभी लोग रातोंरात महाकवि की श्रेणी में आ जाएँगें।
          आज के रचनाकारों की साधना न होने के कारण बहुत से ऐसे लोग हैं जो भाषा के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। उनकी रचनाओं में लिंग, वचन की अशुद्धियाँ बहुधा मिलती हैं। उन लोगों को वर्तनी (spelling) का भी ज्ञान नहीं। इसलिए उनकी रचनाओं में अशुद्धियों की भरमार होती है। जिससे पाठक का मन व्यथित होता है।
             गद्य लिखना पद्य से भी कठिन माना जाता है। संस्कृत भाषा के महाकवि दण्डी इस विषय में रचनाकारों को कहते हैं -
          'गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति' 
अर्थात् है, गद्य को कवि की कसौटी कहा जाता है। इसका मतलब है कि अच्छा गद्य लिखने में किसी व्यक्ति के विचारों और भावनाओं को व्यक्त करने की क्षमता, उसकी लेखन क्षमता और कला को दर्शाता है। लेखकों का साहित्य भी तभी समृद्ध होता है जब उसमें लेखक की साधना की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। काव्य की ही तरह गद्य का भी अपना अनुशासन होता है।
           एक-दूसरे का सामना होने पर प्रशंसा करना पर और पीठ पीछे सबको गाली-गलौच करने से कोई साहित्यकार नहीं बन सकता। मेरा ऐसा मानना है कि जो अच्छा मनुष्य नहीं बन सकता, वह कदापि अच्छा लेखक नहीं हो सकता। दूसरों पर अपनी छाप छोड़ने के लिए रचनाकार का स्वयं का जीवन भी क्रियात्मक होना चाहिए।
           पीत पत्रकारिता की चर्चा सोशल नेटवर्क, पत्र-पत्रिकाओं, टीवी आदि पर यदा कदा होती रहती है। उसी प्रकार रचनाओं की चोरी की घटनाएँ भी प्रकाश में आती रहती हैं। इनके कारण न्यायालयों में केस किए जाने के समाचार भी प्राप्त होते रहते हैं। इसका शिकार बहुत से लोग होते रहते हैं। वे अपनी व्यथा प्रकट करते रहते हैं।
          ये कुछ संकेत हैं रचनाकारों के लिए। इसके साथ यह भी जोड़ना चाहती हूँ कि यदि रचना केवल फूहड़ता अथवा अश्लीलता लिए होती है तो साहित्य की श्रेणी में वह कदापि नहीं आती। ऐसा साहित्य कदापि सम्मानजनक नहीं होता जिसे छिप-छिपा कर पढ़ना पढ़ा जाए या बेचा जाए।
           समाज में बढ़ती विकृतियों को देखते हुए, आज के साहित्यकारों का दायित्व बढ़ जाता है। उनके लेखन में इतना ओज होना चाहिए जो नयी पीढ़ी को दिशा दे सके।
चन्द्र प्रभा सूद 

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