ज्ञानार्जन करिए
हमारे महान ग्रन्थ ज्ञान का अथाह सागर हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम उस सागर से मोती लेकर आ सकते हैं या किनारे पड़ी सीपियों से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। यदि हम उन अपने ग्रन्थों का पारायण नहीं करेंगे तो कितना भी बड़ा पुस्तकालय हमारे पास है, वह हमारे लिए व्यर्थ है। वह केवल प्रदर्शन के लिए ही रह जाएगा। यानी हम अपने घर आने जाने वालों को वह खजाना दिखाकर वाहवाही लूटने का कार्य करेंगे। हमारा अपना ज्ञान वही है जो हमने अध्ययन करके, साधना करके अपने अन्तस् में समेटा है।
हम अपने ऊपर कितना भी मान कर लें कि हमने अपने घर में पुस्तकों का संग्रह किया है, हमारे पास बहुत बढ़िया पुस्तकालय है। यदि हम उन ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करते तो बिना पढ़े वह सारा पुस्तकीय ज्ञान हमारे किसी काम नहीं आने वाला। दूसरे शब्दों में हमने अपना धन व्यर्थ ही पुस्तकों को क्रय करने और सहेजने में गॅंवाया है। बिना ज्ञान के विद्वानों के मध्य हमारी वही स्थिति हो जाएगी जैसे हंसो के बीच में जैसे बगुले की होती है। किसी कवि ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
माता शत्रुः पिता वैरी, येन बालो न पठितः।
न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा।
अर्थात् वह माता शत्रु है और पिता वैरी है, जिन्होंने अपने बच्चे को नहीं पढ़ाया। वह विद्वानों की सभा में उसी प्रकार सुशोभित नहीं होता जैसे हंसों के बीच बगुला।
हम कह सकते हैं कि मनुष्य ज्ञान के बिना सुशोभित नहीं होता। उसे विद्वत सभा में हंसी का पात्र बनना पड़ जाता है। हंस के विषय में हम जानते हैं कि वह नीर-क्षीर विवेकी होता है यानी वह दूध और पानी को अलग कर देता है। वह बहुत बुद्धिमान होता है। इसके विपरीत बगुले को हम ढोंगी मानते हैं। इसीलिए ढोंगी मनुष्यों को समाज में बगुला भक्त कहकर तिरस्कृत किया जाता है। अतः हंसों की सभा में उसको कोई सम्मानजनक स्थान मिल पाना असम्भव होता है।
ज्ञान के आगार की भॉंति हमारे धन की भी स्थिति होती है। हमारे पास कितना भी धन क्यों न हो, यदि वह हमारे पास नहीं है तो उसकी भी हमारे लिए कोईा उपादेयता नहीं होती। यानी जो धन हमारे पास है वही हमारा है, शेष नहीं। हमारे पास मान लीजिए बहुत धन है और हम लेन-देन का कारोबार करते हैं या व्यापार का बहुत-सा धन हमारे डीलर्स के पास पड़ा है। उस धन को हम अपना नहीं कह सकते जब तक वह हमारे हाथ में नहीं आता। जब हमें उस धन की सुख या दुख में आवश्यकता होगी तो वह हमें समय रहते मिल जाएगा ऐसा कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता।
इसीलिए किसी विद्वान ने हमें चेतावनी देते हुए कहा है-
पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम्।।
अर्थात् पुस्तक में लिखा हुआ ज्ञान और दूसरे को दिया हुआ धन, मुसीबत के समय न वह ज्ञान काम आता है और न वह धन।
इस श्लोक को यहॉं उद्धृत करने का उद्देश्य यही है कि पुस्तकों में छिपा हुआ ज्ञान हमारे लिए व्यर्थ है यदि हम उस ज्ञान का अर्जन नहीं करते। इसी प्रकार वह धन भी हमारे लिए व्यर्थ है जो हमारे हाथ में नहीं है। दूसरे के पास जो हमारा धन है, उसे देने में वह आनाकानी कर सकता है। हमारी जरूरत के समय यदि वह नहीं मिल सका तो उसके होने का कोई लाभ नहीं है।
मैं अपने सभी साथियों से आग्रह करती हूँ कि अधिक-से-अधिक ज्ञानार्जन करें ताकि समय आने पर उपहास का पात्र न बनना पड़े। इस प्रकार विद्वानों के समक्ष किसी भी विषय पर हम अपने विचार स्पष्टता और दृढ़ता के साथ रख सकेंगे। इसी तरह अपने खून-पसीने से कमाए हुए धन को भी यथासम्भव अपने पास संग्रहित करके रखें। उसे किसी को अनावश्यक न देकर बैंक में रखकर सुरक्षित करें। ताकि समय आने पर धन के लिए किसी दूसरे का मुँह न ताकना पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
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