शनिवार, 21 जून 2025

धर्म-कर्म व्यक्तिगत

धर्म-कर्म व्यक्तिगत 

धर्म-कर्म, पूजा-पाठ आदि प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तिगत मामला है। किसी दूसरे को इसमें हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। कौन व्यक्ति किस धर्म या सम्प्रदाय को मानता है या किस विशेष देवी-देवता की आराधना करता है, इस पर यदि व्यक्ति विशेष को ही विचार करने दें तो अधिक उपयुक्त होगा।
            कोई व्यक्ति साकार ईश्वर की उपासना करता है और कोई परमात्मा के निराकार रूप  की। कोई मनुष्य कर्मकाण्ड करता है, ईश्वर को नवधा भक्ति से रिझाने का यत्न करता है। दूसरी ओर कोई व्यक्ति केवल योग के माध्यम से उस तक पहुँचना चाहता है। इनके अतिरिक्त कोई व्यक्ति केवल मात्र जप-तप का मार्ग अपनाता है। कहने का अर्थ है तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र किसी भी मार्ग को अपनाकर प्रभु तक पहुँचने के लिए मानव प्रयत्नशील है। ईश्वर की उपासना के किसी भी मार्ग को अनुचित कहना शोभनीय नहीं है। यह जरूरी नहीं कि हम दूसरे व्यक्ति की सोच से सहमत हों।
             विश्व में अनेक धर्म हैं और उनकी अनुपालना करने वाले भी असंख्य लोग हैं। इसमें झगड़े वाली कोई बात है ही नहीं। धर्मों को युद्ध का मैदान बनाना अनुचित कार्य है। ये सभी धर्म मानव जाति के उत्थान की चर्चा करते हैं। उसे सदा यही समझाते हैं कि ईश्वर को पाना ही उसका अन्तिम लक्ष्य है। अपने इसी लक्ष्य को प्राप्त करना मनुष्य के लिए परम आवश्यक है। अन्यथा उसे बार-बार इस धरती पर जन्म लेना पड़ेगा।
            ईश्वर एक है उसका हम अनेकानेक नामों से स्मरण करते हैं। ऋग्वेद का यह मन्त्रांश हमें समझाता है -
            एको हि सद् विप्रा बहुधा वदन्ति।
अर्थात् ईश्वर एक है। विद्वान उसे अलग-अलग नामों से सम्बोधित करते हैं।
             इस विषय में हम भौतिक जगत का एक उदाहरण लेते हैं। व्यक्ति एक होता है पर उसे बेटा, मित्र, पिता, भाई, मामा, चाचा, ताऊ, दादा, पति, फूफा, मौसा आदि अनेक नामों से उसे सम्बोधित करते हैं। इन सबके अतिरिक्त उसके कार्यक्षेत्र के अनुसार भी उसे किसी अन्य नाम से अभिहित किया जाता है। जब एक सांसारिक व्यक्ति को हम इतने सारे नामों से पुकार सकते हैं तो जिसने ऐसे अरबों-खरबों जीवों को उत्पन्न किया हैं, उसके असंख्य नाम होना तो स्वाभाविक ही है।
              सभी धर्म उस प्रभु तक पहुँचने का एक  मार्ग मात्र हैं। इसलिए सभी धर्म एकसमान कहे जा सकते हैं तथा उनकी श्रेष्ठता से इन्कार नहीं किया जा सकता। 
             यहॉं हम एक अन्य उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए हमें अपने देश भारत की राजधानी दिल्ली जाना है। बताइए कैसे जाएँ? रेल से, बस से, हवाई जहाज से, अपनी कार से या अन्य कोई और ट्रक-टेम्पो आदि वाहन हो सकता है। इनमें से किसी भी साधन से देश या विश्व के किसी भी कोने से दिल्ली आया जा सकता है। इस भौतिक प्रदेश में पहुँचने के लिए अनगिनत मार्ग हैं। वैसे ही ये सभी धर्म भी हैं जो अपने-अपने तरीके से उस परमसत्ता तक जाने का मार्ग दर्शाते हैं। 
            सभी धर्म मानवता, सौहार्द, दया, करुणा, प्राणीमात्र से प्यार करना, अहिंसा आदि मानवोचित गुणों को पालन करने का पाठ पढ़ाते हैं। कोई भी धर्म लड़ाई-झगड़े या नफरत करने की आज्ञा हमें  नहीं देता। कुछ मुट्ठी भर इन्सानी दिमाग धर्म के नाम पर नफरत फैलाते हैं जिसे किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता।
             मेरा धर्म श्रेष्ठ है, तुम्हारा धर्म निकृष्ट है, यह कहकर किसी भी धर्म को नीचा दिखाना अथवा उन विशेष धर्मावलम्बियों का अपमान करना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। लोगों को लालच देकर या तलवार के बल पर जोर-जबरदस्ती धर्मांतरण करवाना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता। अब यह हमारी मेधा या बुद्धि पर निर्भर करता है कि हम किस मार्ग पर चल कर अपना जीवन सफल बना सकते हैं अथवा किस राह को चुनकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य करना चाहते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद 

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