ज्ञान देने वाला गुरु
ज्ञान देने वाले को हम गुरु कहते हैं। ज्ञान अगाध होता है, उसकी कोई सीमा नहीं होती। उस असीम ज्ञान रूपी अमृत को हम किसी से भी प्राप्त कर सकते हैं। यानी कि शिक्षा देने वाला कोई भी जीव हो सकता है। वह कोई मनुष्य भी हो सकता है और अन्य कोई जीव यानी पेड़-पौधे या पशु-पक्षी भी हो सकते हैं।
हम चींटी जैसे छोटे से जीव से भी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं और शेर जैसे शक्तिशाली जीव से भी। आप कहेंगे क्या मूर्खतापूर्ण बात कही है। मेरी बात को आप सहजता से चाहे स्वीकार मत कीजिए, पहले उसे अपनी तर्क की कसौटी पर अवश्य परख लें।
'रामायण' में आपने पढ़ा होगा कि रावण ने सीता जी का अपहरण कर लिया था। भगवान राम को उनके विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था। तब जंगल में विद्यमान पेड़-पौधों से भगवती सीता जी के विषय में पूछते हैं। पर पक्षीराज जटायु ने उन्हें उचित दिशानिर्देश दिया था। हनुमान जी को वानर मानते हुए भी उन्हें हम लोग भगवान की तरह पूजते हैं। हम उन्हें 'ज्ञान गुण सागर' कहते हैं। तुलसीदास विरचित 'रामचरितमानस' में काक भुशुण्डी ने ईश्वर भक्ति का उपदेश दिया था। हमारी संस्कृति में भगवान विष्णु के प्रमुख दस प्रमुख अवतार कहे जाते हैं। उन अवतारों में मनुष्य रूप के अतिरिक्त मत्स्य, वराह आदि अन्य जीव भी हैं।
संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्ध कवि 'आर्यशूर' द्वारा 'जातकमाला' नामक ग्रन्थ लिखा गया। इसमें भगवान बुद्ध के विषय में उनके पशु-पक्षियों के रूप में अवतरित होकर ज्ञान देने का चित्रण है। इससे प्रेरणा लेकर हम महात्मा बुद्ध के उपदेशों का अपने जीवन में पालन करके निस्सन्देह आत्मिक उन्नति कर सकते हैं।
यह आवश्यक नहीं हैं कि हम किसी मनुष्य विशेष को ही अपना गुरु मानकर उसे अपनाने के साथ-साथ उसके दुष्कर्मों पर भी परदा डालें। हमें अपनी ज्ञान पिपासा को शान्त करने के लिए बहुत ही सूझबूझ से काम लेना चाहिए। अन्यथा जीवन में व्यर्थ ही भटकना पड़ता है। उस भटकाव का कोई अन्त नहीं होता।
गुरु सहिष्णु, ईमानदार, सत्यवादी, संयमी, सदाचारी, अपरिग्रही होने के साथ-साथ मन, वचन व कर्म से भी एक होना चाहिए। तभी वह सही मायने में गुरु कहलाने के योग्य होता है। हम लोग उसे ईश्वर तुल्य मानकर उसकी पूजा करते हैं। उसकी कही गई हर बात का प्रभाव दूसरों पर होता है। जो वस्तुतः गुरु होता है, उसे किसी प्रकार की सुरक्षा, हथियारों या सेना की आवश्यकता नहीं होती। यदि गुरु इस कसौटी पर खरा न उतरे तो वह गुरु कहलाने का अधिकारी नहीं है।
हमारे ग्रन्थों में गुरु का बखान अनेकशः मिलता है। कसौटी पर कसने के पश्चात ही किसी को गुरु बनाना चाहिए। आँख मूँद करके भेड़चाल नहीं करनी चाहिए। न ही अपने तुच्छ स्वार्थों की पूर्ति के लिए अवांछित गुरु का साथ ही देना चाहिए। यदि हम मूर्खतावश ऐसा करने लगते हैं तो इसका दुष्परिणाम भोगने के लिए भी हमें तैयार रहना पड़ेगा।
अपने ग्रन्थों को यदि गुरु बनाकर यदि उनका पारायण किया जाए तो मनुष्य को कोई भी भटका नहीं सकता। ग्रन्थ ज्ञान के आगार होते हैं। इनसे अच्छा गुरु और कोई नहीं हो सकता। इनसे हर प्रकार का ज्ञान मनुष्य प्राप्त कर सकता है। सिख पंथ 'गुरुग्रन्थ साहब' को ही अपना गुरु मानता हैं। कहने मात्र से ही पता चलता है कि गुरु कोई मनुष्य विशेष नहीं बल्कि ग्रन्थ है। इसी तरह अपने सद् ग्रन्थों को गुरु मानकर उनका पारायण करके हम अपने जीवन को सफल बना सकते हैं।
गुरु पद बहुत ही महान होता है। यह बहुत ही जिम्मेदारी का पद होता है। इस पद का अपमान करने वालों को अपनी दूरदृष्टि से पहचान करके उनसे किनारा कर लेना चाहिए। अपना खून-पसीना एक करके कमाए हुए अपने धन व अपने बहुमूल्य समय को नष्ट होने से यथासम्भव बचाने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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