मंगलवार, 10 जून 2025

आलस्य बड़ा शत्रु

आलस्य बड़ा शत्रु 

आलस्य मनुष्य के शरीर में रहने वाला बहुत बड़ा शत्रु है। संस्कृत में एक सूक्ति है-
    आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः।
   नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति।। 
अर्थात् मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य सबसे बड़ा शत्रु है। परिश्रम के समान कोई मित्र नहीं होता है। क्योंकि परिश्रम करता हुआ मनुष्य कभी दुखी नहीं होता। 
           यह श्लोक आलस्य के हानिकारक प्रभाव और परिश्रम के महत्व पर प्रकाश डालता है। इस आलस्य को एक शक्तिशाली शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो मनुष्य के विकास और सफलता को बाधित करता है। परिश्रम को एक सच्चा मित्र बताया गया है जो मनुष्य को कभी दुखी नहीं होने देता। इस महाशत्रु को अपने जीवन में स्थान नहीं देना चाहिए।
         ‌  आलसी व्यक्ति सदा ही अपने जीवन में असफलता का मुख देखता है। वह नाकारा व्यक्ति किसी का प्रिय नहीं होता। उसे समाज में सम्मान नहीं मिलता। घर-बाहर सर्वत्र उस महारथी को दरकिनार कर दिया जाता है। उसे यही कहा जाता है कि इसके होने न होने से कोई लाभ नहीं। या फिर कहते हैं जाकर आराम करो तुम्हारे बस का कुछ नहीं है। इस प्रकार ऐसा मनुष्य भीड़ में रहता हुआ भी अकेला रह जाता है।
            जरा से शारीरिक सुख के लिए इतनी हाय-तौबा? इन्सान यह नहीं सोचता कि आलस्य करने से कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आलसी व्यक्ति भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ रख कर बैठा रहता है। इसमें उसे कोई हिचक नहीं होती। इसीलिए ऐसे ही लोगों के लिए यह उक्ति कही गई है- 
             दैव दैव आलसी पुकारा।
           आलसी व्यक्ति का यह मानना होता है कि जिसने पैदा किया है वही सबका पेट भरता है। यह ठीक है कि वह ईश्वर सबका पालन-पोषण करता है और कोई कमी नहीं रखता। पर शायद ये लोग भूल जाते हैं कि मुँह के सामने पड़ी थाली को मात्र देखने से पेट नहीं भरता। उसके लिए भी मेहनत करनी पड़ती है और हाथ बढ़ाकर कौर तोड़कर मुँह में डालना पड़ता है तभी पेट भरता है। ऐसे लोगों के लिए मलूकदास जी का निम्न दोहा रामबाण सिद्ध होता है-
    अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम।
     दास मलूका कह गए सबके दाता राम॥
अर्थात् अजगर किसी की चाकरी नहीं करता और पक्षी कोई काम नहीं करता। मलूकदास जी कहते हैं कि सबको देने वाले भगवान राम हैं।
            यह सोचना कि अजगर को बिना मेहनत किए भोजन मिल जाता है और पक्षी को बिना श्रम दाना मिलता है उचित नहीं। भोजन की तलाश में उन्हें भी स्थान-स्थान पर भटकना पड़ता है और अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। ईश्वर निस्सन्देह सबका ध्यान रखता है पर साथ ही मेहनत करने के लिए भी कहते हैं। 
             मनुष्य को परिश्रम करने के लिए प्रेरित करते हुए 'हितोपदेश' के इस श्लोक को देखिए-
         उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।
      न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
अर्थात् परिश्रम करने से ही सफलता मिलती है, केवल कामना करने नहीं। सोए हुए शेर के मुॅंह में स्वयं पशु नहीं चला जाता। 
            यानी केवल शेखचिल्ली की तरह सोचते रहने से इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं, बिना उद्यम किए हम एक कदम भी नहीं चल सकते। जंगल के राजा शेर को भी भोजन जुटाने के लिए मेहनत करनी पड़ती हैं। उसका शिकार स्वयं चलकर नहीं आता।
           आलस के कारण जो परिश्रम करने से जी चुराते हैं वे जीवन की रेस में पिछड़ जाते हैं। अपनी व पारिवारिक दैनन्दिन आवश्यकताओं को जब वो पूर्ण नहीं कर सकते तो पारिवारिक, धार्मिक व सामाजिक दायित्वों का निर्वहण करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अभावों में जीवन व्यतीत करते इन लोगों को अपनी पत्नी व बच्चे तक नहीं पूछते। उन्हें सर्वत्र तिरस्कृत होना पड़ता है।
           ऐसा नारकीय जीवन बिताने से तो अच्छा है कि उठो, परिश्रम करो और फिर मनचाही सफलता प्राप्त करो। सारी मुसीबतों की असली जड़ इस आलस्य को छोड़कर उद्यम करें। घर-परिवार व समाज में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बनाकर गौरवशाली बनना चाहिए और सिर उठाकर चलना चाहिए। इस प्रकार करने से इस जीवन के सभी कार्य सुखपूर्वक सम्पन्न करने का सन्तोष मिलेगा जो बहुमूल्य है।
           यह सत्य है कि हम सभी कभी न कभी आलस्य से ग्रसित हो जाते हैं परन्तु फिर भी अपने जीवन की महत्वपूर्ण योजनाओं को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करके अपने मार्ग को प्रशस्त करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद 

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